अठारहवाँ अध्याय कार्तिक माहात्म्य
राजा पृथु नारदजी से पूछने लगे कि हे नारदजी! सब गोपियों में राधाजी ही श्रीकृष्णजी को अधिक प्रिय क्यों हैं
तथा कार्तिक मास में भगवान् के साथ उनकी पूजा क्यों होती है ?
यह सब कथा विस्तार पूर्वक हमसे कहिए। तब नारदजी कहने लगे कि पहले मन्वन्तर में पांचाल देश में प्राचीन वीहि नाम का राजा था।
उसने भगवान् विष्णु का अति विशाल मन्दिर बनवाया। वहां नित्य ही बड़े विधि-विधान से भगवान् का पूजन हुआ करता था।
उसी गांव की अति सुन्दर एक स्त्री प्रेम में विह्वल हो भगवान के सामने बड़ा ही मोहक नृत्य किया करती थी।
उसके मन में सदैव यही लालसा लगी रहती थी कि वह इसी तरह भगवान के गले में बाहें डालकर नृत्य करती रहे।
एक दिन उसने अपना समस्त द्रव्य लाकर गरीबों में बांट दिया और उसी मनोरथ में अपने प्राण त्याग दिये।
दूसरे जन्म में वह सुन्दर देवांगना बनी। एक दिन चन्द्रकीर्ति नाम वाली वह देवांगना दर्पण में अपना अद्भुत रूप लावण्य देखकर मन ही मन कहने लगी कि सिवाय भगवान् के मेरा और कोई पति नहीं हो सकता।
ऐसा विचार कर भगवान् की मूर्ति में अपना मन लगाकर नृत्य करने लगी।
कुछ समय के पश्चात् दैत्यों से दुःखी होकर समस्त देवता ब्रह्माजी की शरण में गये।
तब ब्रह्माजी ने भगवान् विष्णु के कृष्णावतार लेने का सम्पूर्ण वृत्तांत देवताओं को सुनाया और उनको आज्ञा दी कि देवता ग्वाल-बाल एवं देवांगनायें गोपियों के रूप में जन्म लेकर भगवान् की सेवा करें।
चन्द्रकीर्ति जो देवांगना के रूप में थी, ब्रह्माजी से प्रार्थना करके बोली कि उसका पूर्वजन्म का मनोरथ पूर्ण होने की आज्ञा दी जाय।
जिससे मैं भगवान् के साथ नृत्य कर सकूं।
तब ब्रह्माजी ने उसको वरदान दिया कि तुम नन्दग्राम में वृषभान गोप के घर में राधा नाम से जन्म लेकर सब गोपियों से अधिक भगवान् की प्रिय होगी
और भगवान् तुमको अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय समझेंगे तथा रासोत्सव में तुम उनके साथ नृत्य करोगी। इस प्रकार तुम्हारा पूर्व मनोरथ पूर्ण होगा।
नारदजी कहते हैं सो ब्रह्माजी के वचनों को सत्य करने के लिए भगवान् ने श्रीकृष्णावतार में राधाजी के साथ रासोत्सव में नृत्य किया और उनको प्राणों से अधिक प्रियसमझा।