आमलकी एकादशी-एकादशी माहात्म्य
भगवान् श्री कृष्ण बोले- हे धर्मराज! अब मैं तुम्हें फाल्गुन शुक्ल पक्ष एकादशी व्रत की विधि और माहात्म्य बताता हूँ, ध्यान से सुनो।
त्रेतायुग में एक दिन महान् राजा मान्धाता ने वशिष्ठजी से पूछा कि हे द्विजश्रेष्ठ!
यदि आपकी मुझ पर कृपादृष्टि हो तो किसी ऐसे व्रत को बताइये जिसको करने से मेरा कल्याण हो सके।
महर्षि वशिष्ठ बोले- “हे राजन्! मैं तुम्हें सब व्रतों से उत्तम और अन्त में मोक्ष देने वाले आमलकी एकादशी के व्रत का वर्णन करता हूँ।
यह एकादशी फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में होती है। इस पवित्र व्रत के करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
इसका पुण्य एक हजार गौदान के फल के बराबर होता है तथा इस व्रत को करने वाले अन्त समय विष्णु लोक को जाते हैं।
अब मैं आपसे एक पौराणिक कथा कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनिए” -कथा- एक वैदिश नाम के नगर में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण आनन्द सहित रहते थे।
उस नगर में सदैव वेद ध्वनि गूँजा करती थी तथा वहाँ दुराचारी तथा नास्तिक कोई नहीं था ।
उस नगर में चैत्ररथ नाम का चन्द्रवंशी राजा राज्य करता था। वह अत्यन्त विद्वान तथा धार्मिक प्रवृत्ति का था ।
वहाँ कोई भी व्यक्ति दरिद्र व लोभी नहीं था। सभी नगरवासी विष्णु भक्त थे और एकादशी का व्रत किया करते थे ।
एक समय फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की आमल नामक एकादशी आई। उस दिन राजा, प्रजा तथा बाल-वृद्ध सबने हर्षपूर्वक उस एकादशी का व्रत किया।
राजा अपनी प्रजा के साथ मन्दिर में जाकर पूर्णकुम्भ स्थापित करके धूप, दीप, नैवेद्य, पंचरत्न आदि से धात्री का पूजन करने लगे और इस प्रकार स्तुति करने हे धात्री ! तुम ब्रह्मस्वरूप हो।
तुम ब्रह्माजी द्वारा उत्पन्न हो और समस्त पापों को नष्ट करने वाले हो। तुमको नमस्कार है।
अब तुम अर्घ्य स्वीकार करो। तुम श्रीरामचंद्रजी द्वारा सम्मानित हो, मैं आपकी प्रार्थना करता हूँ।
अतः आप मेरे समस्त पापों को हरण करें। उस मन्दिर में सबने रात्रि को जागरण किया।
रात के समय वहाँ एक बहेलिया आया। जो अत्यन्त पापी और दुराचारी था।
भूख और प्यास से अत्यन्त व्याकुल वह बहेलिया इस जागरण को देखने के लिए मन्दिर के एक कोने में बैठ गया और विष्णु भगवान् तथा एकादशी माहात्म्य की कथा सुनने लगा।
इस प्रकार अन्य मनुष्यों की भाँति उसने भी सारी रात जागकर बिता दी। प्रातः काल होते ही सब लोग अपने-अपने घर चले गए तो बहेलिया भी अपने घर चला गया।
कुछ समय बीतने के पश्चात् उस बहेलिए की मृत्यु हो गई।
मगर उस आमलकी एकादशी के व्रत तथा जागरण से उसने राजा विदूरथ के घर जन्म लिया और उसका नाम वसुरथ रखा गया।
युवा होने पर वह चतुरंगिणी सेना के सहित धन-धान्य से युक्त होकर दस हजार ग्रामों का पालन करने लगा।
वह तेज में सूर्य के, काँति में चन्द्रमा के, वीरता में भगवान् विष्णु के और क्षमा में पृथ्वी के समान था । वह अत्यन्त धार्मिक, सत्यवादी, कर्मवीर एवं विष्णु भक्त था।
एक दिन वह शिकार खेलने के लिए गया । दैवयोग से वह मार्ग भूल गया और उसी वन में एक वृक्ष के नीचे सो गया।
थोड़ी देर बाद पहाड़ी म्लेच्छ वहाँ पर आ गए और राजा को अकेला देख मारो मारो शब्द कहते हुए राजा पर टूट पड़े।
वह म्लेच्छ कहने लगे- “इस दुष्ट राजा ने हमारे माता-पिता, पुत्र, पौत्र आदि अनेक सम्बन्धिायें को मारा है।
अतः इसको अवश्य मारना चाहिए।” ऐसा कहकर वे म्लेच्छ उस राजा पर अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से प्रहार करने लगे।
वे सब अस्त्र-शस्त्र राजा के शरीर पर गिरते ही नष्ट हो जाते और उनका वार पुष्प के समान प्रतीत होता ।
अब उन म्लेच्छों के अस्त्र-शस्त्र उल्टे उन्हीं पर प्रहार करने लगे, जिससे वे मूर्छित होकर गिरने लगे। उसी समय राजा के शरीर से एक दिव्य स्त्री उत्पन्न हुई ।
वह स्त्री अत्यन्त सुन्दर होते हुए भी उसकी भृकुटी टेढ़ी थी। उसकी आँखों से लाल-लाल अग्नि निकल रही थी, जिससे वह स्वयं महाकाली के समान प्रतीत होती थी ।
वह स्त्री म्लेच्छों को मारने दौड़ी और थोड़ी ही देर में उसने सब म्लेच्छों को काल के गाल में पहुँचा दिया।
जब राजा सोकर उठा तो म्लेच्छों को मरा हुआ देखकर सोचने लगा- इन शत्रुओं को किसने मारा है ?
इस वन में मेरा कौन हितैषी रहता है? राजा ऐसा विचार कर ही रहा था कि आकाशवाणी हुई- “हे राजा!
इस संसार में विष्णु भगवान् के अतिरिक्त कौन तेरी रक्षा कर सकता है।
इस आकाशवाणी को सुनकर राजा अपने राज्य में आ गया और सुखपूर्वक राज्य करने लगा।” महर्षि वशिष्ठ बोले- “हे राजन् !
यह आमलकी एकादशी के व्रत का प्रभाव था । जो मनुष्य इस आमलकी एकादशी का व्रत करते हैं।
वे प्रत्येक कार्य में सफल होते हैं और अन्त में विष्णु लोक को जाते हैं।”
फलाहार – इसमें आँवलों, का सागार लेना चाहिए। आंवले से बने पदार्थ एवं दूध, आलू, फल आदि ले सकते हैं।