बाल कृष्ण लीला
उत्तर प्रदेश में मथुरा भारत की प्राचीन और पवित्र नगरियों में से है । यहां भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था ।
जब कंस देव की और वसुदेव को विवाह के पश्चात छोड़ने जा रहा था तो आकाशवाणी हुई कि वसुदेव और देवकी की संतान ही उसकी मृत्यु का कारण होगी अतः उसने वसुदेव और देवकी दोनों को जेल में बंद कर दिया।
कंस उक्त दोनों की संतान के उत्पन्न होते ही मार डालताथा। भविष्यवाणी के अनुसार विष्णु को देवकी के गर्भ से कृष्ण के रूप में जन्म लेना था, तो उन्होंने अपने 8वें अवतार के रूप में 8वें मनु वैवस्वत के मन्वंतर के 28वें द्वापर में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की रात्रि के 7 मुहूर्त निकल गए और 8वां उपस्थित हुआ तभी आधी रात के समय सबसे शुभ लग्न उपस्थित हुआ।
उस लग्न पर केवल शुभ ग्रहों की दृष्टि थी। रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग में लगभग 3112 ईसा पूर्व (अर्थात आज से 5126 वर्ष पूर्व) को हुआ हुआ। ज्योतिषियों के अनुसार रात 12 बजे उस वक्त शून्य काल था।
भगवन श्री कृष्ण की बाल लीलाएँ
- मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ
- गोविन्द का गो-प्रेम
- ब्राह्मण पर श्रीकृष्ण-कृपा
- वात्सल्य-भरा-शासन
- बन्दरों को माखन लुटाना
- ऊखल-बन्धन
- फल-बेचनेवाली-पर-कृपा
- गोपाल की गो-पूजा
- वत्सासुर का उद्धार
मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ
एक बार भगवान् श्यामसुन्दर गोपकुमारोंके साथ खेल रहे थे। श्रीदामा, बलराम तथा मनसुखा आदि उनके साथ रसमयी क्रीड़ाका आनन्द ले रहे थे। इस खेलमें एक बालक दूसरेके हाथमें ताली मारकर भागता और दूसरा उसे पकड़नेका प्रयास करता था। बलरामने कहा- ‘मोहन! तुम मत भागो, तुम अभी छोटे हो, तुम्हारे पैरोंमें चोट लग जायगी।
मोहनने कहा-‘दाऊ! भला ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं अपने साथियोंके साथ खेलमें हिस्सा न लूँ। मैं दौड़ना जानता हूँ। मेरे शरीरमें बहुत बल है। मेरी जोड़ी श्रीदामा है। वह मेरे हाथमें ताली मारकर भागेगा और मैं उसे पकड़ेंगा।
श्रीदामाने कहा- नहीं, तुम मेरे हाथमें ताली मारकर भागो, मैं तुम्हें पकड़ता हूँ।’ इस प्रकार भगवान् श्यामसुन्दर श्रीदामाके हाथमें ताली मारकर भागे और श्रीदामा उन्हें पकड़नेके लिये उनके पीछे-पीछे दौड़ा।
थोड़ी दूर जाकर ही उसने श्यामको पकड़ लिया। श्यामसुन्दरने कहा- मैं तो जान-बूझकर खड़ा हो गया हूँ। तुम मुझे क्यों छूते हो ?
ऐसा कहकर, श्याम श्रीदामासे झगड़ने लगे। श्रीदामाने कहा- पहले तो तुम जोशमें आकर दौड़ने खड़े हो गये और जब हार गये तो झगड़ा करने लगे।’
बलरामजी बीचमें बोल पड़े- इसके तो न माता है और न पिता ही । नन्दबाबा और यशोया मैयाने इसे कहींसे मोल लिया है। यह हार-जीत तनिक भी नहीं समझता।
स्वयं हारकर सखाओंसे झगड़ पड़ता है।’ ऐसा कहकर, उन्होंने कन्हैयाको डाँटकर घर भेज दिया।
मोहन रोते हुए घर पहुँचे। यशोदा मैया रोनेका कारण पूछने लगीं। मोहनने रोते हुए कहा- ‘मैया! दाऊ दादाने आज मुझे बहुत ही चिढ़ाया। वे कहते हैं कि तू मोल लिया हुआ है, यशोदा मैयाने भला तुझे कब जन्म दिया। मैया! मैं क्या इसी क्रोधके मारे खेलने नहीं जाता।
दाऊने मुझसे कहा कि बता तेरी माता कौन है? तेरे पिता कौन हैं ? नन्दबाबा तो गोरे हैं और यशोदा मैया भी गोरी हैं।
फिर तू साँवला कैसे हो गया? ग्वाल- बाल भी मेरी चुटकी लेते हैं और मुसकुराते हैं। तुमने भी केवल मुझे ही मारना सीखा है, दाऊ दादाको तो कभी डाँटती भी नहीं।
मैयाने कन्हैयाके आँसू पोछते हुए कहा- ‘मेरे प्यारे मोहन! बलराम तो चुगलखोर है, वह जन्मसे ही धूर्त है। तू तो मेरा दुलारा लाल है। काला कहकर दाऊ तुम्हें चिढ़ाता है।
तुम्हारा शरीर तो इन्द्र-नीलमणिसे भी सुन्दर है, भला, दाऊ तुम्हारी बराबरी क्या करेगा। श्यामसुन्दर! मैं गायोंकी शपथ लेकर कहती हूँ कि मैं तुम्हारी माता हूँ और तुम ही मेरे पुत्र हो।’
गोविन्दका गो-प्रेम
गोपालका गायोंसे प्रेम तो निराला ही था। गायोंका गोकुलमें जन्म भी उनके अनेक जन्मोंके पुण्यका परिणाम था। वे कितनी भाग्यशालिनी थीं कि उन्हें श्रीकृष्णका पुचकार- भरा प्रेम मिलता था।
गोपाल बार-बार अपने पीताम्बरसे गायोंके शरीरकी धूल साफ करते तथा उन्हें अपने कोमल हाथोंसे सहलाते थे। गायोंको भी श्रीकृष्णको देख बिना चैन नहीं मिलता था।
वे बार-बार श्रीकृष्णके दर्शनकी लालसासे नन्दभवनके मुख्य दरवाजेकी तरफ टकटकी लगाये देखा करतीं, ताकि जैसे ही श्रीकृष्ण निकले वे अपनी आंखोंको उनके दर्शनसे तृप्त कर सकें।
जब भी मोहन बाहर निकलते गायें उनके शरीरको अपनी जीभ से चाट-चाटकर अपना सम्पूर्ण वात्सल्य उनके ऊपर उड़ेलती रहती थीं।
गायें भी यशोदा मैयासे कम भाग्यशालिनी नहीं थीं, क्योंकि उन्हें कन्हैयाको अपना दूध पिलानेका अवसर प्राप्त हो रहा था और बदले में कन्हैयाका प्रेम मिल रहा था।
गोकुल या व्रजमें रज कण भी बन जाना बहुत बड़े सौभाग्यकी बात है। रसखानने भगवान्से याचना करते हुए कहा है- जो पसु हाँ तो कहा बसु मेरो चरों नित नन्दकी धेनु मँझारन।
पाहन हौं तो वही गिरिको जो धरयो कर छत्र पुरन्दर धारन ॥
कन्हैया गायोंको माँकी तरह ही प्यार करते थे। इसीसे मौका मिलते ही उनके पास चले जाते थे।एक दिन कन्हैया सुबह-सुबह नन्दभवनसे निकलकर गोशालाएँ पहुँच गये । वहाँपर एक गाय उन्हें अपना दूध पिलानेके लिये उनकी प्रतीक्षा कर रही थी।
वात्सल्य-स्नेहसे उस गायका दूध अपने-आप चू रहा था। गायकी दृष्टि एकटक नन्दभवनके दरवाजेपर लगी थी, ताकि श्रीकृष्ण बाहर निकलें और वह उन्हें अपना दूध पिलाकर अपना जीवन सार्थक कर सके।
कन्हैया उसके पवित्र प्रेमकी उपेक्षा भला कैसे करते! वे नन्दभवनसे निकलकर गोशाला में सीधे उस गायके पास पहुँचे और उसके थनमें मुँह लगाकर उसका दूध पीने लगे।
इधर यशोदाजी कन्हैयाको चारों तरफ देख रही थीं। वे बार-बार गोपालको पुकार रही थीं। कान्हा! ओ कान्हा! तू कहाँ गया, अरे जल्दीसे आ भी जा ।
मैं कबसे तेरी प्रतीक्षा कर रही हूँ, लेकिन कन्हैया होता तब न सुनता, वह तो अपनी गैया माँका दूध पी रहा था।
यशोदा उसे पुकारती हुई सोच रही थीं, पता नहीं लाला कहाँ चला गया। उसने अभीतक कलेवा भी नहीं किया है।
खिड़कीसे बाहर झाँककर उन्होंने देखा कि कान्हा गया माताके थनमें मुँह लगाकर दूध पी रहा है। गाय कन्हैयाका सिर चाट रही है। यशोदा मैयाने कहा कि गया माँ! तू धन्य है।
मैं तो अभी कन्हैयाके कलेवाकी चिन्ता कर रही थी और तूने तो उसे दूध भी पिला दिया। मैं तुम्हें शत -शत नमन करती हूँ।
ब्राह्मण पर श्रीकृष्ण-कृपा
एक दिन नन्द-यशोदाके यहाँ एक तत्त्वज्ञ ब्राह्मण आये। ये भगवान् के अनन्य भक्त थे। उन्हें देखकर यशोदा मैयाको बड़ा ही आनन्द हुआ।
मैया ने बड़ी ही श्रद्धा भक्तिसे ब्राह्मणके पैर धोकर उन्हें बैठनेके लिये सुन्दर आसन दिया। कन्हैयाको बुलाकर उन्होंने विप्र देवताके चरणोंमें साष्टाङ्ग प्रणाम करवाया।
कन्या को देखते ही ब्राह्मण देवता आश्चर्यचकित रह गये। उनके नेत्र एकटक उस भुवनमोहनकी छवि माधुरीमें डूबते- उत्तराते रहे। फिर अपने-आपको सँभालकर उन्होंने कहा- ‘यशोदा।।
तुम्हारा लाला कोई साधारण बालक नहीं है, यह तो कोई अवतारी पुरुष लगता है। इसका सुयश गाकर युग युगतक लोग भवसागरसे तरते रहेंगे।
मैयाने कहा-‘ब्राह्मण देवता! आप कन्हैयाको आशीर्वाद दें कि भगवान् इसकी हर विपत्तिमें रक्षा करें।
ब्राह्मणोंका आशीर्वाद अमोध होता है। इसलिये आप इस बालकपर कृपा करें। भगवन्! बचपनसे ही इसके ऊपर एक से एक विपत्ति आ रही है, पता नहीं, विधाताने इसके भाग्यमें क्या लिखा है ??
ब्राह्मणने कहा- ‘यशोदा। तुम्हें इसकी चिन्ता करनेकी कोई जरूरत नहीं है। यह बालक गौ, विप्र तथा धर्मका संरक्षक होगा।
संसारकी कोई विपत्ति इसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगी। इसका तो नाम लेकर लोग सम्पूर्ण विपत्तियोंसे मुक्ति पा जायेंगे। यह बालक दुष्ट संहारक तथा भक्त उद्धारक होगा।’
कुशलोपरान्त यशोदाने कहा- ‘भगवन्! आप जो भी प्रसाद पाना चाहें, बना लें। मैं आपके इच्छानुसार व्यवस्था कर दूंगी।’ विप्रदेवने खीर बनानेकी इच्छा प्रकट की और यशोदाजीने तत्काल उनके आदेशानुसार सब चीजें सुलभ करवा दीं।
ब्राह्मणने भगवान्का स्मरण करते हुए बड़े ही प्रेमसे भोजन बनाया। भोजन थालमें निकालकर भगवान्का ध्यान करते हुए वे कहने लगे-‘प्रभो! आप प्रसाद स्वीकार करें।
फिर आँखें खोलकर देखते हैं कि श्यामसुन्दर उनके सामने बैठकर बड़े ही प्रेमसे खीरका भोग लगा रहे हैं।
ब्राह्मणने क्रोधित होकर कहा-‘यशोदा! यशोदा! तुम कहाँ हो ? देखो! तुम्हारे लालाने सारा प्रसाद जूठा कर दिया।’ यशोदाने कहा- ‘विप्र देवता! यह बालक है।
आप इसके अपराधको क्षमा कर दें। मैं पुनः सब कुछ ला देती हूँ। आप दुबारा भोजन बना लें।’ दुबारा जब ब्राह्मण देवताने भोजन बनाकर भगवान को निवेदन किया तो कन्हैया फिर खीर खाने लगे।
ब्राह्मणदेव क्रोधित हो गये। उन्होंने कहा- ‘यशोदा! तुम्हारा लाला बड़ा नटखट है; यह बार-बार भोजन जूठा कर देता है।
अब मैं तुम्हारे यहाँ भोजन नहीं करूँगा। लो! सँभालो अपने लालाको, मैं तो चलता हूँ।
यशोदाने बहुत अनुनय-विनय करके विप्र देवताको मनाया और कन्हैयाको डाँटते हुए कहा- ‘कान्हा तू क्या चाहता है?
अतिथि बिना भोजन किये लौट जायें।’ कन्हैयाने कहा-‘माँ! इसमें मेरा कोई दोष नहीं है।’ ये बार-बार भोग लगाकर मुझे बुलाते हैं और जब मैं प्रसाद पाने लगता हूँ तो नाराज होते हैं।’
ब्राह्मणदेव भक्त तो थे ही, वे प्रभुको पहचान कर उनके चरणों में गिर पड़े और कहा-‘प्रभो! मुझे क्षमा करें। मैं आपको पहचान न सका।’ यशोदा अवाक् होकर देखती ही रह गयीं।
वात्सल्य-भरा शासन
एक दिन सब की सब गोपियाँ इकट्ठा होकर नन्दबाबाके घर आयीं और यशोदा मैयाको सुना-सुनाकर गोपालकी करतूतें कहने लगीं- ‘अरी यशोदा तेरा कान्हा बड़ा नटखट हो गया है।
गाय दुहनेका समय न होनेपर भी यह हमारे घर जाकर हमारे बछड़ोंको खोल देता है। हमारे डॉटनेपर यह नटखट उठाकर हँसने लगता है।
यह चोरीके बड़े-बड़े उपाय करके हमारा दूध-दही चुरा-चुराकर खा जाता है। केवल दूध-दही खाता तो कोई बात नहीं थी, यह हमारे मटकोंको
भी पटककर फोड़ देता है। यदि घरमें कोई वस्तु इसे नहीं मिलती है तो हमारे बच्चों को ही रुलाकर भाग जाता है।
जब हम दूध-दही छींकोंपर रख देती हैं, जहाँ इसके हाथ नहीं पहुँचते, तब यह बड़े-बड़े उपाय रचता है। कभी दो-चार पीढ़ोंको एक-दूसरेपर रख लेता है, कभी ऊखलपर चढ़ जाता है।
इतनेपर भी इसका काम नहीं चलता है तो बर्तनोंमें छेद कर देता है और सारा दूध-दही गिराकर बरबाद कर देता है।
ऐसा करके भी ठिठाई करता है और हमें ही चोर बताता है तथा खुद घरका मालिक बन जाता है। मन-ही-मन प्रसन्न होते हुए तथा ऊपरसे रोष प्रकट करते हुए गोपियोंने गोपालकी खूब शिकायत की।””
माँ यशोदाने कहा- ‘कान्हा! तुम्हारी रोज-रोजकी शिकायतोंसे तो मैं तंग आ गयी हूँ। इन गोपियोंको देख! ऐसे तेवर दिखा रही थीं जैसे गोकुलकी सारी गायें इन्हींकी हो ।
गोपाल! हमारे यहाँ दूध-दहीकी क्या कमी है, जो तू दूसरोंके यहाँ जाता है। आजसे तुम इनके दरवाजेपर कभी मत जाना।
गोपालने कहा- ‘मैया! ये सब खुद मुझे बुलाती हैं और ऊपरसे शिकायत भी करती हैं। आजसे मैं यहीं खेलूंगा और इनके यहाँ कभी नहीं जाऊँगा।’
मैयाने गोपालको भलीभाँति सजाकर उनके हाथमें मुरली थमा दी और उन्हें माखन- मिसरी खानेके लिये दिया।
उसके बाद माँने कहा- ‘कान्हा देखो! कहीं दूर मत जाना, यहीं अपने घरके पास खेलना। आजकल बरसात का मौसम है। इसलिये साँप बिच्छू अधिक हो गये हैं। तुम उनके निकट मत जाना उनसे दूर ही रहना।
माँका आदेश मानकर गोपाल आँगनके बाहर आ गये। वहाँ उन्होंने देखा कि सामने एक काला नाग अपना फण निकालकर उनके सौन्दर्यका रसपान कर रहा है।
गोपाल उसके साथ नाना प्रकारके खेल करने लगे। नाग भी उनकी मधुर बाल लीलाका आनन्द लेने लगा।
थोड़ी देर बाद कन्हैयाको देखनेके लिये यशोदा बाहर आयीं और गोपालको नागके साथ खेल करते देखकर डर गयीं। जल्दीसे उन्होंने कन्हैयाको नागसे दूर खींचा और कान पकड़कर उन्हें धमकाने लगीं। उन्होंने कहा- ‘कान्हा।
तुमने मेरा कहना नहीं माना और बाहर आकर नागसे खेलना शुरू कर दिया। आज मैं तुम्हें दण्ड दिये बिना नहीं छोड़ेंगी।
कान्हा भयभीत नजरोंसे माँकी तरफ देखने लगे और क्षमा माँगने लगे। काल भी जिनसे भयभीत रहता है ऐसे त्रिलोकीनाथ, आज माँके सामने भयभीत खड़े हैं।
बन्दरों को माखन लुटाना
एक बार मोहन दूध पीनेके लिये माँ यशोदाकी गोदमें चढ़ गये। वात्सल्य स्नेहकी अधिकतासे माँके स्तनोंसे अपने- आप दूध झरने लगा।
वे मोहनको दूध पिलाते समय उनका मन्द- मन्द मुस्कानयुक्त मुख निहारने लगीं। इतनेमें अंगीठीपर रखे। हुए दूधमें उफान आया, उसे देखकर यशोदाजी मोहनको अतृप्त छोड़कर जल्दीसे दूध उतारनेके लिए चली गई।
इससे मोहनको क्रोध आ या उनके ल हाठ फड़कने लगे। उन्होंने पास पड़े हुए लोढ़ेसे दहीका मटका फोड़ डाला तथा वहीँपर उलटा पड़े हुए एक ऊखलपर चढ़ गये और छींकेपर रखा हुआ माखन बन्दरोंको बाँटने लगे।
उन्हें यह डर भी लग रहा था कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाय, इसलिये चौकन्ने होकर चारों तरफ देखते भी जाते थे।
यशोदाजीने औटते हुए दूधको उतारकर एक तरफ रख दिया, फिर दूसरे घरमें आयीं। वहाँ देखती हैं कि दहीका मटका टुकड़े-टुकड़े हो गया है।
ये समझ गयीं कि यह सब मेरे लालाकी करतूत हैं। इधर-उधर ढूँढनेपर यशोदा मैयाने देखा कि श्रीकृष्ण ऊखलपर खड़े हैं और मटकोंसे माखन निकाल-निकालकर बन्दरोंको खिला रहे हैं।
बन्दर भी बड़े ही प्रेमसे कन्हैयाके हाथसे माखन लेकर खा रहे हैं, मानो जन्म-जन्मान्तरके भूखे हों।
भूखे क्यों नहीं रहते, उन्हें परमात्मा के हाथका प्रसाद जो मिल रहा था। इसके लिये कई जन्मोंतक उन्होंने तपस्या की थी, तब जाकर यह दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
ऊखलपर निश्चिन्त खड़े होकर श्रीकृष्ण माखन बाँट रहे थे, मानो रामावतारमें जो वात्सल्यका वितरण बाकी रह गया था, उसे पूरा कर रहे हों। यह देखकर यशोदाजी पैर दबाये हुए पीछेसे धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँची।
जब श्रीकृष्णाने अपनी माँको हाथमें छड़ी लिये हुए देखा तो ओखलीपरसे कूदकर भागे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी करोड़ों जन्मोंकी तपस्याके बाद भी जिन भगवान् की लीलामें प्रवेश नहीं पाते हैं, उन्हीं भगवान्को पकड़ने के लिये यशोदाजी दौड़ीं।
उनके हाथमें छड़ीथी तथा उनकी आँखें क्रोधसे लाल थीं। श्रीकृष्ण अपनी भयभीत आँखोंसे माँकी तरफ देख रहे थे। उन्होंने सोचा कि जब माँ ही पीटनेके लिये तैयार है तो मुझे कौन बचायेगा? उनक नेत्र भयसे व्याकुल हो रहे थे।
माँने डाँटते हुए कहा- ‘अरे वानरबन्धो! अब तुझे माखन कहाँसे मिलेगा ?’
श्रीकृष्णने दूरसे ही कहा- ‘मैया! मुझे मत मार । ‘
माताने कहा – ‘लाला! यदि पिटनेका इतना ही भय था तो मटका ही क्यों फोड़ा ?’ श्रीकृष्णने कहा- ‘अरी मैया! अब मैं ऐसा कभी नहीं करूँगा। तू अपने हाथकी छड़ी नीचे डाल दे।’
माँने कहा- ‘आज तो मैं तुझे ऐसा दण्ड दूंगी कि तू न तो ग्वालबालोंके साथ खेल सकेगा और न माखन चोरीका ऊधम ही मचा सकेगा।
भला, यदि कोई असुर अस्त्र-शस्त्र लेकर आता तो भगवान् सुदर्शनचक्रका स्मरण करते, लेकिन मैयाकी इस छड़ीके लिये उनके पास कोई उपाय नहीं था। वे माँके वात्सल्य-स्नेहसे विवश जो थे
ऊखल-बन्धन
ऊखल-बन्धन
जब माँ यशोदा अपने नटखट गोपालको रस्सीमें बाँधने लगीं,
आखिर गोपाल पकड़े गये। यशोदाने कहा कि तेरी शरारतोंसे मैं तंग आ चुकी हूँ, आज तो मैं तुझे ऐसा दण्ड दूंगी। कि तू जिंदगीभर याद रखेगा।
इसके बाद उन्होंने सोचा कि अबकी बार इसे रस्सीसे बाँध देना चाहिये। खदेड़नेपर यह कहाँ-कहाँ वन-वन भटकता फिरेगा, भूखा-प्यासा रहेगा। इसलिये थोड़ी देरके लिये इसे रस्सीसे बाँध दूँ। दूध-माखन तैयार होनेपर फिर इसे मना लूंगी।
जब माँ यशोदा अपने नटखट गोपालको रस्सीमें बाँधने लगा, तब वह दो अंगुल छोटी पड़ गयी। इसके बाद उन्होंने दूसरी रस्सी जोड़ी और वह भी छोटी पड़ गयी।
इस प्रकार वे रस्सी पर रस्सी जोड़ती गयीं, किंतु वे सब मिलकर भी दो-दो अंगुल छोटी पड़ती गयीं।
यशोदाने घरकी सारी रस्सियाँ जोड़ डालीं, फिर भी वे मोहनको न बाँध सकीं। वे मन-ही-मन सोचने लगीं- ‘मुट्ठीभरकी तो इसकी कमर है, फिर भी सैकड़ों हाथ लम्बी रस्सीसे यह नहीं बंधता है।
हर बार दो अंगुलकी ही कमी रहती 4/5 न तीनकी, न चारकी। यह कैसा अलौकिक चमत्कार है।’ यशोदाजी आश्चर्यचकित रही गयीं।
गोपालने देखा कि मेरी माँका शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया है, वे थक गयी हैं; तब कृपा करके स्वयं बंध गये।
भगवान् श्रीकृष्ण इतने कोमलहृदय हैं कि अपने भक्तके प्रेमको पुष्ट करनेवाला थोड़ा भी परिश्रम सहन नहीं कर सकते और भक्तको परिश्रमसे मुक्त करनेके लिये स्वयं ही बन्धन स्वीकार कर लेते हैं।
भक्तका श्रम और कृपाकी कमी यही दो अंगुलकी दूरी है। जब भक्त यह सोचता है कि मैं अपने परिश्रमसे भगवान्को बाँध लूंगा, तब यह भगवान्से एक अंगुल दूर हो जाता है और भगवान् अपनी कृपाको समेटकर उससे एक अंगुल और दूर हो जाते हैं।
जब माँने देखा कि अब तो गोपाल बँध गये, कहीं नहीं जा सकते, फिर घरके काम- धन्धोंमें लग गयीं।
ऊखलमें बँधे हुए गोपालने उन दोनों अर्जुन वृक्षोंको मुक्ति देनेकी सोची, जो पहले यक्षराज कुबेरके पुत्र थे।
इनके नाम थे नलकूबर और मणिग्रीव। इनके पास धन, ऐश्वर्य और सौन्दर्यकी कोई कमी नहीं थी।
इनका घमण्ड देखकर ही देवर्षि नारदने इन्हें शाप दिया था और ये वृक्ष हो गये थे। भगवान् श्रीकृष्णने सोचा- ‘ये दोनों मेरे प्रिय भक्त कुबेरके पुत्र हैं।
इन्हें वृक्षयोनिसे मुक्त करना चाहिये। इसलिये श्रीकृष्णने धीरे-धीरे ऊखल खिसकाते हुए दोनों वृक्षोंके बीच अड़ा दिया।’
दामोदर भगवान् गोपालकी कमरमें रस्सी कसी हुई थी। उन्होंने ऊखलको ज्यों ही तनिक जोरसे खींचा; त्यों ही वृक्षोंकी जड़ें हिल गयीं।
दोनों वृक्ष बड़े जोरसे तड़तड़ाते हुए पृथ्वीपर गिर पड़े। उन दोनोंसे अग्रिके समान दो तेजस्वी पुरुष निकले। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णके चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा- ‘तुमलोग श्रीमदसे अन्धे हो रहे थे। देवर्षि नारदने शाप देकर भी तुम्हारा कल्याण ही किया था। इसलिये नलकूबर और मणिशीब! तुमलोग अब अपने घर जाओ। तुम्हें माया-मोहसे छुड़ानेवाली मेरी भक्ति प्राप्त होगी।
फल बेचनेवाली पर कृपा
भगवान् श्रीकृष्णकी लीला विचित्र है। उनकी कृपा कब और किसपर तथा कहाँ हो जाय कहना कठिन है। गोपाल जिसके ऊपर कृपालु हो जायें, फिर उसे संसारके किसी व्यक्तिकी कृपाकी आवश्यकता नहीं रहती।
गोकुलमें एक फल बेचनेवाली रहती थी। वह इतनी गरीब थी कि दिन-रात परिश्रम करनेके बाद भी मुश्किल से दो रोटीकी व्यवस्था कर पाती। वह श्रीकृष्णकी अनन्य भक्त थी।
संतोषी इतनी थी कि वह अपने भगवान्से भी अपना दुःख नहीं कहती थी। दिनभर श्रम करनेपर जो कुछ भी रूखा सूखा उसे मिल जाता, भगवान्का भोग लगाकर उसीसे अपने परिवारका भरण-पोषण करती थी।
एक दिन वह अपने सिरपर फलोंकी टोकरी लेकर दिनभर गोकुलकी गलियोंमें घूमती रही। किन्तु पूरे दिनमें एक भी ग्राहक उसे फल खरीदनेवाला नहीं मिला।
थक-हारकर वह नन्दभवनके सामने निराश होकर बैठ गयी। वह सोच रही थी, आज पता नहीं किस अभागेका मुख देखकर उठी थी, पूरे दिन श्रम करनेके बाद एक भी ग्राहक नहीं मिला।
उसे क्या पता था कि आज उसकी जन्म-जन्मान्तरकी तपस्या पूरी होनेवाली है। आज साक्षात् जगदीश ही उसके ग्राहक बनेंगे। फिर उसे जन्मभर किसी अन्य ग्राहकको ढूँढनेकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
भगवान् श्रीकृष्ण भक्तके मनकी इच्छा पहले ही समझ जाते हैं। यह फल- विक्रयिणीके धैर्यकी अन्तिम परीक्षा चल रही थी। कोई भक्त यदि भगवान्की तरफ एक कदम बढ़ता है तो वे दो कदम उसकी तरफ बढ़कर उसके दुःख, दरिद्रताको हर लेते हैं।
अन्तमें नन्दभवनके द्वारपर फल-विक्रयिणीने अन्तिम गुहार लगायी – फल ले लो, कोई घरमें है – मीठे-ताजे फल ले लो! उस समय माँ यशोदा भी घरमें नहीं थीं।
वे आवश्यक कार्यवश कहीं बाहर गयी हुई थीं। गोपाल घरमें अकेले थे और भक्तपर कृपा करनेका सुन्दर अवसर आ गया था।
श्रीकृष्णने इधर-उधर देखा, कोनेकी डलियामें धान रखा हुआ था। उन्होंने अपने नन्हे नन्हे हाथोंकी अँजुली बनाकर उसमें धान भर लिया और फल बेचनेवालीकी ओर दौड़ पड़े।
उनकी अंगुलियोंके बीचसे धान गिरते जा रहे थे। उनकी कृपापूर्ण दृष्टि फल बेचनेवालीपर लगी हुई थी।
भक्त और भगवान्के मिलनकी अद्भुत घड़ी थी। उन्हें ध्यान ही नहीं था कि उनके हाथोंसे धीरे- धीरे सारा धान गिर गया।
जब गोपाल फल बेचनेवालीके पास पहुंचे तो उनकी अंजुलीमें केवल दो धान बचे हुए थे। उन्होंने फल-विक्रयिणीके पास पहुँचकर कहा कि धान ले लो और बदलेमें फल दे दो।
फल बेचनेवाली भगवान् गोपालको मुग्ध होकर देखती ही रह गयी। आज उसकी जन्म-जन्मान्तरकी साथ जो पूरी हो गयी। उसने श्रीकृष्णसे बड़े ही प्रेमसे धान लेकर फल दे दिया। घर आकर देखती है कि उसकी टोकरी रत्नोंसे भरी हुई है।
गोपाल की गो-पूजा
भगवान् के अवतारके अनेक उद्देश्योंमें गायोंकी पूजा एवं संरक्षण भी एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है, क्योंकि गायोंके अन्दर सभी देवताओंका निवास है। गाय सर्वदेवमयी है।
गायकी पूजासे सभी देवताओंकी पूजा हो जाती है तथा उनका आशीर्वाद भी प्राप्त हो जाता है। इस संसारमें गायका माँ जैसा ही स्थान है, क्योंकि वह माँकी तरह ही वात्सल्यकी साकार मूर्ति है।
इसीलिये गोपालने अपना बचपन गो-पूजासे आरम्भ कर अपना गोपाल नाम सार्थक किया
गोपालको गायें अत्यन्त प्रिय थीं। वे उनकी खूब सेवा करते थे। एक दिन भगवान् श्रीकृष्णने अपने सखाओंसे कहा—’मित्रो! संसारमें गाय जैसा उपकारी और कोई नहीं है।
यह हमें अमृतके समान दूध, दही, घी देकर माँकी तरह हमारा पोषण करती है, अतः यह माँकी तरह वन्दनीया तथा पूजनीया है।
आज गोपाष्टमी है। हमलोग गोमाताका खूब अच्छी तरह फूलों तथा रत्नोंसे श्रृंगार करेंगे। उन्हें नाना प्रकारके पकवान अर्पित करेंगे तथा सभी उपचारोंसे उनकी भलीभाँति पूजा करेंगे।
संसारमें गो-सेवा और गो-पूजासे बड़ा और कोई पुण्य नहीं है तथा उनके आशीर्वादसे बड़ा देव मुनि किसीका आशीर्वाद नहीं है।
गायोंकी पूजा ईश्वर-पूजा है, इनकी सेवा और पूजा करनेवालेको संसारकी कोई वस्तु दुर्लभ नहीं है। इसलिये आज हम सब इन वात्सल्यमयी गो-माताओंकी सेवा करके इनके अनन्त उपकारोंके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करेंगे।’
गोपालके आदेशकी देर थी कि सभी गोपबालकोंने गेंदा, मालती, गुड़हल, कमल आदि अनेक प्रकारके पुष्पोंका ढेर लगा दिया।
सब लोगोंने मिलकर गायोंका विविध प्रकारसे श्रृंगार किया, उन्हें अनेक प्रकारके हार तथा फूल-मालाएँ पहनायीं तथा उनके गलेमें मधुर ध्वनि करनेवाली घंटियाँ बाँधीं।
भगवान् श्यामसुन्दरने स्वयं गायोंको सजाया तथा नाना प्रकारके पकवान खिलाये। सभी गायोंने शान्त भावसे खड़ी होकर उनकी पूजा ग्रहण कीं तथा मन-ही-मन अपने मुक आशीर्वादोंसे ग्वालबालोंकी झोलियाँ भर दीं।
अन्तमें सभी ग्वालबालोंके साथ गोपालने गायोंसे बचा हुआ प्रसाद बड़े ही प्रेमसे ग्रहण किया।
श्याम नाना खरिक के द्वार करावत गायनको सिंगार | भाँति सींग मण्डित किये ग्रीवा मेले हार ॥ मोतिनकी पटियाँ पीठनको आछे ओछार । घंटा कण्ठ मोतिनकी किंकिणि नूपुर चरण विराजत बाजत चलत सुढार॥ यह विध सब व्रज गाय सिंगारी शोभा बढ़ी अपार । परमानन्द प्रभु धेनु खेलावत पहिरावत सब ग्वार ॥
वत्सासुर का उद्धार
नन्दबाबा गोकुलमें असुरोंके बढ़ते हुए उत्पातको देखकर समस्त गोप-गोपिकाओं और ग्वालबालोके साथ वृन्दावनमें आ गये। वृन्दावनका हरा-भरा वन, गोवर्धन पर्वत और यमुना नदीके सुन्दर-सुन्दर तटोंको देखकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके आनन्दका पारावार न रहा।
उनके मनमें विशेष प्रीतिका उदय हुआ। भगवान् श्रीकृष्ण अपनी मधुर लीलाओंसे गोकुलकी तरह वृन्दावनमें भी व्रजवासियोंको आनन्दित करते रहे। थोड़े ही दिनोंमें वे बछड़ोंको भी चराने लगे। ये ग्वाल-
बालोंके साथ गोशाला के आस-पास बछड़ोंको बराते तथा नाना प्रकारके खेल करते थे। कहीं वे बांसुरीकी मधुर तान छेड़ते तो कहीं बन्दर कोयल आदि बनकर उनके स्वरकी नकल करते थे। इस प्रकार वृन्दावन देवताओंके नन्दनवनसे भी अधिक मनोरम हो गया।
श्रीकृष्ण- बलरामकी मनोहर लीलाओंसे वृन्दावनका कण-कण धन्य हो उठा। ग्वाल- बालोंके सौभाग्यका क्या कहना, उन्हें तो भगवान् श्रीकृष्णने अपना सखा बननेका दुर्लभ सौभाग्य दिया था।
भगवान् श्रीकृष्णकी वंशीकी मधुर टेरपर बनके पशु-पक्षी उनके नजदीक आ जाते तथा बछड़े उनका पैर चाटते थे।
एक दिन श्याम और बलराम अपने प्रेमी ग्वालबालोंके साथ यमुनातटपर बछड़े चरा रहे थे। उसी समय उन्हें मारनेके लिये एक महाबलशाली दैत्य आया।
कंसने उसे श्रीकृष्णको समाप्त करनेका आदेश दिया था। उसने एक सुन्दर बछड़ेका रूप बनाया और बछड़ोंके झुण्डमें घुस गया।
वह देखनेमें इतना सुन्दर था कि जो उसे देखता, वही मुग्ध हो जाता था। उसका नाम वत्सासुर था।
जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि वत्सासुर सुन्दर बछड़ेका रूप बनाकर बछड़ोंके बीच घुस रहा है तो वे बलरामजीको संकेतसे समझाते हुए धीरे-धीरे उसके पास पहुच गये।
वत्सासुरने सोचा- ‘श्रीकृष्ण मुझे पहचान नहीं रहे हैं और सुन्दर बछड़ा समझकर स्वयं मृत्युके मुखमें चले आ रहे हैं। आज मैं गोकुलमें मारे गये। राक्षसोंका बदला इस उदण्ड बालकको मृत्युदण्ड देकर लूँगा।’
भगवान् श्रीकृष्ण पीछेसे जैसे ही वत्सासुरके करीब पहुँचे, उसने अपने पिछले दोनों पैरोंको उठाकर श्रीकृष्णवर प्राणघातक हमला करना चाहा।
गोपालने देखते-ही-देखते उसके दोनों परोंको फुर्तीसे पकड़ लिया और उसे उठाकर आकाशमें जोरसे घुमाते हुए सामने कैथके पेड़पर पटक दिया।
उसका लम्बा-चौड़ा शरीर कैथके वृक्षोंको गिराते हुए धरतीपर गिर पड़ा और उसके प्राण पखेरू उड़ गये। मरते समय उसने अपने विशालकाय दैत्य शरीरको प्रकट कर दिया। वत्सासुरका वध देखकर ग्वालबालोंके आश्चर्यकी सीमा न रही। वे प्यारे कन्हैयाकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।
देवताओंने भी बड़े ही आनन्दसे फूलोंकी वर्षा की। वत्सासुरके वधकी घटना सुनकर सब गोप-गोपी आश्चर्यचकित रह गये। नन्दबाबा और यशोदा मैयाने श्रीकृष्णकी बार- बार बलैया ली और इस विपत्तिसे उन्हें सुरक्षित पाकर उनसे सैकड़ों गोदान कराया।