Banke Bihari Bhajan
- sakhi ri banke bihari se hamari lad gayi akhiaan
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वृन्दावन में श्रीबाँके बिहारी जी
श्रीमद्भागवत में ब्रज सुन्दरियाँ कहती हैं, ‘जयति तेऽधिक जन्मना ब्रजः ।’ ‘जय’ शब्द का अर्थ ही होता है-सर्वोत्कर्ष, फिर ‘अधिकम्’ शब्द का प्रयोग वैकुण्ठ से भी बढ़कर श्रीवृन्दावन का उत्कर्ष बताने के लिए हुआ है।
इस घोर कलिकाल में भी अध्यात्म- रस का जैसा आनन्द, जैसा आकर्षण वृन्दावन में है, वैसा अन्यत्र नहीं-‘जो रस बरस रह्यौ वृन्दावन, सो रस तीन लोक में नाहिं ।’ तीन लोक में ही क्यों वैकुण्ठ में भी नहीं है ।
कहते हैं, श्रीवृन्दावन में साढ़े पाँच हजार मन्दिर हैं, यहाँ घर- घर में मन्दिर हैं । मीराबाई कहती है-‘म्हाने लागै विन्दावन नीको । घर-घर तुलसी ठाकुर-सेवा भोजन दूध दही कौ ।’
यहाँ बारहों महीने उत्सवों की धूम रहती । श्रावण में झूले, भादों में जन्माष्टमी और राधाष्टमी; आश्चिन में साँझी; कार्तिक में दीपावली, अन्नकूट, गोवर्धन पूजा, यमद्वितीया, गोपाष्टमी, और अक्षय नवमी परयुगल-परिक्रमा, अगहन में विहार-पंचमी, पौष में श्रीराधावल्लभजी की खिचड़ी, माघ में वसन्त पञ्चमी; फाल्गुन में होली; चैत्र में रथयात्रा, वैशाख में चरण-दर्शन; ज्येष्ठ और आषाढ़ में फूल-बँगलों का आनन्द; बीच-बीच में आचार्य-जयन्तियाँ और पाटोत्सव, नित्य रास-विलास ।
इस प्रकार आनन्द ही आनन्द है यहाँ; किन्तु इस सबमें भी श्री बिहारीजी महाराज का आनन्द सर्वातिशायी है ।
इसी कारण दर्शनार्थियों की सबसे ज्यादा भीड़ श्रीबिहारी जी महाराज के मन्दिर में होती है । इस आकर्षण के दो आधार है, एक तो यह कि श्रीबाँकेबिहारी जी महाराज की इस रसमय मूर्ति में कुछ ऐसी अचिन्त्य-अवर्णनीय सौन्दर्यमाधुर्य की विलक्षणता है, जो एक ओर परम विरक्त रसिक सन्त महानुभावों की मनोभूमि को रससिक्त कर आनन्द-शस्यों से श्यामल बना देती है और दूसरी ओर सांसारिक कष्टों से त्रस्त सामान्य मानव की कोटि-कोटि कामनाओं-लालसाओं को बड़ी दुलार के साथ पूरा करती रहती है।
दूसरा यह कि यहाँ जैसे उत्सव महोत्सव होते हैं, जैसे उत्तम भोग-राग और श्रृंगार की परम्परा और व्यवस्था है, वैसी अन्यत्र नहीं ।
बड़े-बड़े त्यागी-वैरागी, यती-सन्यासी, जमींदार, राजे-महाराजे,सन्त-महन्त, मठाधीश-मण्डलेश्वर, शैव-शाक्त और वैष्णव अपने-अपने आराध्य का दर्शन इस सच्चिदानन्दमयी छवि में करते हैं और अपने को धन्य मानते हैं ।
यहाँ आकर सभी साधकों की परम्पराओं,मान्यताओं सम्प्रदायों और साधनाओं के आग्रह-परिवेश मिट जाते हैं और उनका अन्तराल आनन्द-रस से सराबोर हो जाता है।
कोई इन्हें विष्णु मानकर पूजता है, कोई यशोदानन्दन मानकर लाड़ लड़ाता है,
कोई इन्हें सर्वेश्वर मानकर अपने जीवन की डोर इनके हाथ में सौंपकर निश्चिन्त हो जाता है, किन्तु ये वास्तव में इन सब अभिप्रायों से परे, सब अवतारों के अवतारी और परम विलक्षण हैं ।
इनको किसी भी भाव से, किसी भी सम्बन्ध से लाड़ लड़ाना, दुलारना जितना आसान है, इनके वास्तविक स्वरूप को पहचानना उतना ही कठिन है।
ये प्रेम के महासागर हैं, इनके रूप और रस की गहराइयों का अनुभव केवल श्रीस्वामी हरिदासजी महाराज की कृपा से ही साध्य है।
पुराणों की चर्चाएँ, कर्मकाण्ड की अर्चाएँ और वेद की स्तुतियाँ उस ‘गहराई’ का स्पर्श तक नहीं कर पातीं ।
जन-जन के मन में तरंगायित होने वाले प्राकृत प्रेम का रंग और पञ्चभौतिक विश्व के प्रसार में उभरने वाले रूप, उस सतत एक रस-विलास-परायण रूप और प्रेम की अद्वय जोड़ी की आभा के प्रतिबिम्ब-मात्र हैं ।
इसीलिये तो श्रीबाँकेबिहारी जी महाराज की अद्भुत रूप-माधुरी की एक झलक जो भीतर की आँखों से निहार लेता है, वह देह रहते हुए भी विदेह हो जाता है – सारे विश्व-विलास उसे फीके लगने लगते हैं। वह फिर संसार के मतलब का नहीं रहता ।
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