धर्मराज की धार्मिकता
महाराज युधिष्ठिर ने जब सुना कि श्रीकृष्ण ने अपनी लीला का संवरण कर लिया है और यादव परस्पर कलह से ही नष्ट हो चुके हैं, तब उन्होंने अर्जुन के पौत्र परीक्षित का राजतिलक कर दिया। स्वयं सब वस्त्र एवं आभूषण उतार दिए।
मौन व्रत लेकर, केश खोले, संन्यास लेकर वे राजभवन से निकले और उत्तर दिशा की ओर चल पड़े। उनके शेष भाइयों तथा द्रौपदी ने भी उनका अनुगमन किया | धर्मराज युधिष्ठिर ने सब माया-मोह त्याग दिया था |
उन्होंने न भोजन किया, न जल पिया और न विश्राम ही किया| बिना किसी ओर देखे या रुके वे बराबर चलते ही गए और हिमालय में बद्रीनाथ के आगे बढ़ गए। उनके भाई तथा रानी द्रौपदी भी बराबर उनके पीछे चलती सत्पथ पार हुआ और स्वर्गारोहण की दिव्य भूमि आई।
द्रौपदी, नकुल, सहदेव, अर्जुन-ये क्रम-क्रम से गिरने लगे। जो गिरता था, वह वहीं रह जाता था। उस हिम प्रदेश में गिरकर फिर उठने की चर्चा ही व्यर्थ है। शरीर तो तत्काल हिम-समाधि पा जाता है। उस पावन प्रदेश में प्राण त्यागने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति से भला कौन रोक सकता है।
युधिष्ठिर न रुकते थे और न गिरते हुए भाइयों की ओर देख ही रहे थे। वे राग- -द्वेष से परे हो चुके थे। अंत में भीमसेन भी गिर गए। युधिष्ठिर जब स्वर्गा रोहण के उच्चतम शिखर पर पहुंचे, तब भी अकेले नहीं थे।
उनके भाई और रानी द्रौपदी मार्ग में गिर चुकी थीं, किंतु एक कुत्ता उनके साथ था| यह कुत्ता हस्तिनापुर से ही उनके पीछे-पीछे आ रहा था | उस शिखर पर पहुंचते ही स्वयं देवराज इंद्र विमान में बैठकर आकाश से उतरे।
उन्होंने युधिष्ठिर का स्वागत करते हुए कहा, “आपके धर्माचरण से स्वर्ग अब आपका है। विमान में बैठिए युधिष्ठिर ने अब अपने भाइयों तथा द्रौपदी को भी स्वर्ग ले जाने की प्रार्थना की। देवराज ने बताया- वे पहले ही वहां पहुंच गए हैं।
युधिष्ठिर ने दूसरी प्रार्थना की, ‘इस कुत्ते को भी विमान में बैठा ले। *इंद्र बोले, “आप धर्मज्ञ होकर ऐसी बात क्यों करते हैं? स्वर्ग में कुत्ते का प्रवेश कैसे हो सकता है? यह अपवित्र प्राणी मुझे देख सका, यही बहुत है।*युधिष्ठिर बोले, “यह मेरे आश्रित है।
मेरे भक्ति के कारण ही नगर से इतनी दूर मेरे साथ आया है। आश्रित का त्याग अधर्म है। इसके बिना मैं अकेले स्वर्ग नहीं जाना चाहता।”इंद्र बोले, ‘राजन ! स्वर्ग की प्राप्ति पुण्यों के फल से होती है। यह पुण्यात्मा ही होता तो अधम योनि में क्यों जन्म लेता?”
युधिष्ठिर बोले, “मैं अपना आधा पुण्य इसे अर्पित करता हूं।”*धन्य हो, धन्य हो, युधिष्ठिर ! तुम ! मैं तुम पर अत्यंत प्रसन्न हूं।” युधिष्ठिर ने देखा कि कुत्ते का रूप त्यागकर साक्षात धर्म देवता उनके सम्मुख खड़े होकर उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं।