दूसरा अध्याय कार्तिक माहात्म्य
ब्रह्माजी कहते हैं कि हे नारद! तुलसी की मंजरी सहित भगवान् शालिग्राम का जो एक बूंद चरणामृत का पान करता है वह ब्रह्महत्यादि बड़े-बड़े पापों से मुक्त होकर वैकुंठ को प्राप्त हो जाता है।
जो भगवान् शालिग्राम की मूर्ति के आगे अपने पितरों का श्राद्ध करता है उसके पितरों को वैकुंठ की प्राप्ति होती है।
जो भगवान् शालिग्राम की मूर्ति का दान करता है उसको समस्त पृथ्वी के दान का फल मिलता है परन्तु शालिग्राम की मूर्ति बेचनी नहीं चाहिए ।
विष्णु का पूजन शंख के जल से और शिव का विल्व पत्रों से, सूर्य का तुलसी से, गणेशजी का धतूरे के पुष्पों से तथा विष्णु का केतकी के पुष्पों से,
शिव का कनेर या कमल को छोड़ किसी अन्य लाल पुष्प से पूजन नहीं करना चाहिए।
जो श्रीविष्णु का पूजन कमल के पुष्पों से, लक्ष्मी का मालती और चंपा के पुष्पों से करता है वह भगवान् के परमपद को प्राप्त हो जाता है
और जो भगवान् की अतिप्रिय तुलसी से पूजा करता है उसकी महिमा कोई भी नहीं कह सकता।
वह कभी माता के गर्भ में नहीं आता। तुलसी माला धारण किए, मंजरी युक्त जिसकी मृत्यु हो जाय वह सीधा बिना किसी बाधा के वैकुंठ धाम को जाता है।
तुलसी की छाया में पितरों का श्राद्ध करने से पितरों की अक्षय तृप्ति होती है। तुलसी का सिंचन गंगा-यमुना तथा नर्मदा के स्नान के तुल्य हो जाता है।
तुलसी का वृक्ष लगाने, सींचने और स्पर्श करने से मनुष्य के काया वाचा और मनसा तीनों प्रकार के पाप नाश हो जाते हैं।
इस प्रकार कार्तिक का व्रत रखने वाला शांत चित्त से तुलसी का पूजन, प्रदक्षिणा और नमस्कार करके हाथ जोड़कर प्रार्थना करे कि हे हरिप्रिये!
देवताओं ने तुमको बनाया, मुनीश्वरों ने तुम्हारा पूजन किया और मैं आपको नमस्कार करता हूँ, इस प्रकार प्रार्थना करे।
जो मनुष्य आंवले के पत्ते और फूलों से भगवान् का पूजन करता तथा आंवले के वृक्ष के नीचे बैठकर भगवान् का पूजन करता है, उसको सोने के फल और पुष्पों जैसा फल प्राप्त होता है।
जो मनुष्य द्वादशी को तुलसी तथा आंवले के पत्तों को तोड़ता हैं वह घोर नरक में जाता है।
जो मनुष्य कार्तिक मास में आंवले के फल, तुलसी और गोपी चन्दन की माला धारण करता है,
वह जीवन मुक्त हो जाता है। इस प्रकार व्रती पुरुष, भोजन करके चन्दन, पुष्प, पान और दक्षिणा से ब्राह्मणों को प्रसन्न करे।
सारे मास भूमि पर शयन करे, ब्रह्मचर्य का पालन करे, पत्तल में एक समय भोजन करे,
मौत वत धारण करे वह शूरवीर और कांतिमान होता है। जो एक समय भोजन करता है, वह भी आंवले के नीचे बैठकर, उसके एक वर्ष के पाप नष्ट हो जाते हैं।
व्रती मनुष्य को शहद, कांजी, दाल, तेल, कच्चा भोजन, दूसरे का अन्न तथा किसी प्रकार का तामसी भोजन तथा बुरे नामों वाली वस्तु का भोजन नहीं करना चाहिए।
रविवार को आंवला न खाये। देव, वेद, गौ और ब्राह्मण की निन्दा न करे, मांस आदि का सेवन न करे।
अब सब प्रकार के माँस कहते हैं-मिट्टी में उत्पन्न हुए नमक, मसूर, बासी भोजन, ताँबे के पात्र में डाला हुआ दूध आदि, केवल अपने लिए ही पकाया हुआ भोजन यह सब माँस के बराबर होते हैं।
लहसुन, प्याज, पृथ्वी का फूल गोभी आदि, मूली, गाजर, जंगली घीया, बैंगन, पेठा, दुबारा पकाया हुआ भोजन नहीं खाना चाहिए।
रजस्वला स्त्री, म्लेच्छ, पर्तित, पाखंडी आदि से वार्तालाप नहीं करना चाहिए।
इन तिथियों में इन एक एक चीजों का भोजन नहीं करना चाहिए-एकम् को पेठा,
दूज को बैंगन, तीज को पृथ्वी का फूल, चौथ को मूली, पंचमी को बेलफल, छट को कलींदा,
सप्तमी को आंवला, अष्टमी को नारियल, नवमी को जंगली घीया, दशमी को परमल,
एकादशी को बेर, द्वादशी को मसूर, त्रयोदशी को पान, चतुर्दशी अथवा अमावस्या और पूर्णमासी को नारी का साग नहीं खाना चाहिए।