बैसाखी वैशाख मास में मनाया जाने वाला त्यौहार है।
शीतलाष्टमी
वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को शीतला देवी की पूजा की जाती है। शीतला देवी की पूजा चेचक के प्रकोप से बचने के लिए की जाती है। ऐसी प्राचीन मान्यता है कि जिस घर की महिलाएं शुद्ध मन से इस व्रत को करती हैं उस परिवार को शीतला देवी धन-धान्य से पूर्ण एवं प्राकृतिक विपदाओं से दूर रखती हैं।
इस पर्व को बसौड़ा भी कहते हैं। बसौड़ा का अर्थ है बासी भोजन। इस दिन घर में ताजा भोजन नहीं बनाया जाता है। एक दिन पहले ही भोजन बनाकर रख देते हैं। शीतला देवी का पूजन करने के बाद घर के सब व्यक्ति बासी भोजन को खाते हैं। जिस घर में चेचक से कोई बीमार हो उसे यह व्रत नहीं करना चाहिए।
बरूथनी एकादशी
वैशाख मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को यह मनाई जाती है। इस दिन व्रत करके चोरी, हिंसा, रति, क्रोध, जुआ खेलना, नींद, पान, दन्तधावन, परनिन्दा, क्षुद्रता तथा झूठ को त्यागने का माहात्म्य है। ऐसा करने से मानसिक शान्ति मिलती है। व्रती को हविष्यान्न खाना चाहिए। परिवार के सदस्यों को रात्रि को भगवद् भजन करके जागरण करना चाहिए।
कथा : प्राचीन काल में नर्मदा नदी के तट पर मांधाता नामक राजा राज्य करता था। वह अत्यन्त ही दानशील और तपस्वी राजा था।
एक दिन तपस्या करते समय एक जंगली भालू राजा मांधाता का पैर चबाने लगा। थोड़ी देर बाद भालू राजा को घसीट कर वन में ले गया। राजा vec 7 घबरा कर विष्णु भगवान का स्मरण किया। भक्त की पुकार सुन कर विष्णु भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र से भालू को मार कर अपने भक्त की रक्षा की।
भगवान विष्णु ने राजा मांधाता से कहा—हे वत्स! मथुरा में मेरी वाराह अवतार मूर्ति की पूजा बरूथनी एकादशी का व्रत रख कर करो। उसके प्रभाव से तुम पुनः अपने पैरों को प्राप्त कर सकोगे। यह तुम्हारा पूर्व जन्म का अपराध था। राजा ने इस व्रत को अपार श्रद्धा से सम्पन्न किया तथा पैरों को पनः प्राप्त कर लिया।
अक्षय तृतीया (आखातीज)
यह पर्व वैशाख शुक्ल की तृतीया को मनाया जाता है। इस दिन का किया हुआ तप, दान अक्षय फलदायक होता है। इसलिए इसे अक्षय तृतीया कहते हैं। यदि यह व्रत सोमवार तथा रोहिणी नक्षत्र में पड़ता है तो महाफलदायक माना जाता है। इस दिन प्रातःकाल पंखा, चावल, नमक, घी, चीनी, सब्जी, फल, इमली, वस्त्र के दान का बहुत महत्त्व माना जाता है।
मोहिनी एकादशी
वैशाख शुक्ल एकादशी मोहिनी एकादशी के नाम से प्रसिद्ध है। कथा : एक राजा के कई पुत्र थे। उनमें से एक राजकुमार बड़ा ही व्याभिचारी, दुर्जन संग, बड़ों का अपमान करने वाला था।
राजा ने उससे तंग आकर उसे अपने राज्य से बाहर निकाल दिया। वह वनों में जाकर रहने लगा और जानवरों को मार कर खा जाता।
एक दिन पूर्व जन्म के संस्कार वश वह एक ऋषि के आश्रम में पहुंचा। ऋषि ने उसे सत्संगति का महत्त्व समझाया। इससे उस राजकुमार का हृदय परिवर्तित हो गया। वह अपने किये पाप कर्मों पर पछताने लगा। तब ऋषि ने उसे वैशाख शुक्ल एकादशी का व्रत करने की सलाह दी।
व्रत के प्रभाव से उस दुष्ट राजकुमार की बुद्धि निर्मल हो गई। आज भी इस व्रत को पूरी श्रद्धा के साथ किया जाता है।
नृसिंह जयन्ती
भक्त प्रह्लाद की मान-मर्यादा की रक्षा हेतु वैशाख शुक्ल चतुर्दशी के दिन भगवान नृसिंह के रूप में प्रकट हुए थे। इसलिए यह तिथि एक पर्व के रूप में मनायी जाती है।
व्रत विधान : इस व्रत को प्रत्येक नर-नारी कर सकते हैं। व्रती को दोपहरी में वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते हुए स्नान करना चाहिए। नृसिंह भगवान की मूर्ति को गंगाजल से स्नान करा कर मंड़प में स्थापित करके विधिपूर्वक पूजन करने का विधान है।
ब्राह्मणों को यथा शक्ति दान दक्षिणा, वस्त्र आदि देना अभिष्ट है। सूर्यास्त के समय मन्दिर में जा कर आरती करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। इस विधि से व्रत करके उसका पारण करने वाला व्यक्ति लौकिक दुःखों से मुक्त हो जाता है।
कथा : राजा कश्यप के हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु नाम के दो पुत्र थे। राजा के मरने के बाद बड़ा पुत्र हिरण्याक्ष राजा बना। परन्तु हिरण्याक्ष बड़ा क्रूर राजा निकला। वाराह भगवान ने उसे मौत के घाट उतार दिया।
इसी का बदला लेने के लिए उसके भाई हिरण्यकशिपु ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की। तप-सिद्धि होने पर उसने भगवान शिव से वर मांगा – ” मैं न अन्दर मरूं न बाहर, न दिन में मरूंन रात में। न भूमि पर मरूं न आकाश में, न जल में मरूं। न अस्त्र से मरूं न शस्त्र से, न मनुष्य के हाथों मरूं न पशु द्वारा मरूं।” भगवान शिव तथाअस्तु कह कर अन्तर्ध्यान हो गए।
यह वरदान पा कर वह अपने को अजर अमर समझने लगा। उसने खुद को ही भगवान घोषित कर दिया।
उसके अत्याचार इतने बढ़ गए कि चारों तरफ त्राहिमाम त्राहिमाम मच गया। इसी समय उसके यहां एक बालक का जन्म हुआ। जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया।
प्रह्लाद के बड़ा होने पर एक ऐसी घटना घटी की प्रह्लाद ने अपने पिता को भगवान मानने से इंकार कर दिया। घटना यह थी कि कुम्हार के आवे में एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे। आवे में आग लगाने पर भी बिल्ली के बच्चे जीवित निकल आए। प्रह्लाद के मन में भगवान के प्रति आस्था बढ़ गई।
हिरण्यकशिपु ने अपने बेटे को बहुत समझाया कि मैं ही भगवान हूँ। परन्तु वह इस बात को मानने को तैयार नहीं हुआ। हिरण्यकशिपु ने उसे मारने के लिए एक खम्भे से बाँध दिया और तलवार से वार किया। खम्भा फाड़कर भयंकर नाद करते हुए भगवान नृसिंह प्रकट हुए।
भगवान का आधा शरीर पुरुष का तथा आधा शरीर सिंह का था। उन्होंने हिरण्यकशिपु को उठाकर अपने घुटनों पर रखा और दहलीज पर ले जा कर गोधुलि बेला मैं अपने नाखों से उसका पेट फाड़ डाला। ऐसे विचित्र भगवान का लोगमंगल के लिए स्मरण करके ही इस दिन व्रत करने का माहात्म्य है।
आसमाई की पूजा
वैशाख, आषाढ़ तथा माघ के महीनों के अन्तर्गत किसी रविवार को आसमाई की पूजा का विधान है। ज्यादातर बाल-बच्चे वाली सभी महिलाएं यह व्रत करती हैं। इस दिन भोजन में नमक का प्रयोग वर्जित है। ताम्बूल पर सफेद चन्दन से पुतली बना कर चार कौड़ियों को रख कर पूजा की जाती है। इसके बाद चौक पूर कर कलश स्थापित करते हैं।
उसी के समीप आसमाई को स्थापित करते हैं। पूजन के उपरांत पंडित बारह गोटियों वाला मांगलिक सूत्र व्रत करने वाली महिला को देता है। भोग लगाते समय इस मांगलिक सूत्र को धारण करना चाहिए।
कथा : एक राजा के एक लड़का था। लाड़ला होने के कारण वह मनमाने कार्य करने लगा था। वह प्रायः पनघट पर बैठ कर गुलेल से पनिहारियों की गगरियां फोड़ देता था। राजा ने आज्ञा निकाली कि कोई पनघट पर मिट्टी का घड़ा लेकर न जाए।
सभी स्त्रियां पानी भरने के लिए पीतल व तांबे के घड़े ले जाने लगीं। अब राजा के बेटे ने लोहे व शीशे के टुकड़ों से पनिहारियों के घड़े फोड़ने शुरू कर दिये ।
इस पर राजा बहुत क्रोधित हुआ तथा अपने पुत्र को देश निकाला का हुक्म सुनाया। राजकुमार घोड़े पर बैठ कर वनों को चल दिया। रास्ते में उसकी मुलाकात चार बुढ़ियों से हुई। अचानक राजकुमार का चाबुक गिर गया।
उसने घोड़े से उतर कर चाबुक उठाया तो बुढ़ियों ने समझा यह हमें प्रणाम कर रहा है। मगर नजदीक पहुंचने पर उन चारों बुढ़ियों के पूछने पर राजकुमार बताता है कि उसने चौथी बुढ़िया (आसमाई) को प्रणाम किया है।
इस पर आसमाई बहुत प्रसन्न हुई तथा उसे चार कौड़ियां देकर आशीर्वाद दिया कि जब तक ये कौड़ियां तुम्हारे पास रहेंगी तुम्हें कोई हरा नहीं सकेगा। तुम्हें हर काम में सफलता मिलेगी। आसमाई देवी का आशीर्वाद पाकर राजकुमार आगे चल दिया।
वह भ्रमण करता हुआ एक देश की राजधानी में पहुंचा। वहां का राजा जुआ खेलने में माहिर था। राजकुमार ने राजा को जुए में हरा दिया तथा राजा का राजपाट जीत लिया। बूढ़े मंत्री की सलाह से राजा उसके साथ अपनी राजकुमारी का विवाह कर देता है।
राजकुमारी बहुत ही शीलवान तथा सदाचारिणी थी। महल में सास- ननद के अभाव में वह कपड़े की गुड़ियों द्वारा सास ननद की परिकल्पना करके उनके चरणों को आंचल पसार कर छूती तथा आशीर्वाद पाने लगी ।
एक दिन यह सब करते हुए राजकुमार ने देख लिया और पूछा तुम यह सब क्या करती हो? राजकुमारी ने सास-ननद की सेवा करने की अपनी इच्छा बताई। इस पर राजकुमार सेना लेकर अपने घर को चल दिया। अपने पिता के यहां पहुंचने पर उसने देखा कि उसके मां बाप निरन्तर रोते रहने से अंधे हो गए हैं। पुत्र का समाचार पा कर राजा रानी बहुत प्रसन्न हुए।
महल में प्रवेश करने पर बहू सास के चरण छूती है। सास के आशीर्वाद से कुछ दिन बाद उनके यहां एक सुन्दर बालक का जन्म होता है। आसमाई की पूजा से राजा-रानी के नेत्रों की ज्योति लौट आती है और उनके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं।
वैशाखी पूर्णिमा
इस दिन मनुष्यों को पवित्र नदियों में स्नान करना चाहिए। सत्तू, मिठाई, वस्त्र आदि का दान करना चाहिए। श्रीकृष्ण के बचपन के सहपाठी सुदामा जब द्वारिका उनसे मिलने गए तो उन्होंने सत्य विनायक व्रत का उनको विधान बताया। इसी व्रत के प्रभाव से सुदामा की सब दरिद्रता दूर हो गई और वह अत्यन्त ऐश्वर्यशाली हो गया।
माघ मास महात्म्य – Magh Maas
- पहला अध्याय – माघ महात्म्य
- दूसरा अध्याय – माघ महात्म्य
- तीसरा अध्याय माघ महात्म्य
- चौथा अध्याय माघ महात्म्य
- पांचवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- छठा अध्याय माघ महात्म्य
- सातवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- आठवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- नवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- दसवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- ग्यारहवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- बारहवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- तेरहवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- चौदहवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- पन्द्रहवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- सोलहवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- सत्रहवाँ अध्यायं माघ महात्म्य
- अठारहवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- उन्नीसवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- बीसवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- इक्कीसवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- बाईसवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- तेईसवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- चौबीसवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- पच्चीसवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- छब्बीसवाँ अध्याय माघ महात्म्य
- सत्ताईसवाँ अध्याय माघ महात्म्य