श्री अन्नपूर्णा चालीसा
चालीसा
अन्नपूर्णा चालीसा एक भक्ति गीत है जो अन्नपूर्णा माता पर आधारित है।
॥ दोहा ॥
विश्वेश्वर-पदपदम की, रज निज शीश लगाय । अन्नपूर्णे! तव सुयश,बरनौं कवि-मतिलाय॥
॥ चौपाई ॥
नित्य आनन्द करिणी माता । वर-अरु अभय भाव प्रख्याता ॥
जय ! सौंदर्य सिन्धु जग-जननी। अखिल पाप हरभव-भय हरनी॥
श्वेत बदन पर श्वेत बसन पुनि। सन्तन तुव पद सेवत ऋषिमुनि॥
काशी पुराधीश्वरी माता। माहेश्वरी सकल जग त्राता ॥
बृष भारुढ़ नाम रुद्राणी । विश्व विहारिणि जय ! कल्याणी ॥
पदिदेवता सुतीत शिरोमनि। पदवी प्राप्त कीह्न गिरि- नंदिनि ॥
पति विछोह दुख सहि नहि पावा।योग अग्नि तबबदन जरावा ॥
देह तजत शिव-चरण सनेहू राखेहु जाते हिमगिरि-गेहू ॥
प्रकटी गिरिजा नाम धरायो। अति आनन्द भवन मँह छायो ॥
नारद ने तब तोहिं भरमायहु । ब्याह करन हित पाठ पढ़ायहु॥
ब्रह्मा-वरुण-कुबेर गनाये । देवराज आदिक कहिगाय ॥
सब देवन को सुजस बखानी । मतिपलटन की मन मँह ठानी॥
अचल रहीं तुम प्रण पर धन्या।कीह्नी सिद्धहिमाचल कन्या॥
निज कौ तव नारद घबराये। तब प्रण- पूरण मंत्र पढ़ाये॥
करन हेतु तप तोहिं उपदेशेउ । सन्त-बचन तुम सत्य परेखेहु॥
गगनगिरा सुनि टरी न टारे । ब्रह्मा, तब तुव पास पधारे ॥
कहेउ पुत्रि वर माँगु अनूपा। देहुँ आज तुव मति अनुरूपा ॥
तुम तप कीह्न अलौकिक भारी । कष्ट उठायेहु अति सुकुमारी ॥
अब संदेह छाँड़ि कछु मोसों । है सौगंध नहीं छल तोसों ॥
करत वेद विद ब्रह्मा जानहु । वचन मोर यह सांचो मानहु॥
तजि संकोच कहहु निज इच्छा। देहौं मैं मन मानी भिक्षा॥
सुनि ब्रह्मा की मधुरी बानी । मुखसों कछु मुसुकायि भवानी ॥
बोली तुम का कहहु विधाता । तुम तो जगके स्रष्टाधाता॥
मम कामना गुप्त नहिं तोंसों। कहवावा चाहहु का मोसों॥
इज्ञ यज्ञ महँ मरती बारा। शंभुनाथ पुनि होहिं हमारा ॥
सो अब मिलहिं मोहिं मनभाय । कहि तथास्तु विधि धाम सिधाये॥
तब गिरिजा शंकर तव भयऊ। फल कामना संशय गयऊ॥
चन्द्रकोटि रवि कोटि प्रकाशा। तब आनन महँकरत निवासा॥
माला पुस्तक अंकुश सोहै । करमँह अपर पाश मनमोहे ॥
अन्नपूर्णे ! सदपूर्णे। अज-अनवद्य अनन्त अपूर्णे॥
कृपा सगरी क्षेमंकरी माँ । भव-विभूति आनन्द भरी माँ॥
कमल बिलोचन विलसित बाले । देवि कालिके ! चण्डि कराले ॥
तुम कैलास मांहि ह्वै गिरिजा । विलसी आनन्दसाथ सिन्धुजा ॥
स्वर्ग-महालछमी कहलायी। मर्त्य-लोक लछमी पदपायी ॥
विलसी सब मँह सर्व सरुपा। सेवत तोहिं अमरपुर- भूपा ॥
जो पढ़िहहिं यह तुव चालीसा । फल पइहहिं शुभ साखी ईसा ॥
प्रात समय जो जन मन लायो । पढ़िहहिं भक्ति सुरुचि अघिकायो॥
स्त्री – कलत्र पनि मित्र-पुत्र युत । परमैश्वर्य लाभ लहि अद्भुत ॥
राज विमुखको राज दिवावै । जस तेरो जन-सुजस बढ़ावै॥
पाठ महा मुद मंगल दाता। भक्त मनो वांछित निधिपाता॥
॥ दोहा ॥
जो यह चालीसा सुभग, पढ़ि नावहिंगे माथ। तिनके कारज सिद्ध सब, साखी काशी नाथ॥