पच्चीसवाँ अध्याय कार्तिक माहात्म्य
शुक्राचार्यजी कहने लगे कि हे राजा बलि ! विष्णु तुम्हारा राज्य लेने के लिए अदिति के गर्भ से जन्म लेकर, वही तुम्हारे यज्ञ में आये हैं सो तुम इनको कुछ भी देना मत।
हे राजन्! मेरा कहना मानो । नीतिशास्त्र का कहना है कि अपनी बुद्धि से गुरु की बुद्धि अधिक लाभदायक होती है।
तब बलि कहने लगा कि गुरुजी ! आप मुझे अधर्म की शिक्षा क्यों देते हैं?
घर पर आये हुए याचक को दान न देना राजा के लिए अत्यन्त अधर्म की बात मानी जाती है।
और यदि स्वयं विष्णु भगवान् ही याचक बनकर आए हैं तो इसके बराबर मेरे लिए सौभाग्य की और क्या बात हो सकती है।
मैं जितने भी यज्ञ करता है, केवल विष्णु की प्रसन्नता के लिए ही करता हूं।
अतएव यह वटुक जो भी मुझसे मांगेगा, मैं अवश्य इसको दान दूंगा। इतने में ही वामन भगवान् राजा बलि के यज्ञ मंडप में आ गए।
तब बलि ने अर्घ्यादि देकर उनका यथोचित आदर सत्कार किया।
फिर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और कहने लगा कि हे नाथ!
मैं कृतार्थ हो गया जो आज आपने यहां आकर दर्शन दिये। अब आज्ञा कीजिये, मैं और आपकी क्या सेवा करूं?
मैं तो आपका सेवक हूं। भगवान् कहने लगे हे राजन्! हमको तप करने के लिये तीन पग पृथ्वी चाहिये। राजा बलि हंसकर कहने लगे कि हे वटुक !
तुमने यह क्या मांगा? कुछ धन, ग्राम या कोई शहर मांगा होता ।
वामन जी कहने लगे कि हे दैत्यराज ! मुझको किसी प्रकार का लोभ नहीं है,
मुझे तो इतनी भूमि चाहिए, जिससे मेरा कार्य हो जाये। हे राजन् !
पृथ्वी का दान करना राजा का परम धर्म है। भूमि दान करने वाला जन्म – मृत्यु से मुक्त होकर विष्णु के परमपद को प्राप्त हो जाता है।
जिस राजा ने भूमि का दान दिया, समझो उसने सर्वस्व दान दे दिया। राजन्, यह पृथ्वी सदैव किसी के पास नहीं रही। मान्धाता जैसे राजा आज कहाँ हैं?
चंचल लक्ष्मी से जो अपना मार्ग सुधारते हैं वे धन्य हैं। अधिक क्या कहें, भूमि दान से उत्तम दान न कोई हुआ है और न होगा।
अब मैं तुमसे पूर्वकाल का एक इतिहास कहता हूं। पहले ब्रह्म कल्प में भद्रमति नाम का एक ब्राह्मण था ।
उसके श्रुता, सिन्धु, यशोमति, शोभा, कामिनी, मालिनी नाम की छः स्त्रियां तथा अनेक पुत्र थे। अतः वह और उसकी सन्तान भूख से अति दुःखित हो गये।
इस दरिद्रता के कारण वह स्वयं को धिक्कारने लगा। फिर वह अपने कुटुम्ब सहित कौशाम्बी नाम की नगरी में चला गया।
वहाँ जाकर भद्रमति ने सुघोष नाम के एक धनी ब्राह्मण से पांच पग भूमि मांगी, तो उसने भूमि दे दी।
इसी भूमि दान के कारण उस सुघोष नामक ब्राह्मण को विष्णु का परमपद प्राप्त हुआ।
फिर भद्रमति ने वह भूमि एक दूसरे ब्राह्मण को दान दे दी जिससे उसे भी मोक्ष प्राप्त हुआ।
इस कारण हे राजन् ! हमें तीन पग भूमि दो जिससे हम भी मोक्ष का साधन प्राप्त करें।
इतनी बात सुनकर राजा बलि जल युक्त टूटी वाला लोटा लेकर भूमि का संकल्प करने के लिए तैयार हो गया।
तब शुक्राचार्य तपोबल से अपना सूक्ष्म रूप बनाकर राजा बलि को संकल्प करने से रोकने के लिए लोटे की टूटी में जल रोककर बैठ गये ।
वामन भगवान् शुक्राचार्य के मन की बात जान गये। अतएव उन्होंने एक तेज अग्र भाग वाला कुशा लेकर उस लोटे की टूटी के छिद्र में डाल दिया, जिससे शुक्राचार्य की एक आंख फूट गई।
इसके पश्चात् राजा बलि ने तीन पग भूमि का संकल्प दे दिया। उसी समय भगवान् विराट् रूप होकर ब्रह्मलोक तक बढ़ गये।
विराट रूप भगवान् ने दो पगों में सारा ब्रह्मांड नाप लिया। फिर पांव के अंगूठे से ब्रह्मांड फूट गया। उस फूटे हुए मार्ग से पानी के बहुत से स्रोत बहने लगे।
भगवान् विष्णु का पैर उस जल से धोया गया। वह निर्मल लोक पावन जलधारा का रूप हुआ।
वही जल ब्रह्मादिक देवताओं को पवित्र करता हुआ, सप्त ऋषियों से सेवित सुमेरु पर्वत के ऊपर पड़ा, तथा गँगा के नाम से विख्यात हुआ।
इस दृश्य को देखकर ब्रह्मादिक सब देवता और ऋषि मुनि स्तुति करने लगे कि हे सबके स्वामी, अनन्तमूर्ति! आपको नमस्कार है ।
इस प्रकार स्तुति सुनकर भगवान् ने सब देवताओं को उनका अपना-अपना स्थान दे दिया और बलि को रसातल में भेजते हुए उसको वरदान दिया कि अग्नि में बिना मन्त्र के जो हवन किया जाता है
तथा अपवित्रता से कुपात्र को जो दान दिया जाता है या हवन किया जाता है वह सब बलि को प्राप्त होगा।
इस प्रकार भगवान् ने देवताओं को सुन्दर स्वर्ग तथा बलि व अन्य दैत्यों को रसातल दिया।
इतना सब कुछ करके विराट् रूप भगवान् वामन रूप हो गये तब देवताओं तथा ऋषियों ने भगवान् की स्तुति की।
तदनन्तर वामनजी तप करने चले गये। इस प्रकार ऐसी पावन गंगा की उत्पत्ति भगवान् के चरणों से हुई जिसके स्नान एवं स्मरण मात्र से जन्म-जन्मान्तर के पाप नाश हो जाते हैं।