गणेश अमृतवाणी लिरिक्स | Ganesh amritvani

गणेश अमृतवाणी लिरिक्स

गणेश अमृतवाणी लिरिक्स

विघ्न विनाशक गणराय भय से ‘मुक्त करे,

इसकी दया से भक्तन की, भाव से नाव तारे,

पार्वती ललना का मन से, भजन तू करता जा,

करुणा की इस मूरत से, मन वांछित फल तू पा,

जिसके घर में गणराय के नाम का दीप जले,

उस घर के हर जीव की, हर एक बाधा टले,

जिन पे करुणा स्वयं करे गौरी सुत महाराज,

पलक झपकते ही उनके सिद्ध हो जाते काज,

जय जय श्री गणेश जय गणपति गणेश।

मिट्टी के हैं हम बने गणपति प्राण स्वरूप,

वो है रचैया हम रचना, वो सूरज हम धूप,

सदा समर्पण भाव से, जाए गणपति पास,

जीवन गठरी का तुमको, कष्ट ना देगा भार,

नर नारायण ऋषि मुनि जिसका मन ना करे

दीन हीन के वो स्वामी घड़ी में पाप हरे,

गुण गौरव और ज्ञान की गंगा गणपति प्रीत,

इसके साधक को जग में काल साके ना जीत,

जय जय श्री गणेश जय गणपति गणेश।

आदी सिद्धिया ही जिसकी सेवा करे दिन रेन,

उसके चरण सरोज से, जोड़े रखियो नैन,

मन मंदिर में तू बसा, अम्बा लाल गणेश

कष्ट नष्ट हो जाएंगे मिटेंगे सकल क्लेश,

त्रिभुवन के इस नाथ का, चित्त से चिंतन कर,

जनम जन्म की पीड़ा तेरी, पल में जायेगी हर,

सागर है प्रभु प्रेम का, प्यासा बन के देख,

अमृत मे हो जाएंगे बुद्धि और विवेक,

जय जय श्री गणेश जय गणपति गणेशा

घट घट की जानता, शिव नंदन भगवान,

चरण शरण में जा तो सही वो तो है दयानिधान,

दीन का शोकविषाद को हरता गणपति जाप,

एकदन्त के अर्चन से डरते दुख संताप,

क्षण भंगुर तू बुलबुला ज्यो सपनों की बात,

ऐसे तू झड़ जाएगा जैसा वृक्ष से पात।

न्याय शीलता दया धर्म गजानन से सीख,

शंकर सुत से मांगले सत् गुणो की भीख ।

गणेश जी की आराधना

किसी भी पूजा-अर्चना या शुभ कार्य को सम्पन्न कराने से पूर्व गणेश जी की आराधना की जाती है। गणेश सर्व प्रथम पूजनीय देवता है। इसकी अमृतवाणी के पठन-पाठन और ध्यान से ही सब कार्य सफल और सिद्ध हो जाते हैं।

गणेश जी के अवतार

महोत्कट विनायक

इन्हें कश्यप व अदिति ने जन्म दिया था।गणपति देव जी इस अवतार में ने देवतान्तक व नरान्तक नामक राक्षसों का संहार करके धर्म की स्थापना की।

गुणेश

त्रेता युग में गणपति ने उमा के गर्भ से भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन जन्म लिया व उन्हें ‘गुणेश’ नाम दिया गया। इस अवतार में गणपति ने सिंधु नामक दैत्य का विनाश करके , ब्रह्मदेव की कन्याएं, सिद्धि व रिद्धि से विवाह किया।

गणेश

द्वापर युग में गणपति जी ने पार्वती के गर्भ से जन्म लिया व गणेश कहलाए, परंतु गणेश जन्म से ही कुरूप थे, इसलिए पार्वती ने उन्हें जंगल में छोड़ दिया, जहाँ पर पराशर मुनि ने उनका पालन-पोषण किया।

गणेश

ने सिंदुरासुर का वध कर उसके द्वारा कैद किए अनेक राजाओं व वीरों को मुक्त किया। इसी अवतार में गणेश ने वरेण्य नामक अपने भक्त को गणेश गीता के रूप में शाश्वत तत्व ज्ञान का उपदेश दिया।

दाईं सूंड :

जिस मूर्ति में सूंड के अग्रभाव का मोड़ दाईं ओर हो, उसे दक्षिण मूर्ति या दक्षिणाभिमुखी मूर्ति कहते हैं। यहां दक्षिण का अर्थ है दक्षिण दिशा या दाई बाजू । दक्षिण दिशा यमलोक की ओर ले जाने वाली व दाईं बाजू सूर्य नाड़ी की है। जो यमलोक की दिशा का सामना कर सकता है, वह शक्तिशाली होता है व जिसकी सूर्य नाड़ी कार्यरत है, वह तेजस्वी भी होता है।

इन दोनों अर्थों से दाईं सूंड वाले गणपति को ‘जागृत’ माना जाता है। ऐसी मूर्ति की पूजा में कर्मकांड के अंतर्गत पूजा विधि के सर्व नियमों का यथार्थ पालन करना आवश्यक है। उससे सात्विकता बढ़ती है व दक्षिण दिशा से प्रसारित होने वाली रज लहरियों से कष्ट नहीं होता।

दक्षिणाभिमुखी मूर्ति की पूजा सामान्य पद्धति से नहीं की जाती, क्योंकि तिर्यक (रज) लहरियां दक्षिण दिशा से आती हैं। दक्षिण दिशा में यमलोक है, जहां पाप-पुण्य का हिसाब रखा जाता है। इसलिए यह बाजू अप्रिय है। यदि दक्षिण की ओर मुंह करके बैठें या सोते समय दक्षिण की ओर पैर रखें तो जैसी अनुभूति मृत्यु के पश्चात अथवा मृत्यु पूर्व जीवित अवस्था में होती है, वैसी ही स्थिति दक्षिणाभिमुखी मूर्ति की पूजा करने से होने लगती है। इसलिए ऐसी मूर्ति की पूजा करने का मन नहीं करता।

बाईं सूंड :

जिस मूर्ति में सूंड के अग्रभाव का मोड़ बाईं ओर हो, उसे वाममुखी कहते हैं। वाम यानी बाईं ओर या उत्तर दिशा बाई ओर चंद्र नाड़ी होती है। यह शीतलता देती है एवं उत्तर दिशा अध्यात्म के लिए पूरक है, आनंददायक और कृपालु है।

इसलिए पूजा में अधिकतर वाममुखी गणपति की मूर्ति की ही पूजा की जाती है।

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