सोलहवाँ अध्याय कार्तिक माहात्म्य

सोलहवाँ अध्याय कार्तिक माहात्म्य

नारदजी कहते हैं कि अब मैं दीप दान तथा भगवान् के मन्दिर में मार्जन (झाड़ू) का वही माहात्म्य कहता हूं जोब्रह्माजी ने मुझे बताया था।

पहले चन्द्र वंश में जयध्वज नाम का एक प्रभु भक्त राजा था। राजा स्वयं मन्दिर में जाकर मार्जन करता तथा दीप जलाता था।

एक समय वीतिहोत्र नाम वाला राजपुरोहित स्वयं राजा को यह काम करते हए देखकर विस्मय से पूछने लगा कि हे राजन् !

भगवान् को प्रसन्न करने के और भी अनेक भक्ति के कार्य हैं, परन्तु आपकी श्रद्धा मन्दिर में मार्जन तथा दीप जलाने में इतनी अधिक क्यों है?

कृपा करके इसका कारण कहिए। तब राजा हाथ जोड़ कर बड़े नम्र भाव से कहने लगा कि महाराज इस सम्बन्ध में मेरे पूर्व जन्म का एक अत्यन्त विस्मयकारी इतिहास है,

जो भगवद् कृपा से मुझे इस जन्म में भी स्मरण है। सतयुग में स्वरोचिष मनु के अन्तर में वेद तथा वेदांगों का जानने वाला एक ब्राह्मण था,

जो महान् विद्वान होते हुए भी खोटे कर्म करता था। इन खोटे कर्मों के कारण उसके सभी बन्धु- बांधवों ने उसका परित्याग कर दिया था।

एक दिन वह भूख और प्यास से अति दुःखित हो घूमता फिरता नर्मदा नदी के तट पर जा पहुंचा, और वहीं पर उसने अपने प्राण त्याग दिए।

उसकी स्त्री भी व्यभिचारिणी थी अतः उसके बन्धुओं ने उसे भी घर से निकाल दिया। उसके गर्भ से दंडकेतु नाम वाला महापापी में उत्पन्न हुआ।

परन्तु स्त्री तथा पैसे के अभाव में मैंने गौ, पशु तथा अनेक मनुष्यों की हत्यायें कीं। एक रात्रि को किसी दूसरे की स्त्री से भोग करने की इच्छा से एक सूने मन्दिर में गया।

वहां जाकर कपड़े से स्थान साफ किया फिर दीपक जलाया। इतने में उस शून्य मन्दिर में दीपक जलता हुआ देखकर गांव के रक्षक वहां आ गए और उन्होंने मुझे चोर अथवा डाकू समझकर लाठियों से मार डाला।

देह से प्राण निकलते ही भगवान् के दूत वहां आ गए और उन्होंने मुझको सुन्दर विमान में बिठाकर वैकुण्ठ को ले गए।

कार्तिक के महीने में भगवान् के मन्दिर में दीपक जलाने तथा झाड़ू देने से मुझे इतना फल मिला कि कई कल्पों तक स्वर्ग में सुख भोगकर फिर चन्द्रवंश में मैंने जन्म लिया है।

यदि श्रद्धा और भक्तिपूर्वक कार्तिक के महीने में यह सब कार्य किये जायें तब तो उसके पुण्य का कहना ही क्या है, अनन्त फल प्राप्त होगा।नारदजी कहते हैं, हे राजा पृथु !

अब दूसरे के दीपक जलाने का माहात्म्य सुनो। मनु के वंश में रैवत नामक राजा का भद्रबुद्धि नाम वाला पुत्र था।

फिर उसके यहां महा पराक्रमी सुदर्शन नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। भद्रबुद्धि की राजधानी नर्मदा के तट के समीप महेन्द्र पर्वत पर थी।

एक समय सुदर्शन वन में शिकार खेलने के लिए गया। अपने साथियों के साथ घूमते-फिरते समय उसने नदी के उस पार एक सुन्दर कन्या को देखा।

तब अपने साथियों को वहीं पर छोड़, घोड़े पर सवार हो सुदर्शन तत्काल नदी के उस पार जा पहुंचा। वहां उस रूपवती कन्या को देखकर वह उस पर मोहित हो गया ।

कन्या भी शोभायुक्त उस बलशाली वीर पुरुष को देखकर लज्जा को प्राप्त हुई। फिर सुदर्शन के पूछने पर उस कन्या ने बतलाया कि वह गौड़ राजा की पुत्री है और उसका नाम मदनालसा है।

अपनी सखियों के साथ क्रीड़ा करने के लिए यहां पर आई है। तत्पश्चात् उन दोनों ने गन्धर्व रीति से वहीं पर अपना विवाह कर लिया और कुछ समय तक नर्मदा नदी के तट पर विहार करके पुनः अपने घर पर आकर आनन्द पूर्वक रहने लगे।

कुछ समय बाद राजा भद्रबुद्धि अपने पुत्र सुदर्शन को राज्य सौंप कर वन में चला गया। तत्पश्चात् सुदर्शन बड़ी राजनीति से राज-काज चलाने लगा।

रानी मदनालसा सदा अपने पति को विष्णु भगवान् की पूजा का उपदेश करती रहती थी। इस प्रकार दोनों ही भगवान् के बड़े भक्त थे।

उन्होंने भगवान् का स्वर्ण मन्दिर बनवाया। दोनों ही उसमें भगवान् का पूजन और दीप दान किया करते थे। एक समय रानी मन्दिर में दीपक जला रही थी कि उसी समय राजा ने उसको बुलाया।

परन्तु दीपक जलाकर आने में रानी को कुछ देरी हो गई। तब सुदर्शन ने क्रोधावेश में आकर रानी से कहा कि तुम तो कहा करती थीं कि पति ही स्त्री का देवता है,

फिर इस दीप दान में इतनी देर लगाकर तुमने मेरा अनादर क्यों किया? यदि देर से आने का कोई गुप्त कारण है तो बताओ।

सती साध्वी मदनालसा बड़े मीठे वचनों से बोली कि महाराज! मैं दीपदान का महत्व आपसे कहती हूं । मदनालसा कहने लगी कि अब मेरा चरित्र सुनिये।

पिछले जन्म में मैं अन्न कण ग्रहण करने वाली चुहिया थी। एक दिन गोदावरी के तट पर भगवान् के मन्दिर में रात्रि को जलता हुआ दीपक बत्ती छोटी होने से बुझने लगी।

मैंने बत्ती को लोभ से पकड़ कर उठाया तो उस समय दीपक तो जल गया, परन्तु मेरा मुख भी जल गया। इससे दुःखी हो मैं मृत्यु को प्राप्त हो गई।

परन्तु क्योंकि रात्रि के समय भगवान् का दीपक प्रज्वलित कर दिया था, इसी कारण मैं ऐसी रूपवती आपकी रानी बनी।

यदि श्रद्धा पूर्वक भगवान् के मन्दिर में दीपदान किया जाय तो उसके फल का तो कहना ही क्या है?

अपनी रानी के मुख से यह सब सुनकर सुदर्शन कार्तिक मास में व्रत करके आजीवन भगवान् के मन्दिर में दीपदान करता रहा और अन्त में वैकुण्ठ को प्राप्त हुआ।

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