देवी माँ का विराट रूप –
देवी माता का विराट रूप
भुजा सहित माता का विराट रूप आंखें मूंदकर मनन कीजिए कि हजारों कमलपुष्प एकदम खिल उठे। सोचिए कि एक हजार सूर्य एक ही आकाश-मण्डल में एक साथ उदय हो गए। ऐसा है उसका रूप, ऐसा है उसका तेज। सूर्य और चन्द्र उसके दोनों नेत्र हैं।
नक्षत्र आभूषण हैं, हरी-भरी धरा का सिंहासन और नीला आकाश उस पर छत्रछाया है। सिन्दूरी लाल सूए रंग के फूलों में उसका रूप झलकता है।
अस्ताचल को जाते हुए रक्तावरण सूर्य में भी वही दीप्तिमान है। हिमपात के कारण सफेद चादर से ढके हुए पर्वतों में विराजमान है। श्वेत हंस वाहन पर श्वेत वस्त्र धारण किए सरस्वती के रूप में शोभायमान है।
स्त्रियों की लज्जा में, योद्धाओं के आक्रोश में और विकराल काल-ज्वाला की लपटों रूपी जिहा में दमक रही है। अम्बा के रूप में माँ का स्नेह मिल रहा हो।
त्रिपुर सुन्दरी के रूप में अद्वितीय सम्मोहन है। और महाकाली के नरमुण्डों की माला पहले भयानक नृत्य करती है। कभी वैष्णवी रूप में निर्मल तथा कौमार्य-शक्ति का परिचायक है।
यद्यपि वह निर्गुण है तथापि विभिन्न रूपों में समय-समय पर दुष्टों के नाश के लिए अवतार धारण करती है। दुर्गा सप्तशती के दूसरे अध्याय में इस स्वरूप का विस्तृत वर्णन है।
असुरों के अत्याचार से तंग आकर देवताओं ने जब ब्रह्मा जी से सुना कि दैत्यराज को वर प्राप्त है कि उसकी मृत्यु किसी कुंवारी कन्या के हाथ से होगी, तो सब देवताओं ने अपने सम्मलित तेज से देवी के इस रूप को प्रकट किया।
विभिन्न देवताओं की देह से निकले हुए इस तेज से ही देवी के विभिन्न अंग बने।
इसके पश्चात शिवजी ने उस महाशक्ति को अपना त्रिशूल दिया, लक्ष्मी जी ने कमल का फूल, विष्णु ने चक्र, अग्नि ने शक्ति व बाणों से भरे तरकश, यमराज ने दण्ड, काल ने तलवार, विश्वकर्मा ने निर्मल फरा, प्रजापति ने स्फटिक मणियों की माला, वरुण ने दिव्य शंख, हनुमान जी ने गदा, शेषनागजी ने मणियों से सुशोभित नाग, इन्द्र ने वज्र, भगवान राम ने धनुष, वरुणदेव ने पाश व तीर, ब्रह्मा जी ने चारों वेद तथा हिमालय पर्वत ने सवारी के लिए सिंह प्रदान किया।
इसके अतिरिक्त समुद्र ने बहुत उज्ज्ल हार कभी न फटने वाले दिव्य वस्त्र, चूड़ामणि, दो कुण्डल, हाथों के कंगन, पैरों के नूपुर तथा अंगूठियां भेंट की। इन सब वस्तुओं को देवी ने अपनी अद्वारह भुजाओं में धारण किया। इसी स्वरूप को चित्र में दर्शाया गया है।
माँ वैष्णो देवी
सर्पाकार जम्मू-कटरा पर्वतीय मार्ग
सर्पाकार जम्मू-कटरा पर्वतीय मार्ग – जम्मू से कटरा लगभग २ घण्टे का मार्ग है। जम्मू से लगभग ४ किलोमीटर दूर कटरा मार्ग पर ही नुमाई नामक गांव पड़ता है। नुमाई से देवामाई तक जाने के लिए पगडण्डी मार्ग है। इस स्थान को वैष्णो देवी यात्रा में दूसरा दर्शन कहा गया है। यहां पर माता की मूर्ति के अतिरिक्त छोटा त्रिशूल भी है। जिन दिनों पैदल यात्रा होती थी, उन दिनों देवामाई में बहुत चहल-पहल रहती थी अब तो बहुत कम यात्री देवामाई तक जा पाते हैं। इस स्थान का नाम वैष्णो माता की एक पुजारिन माई देवा के नाम पर रखा गया, जिसने आयुपर्यन्त नियम, श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक देवी की आराधना की थी।
बस स्टैण्ड कटरा
बस स्टैण्ड कटरा- इसी स्थान से पैदल यात्रा प्रारम्भ होती है। साथ ही कटरा का एक लम्बा बाजार है जहां से खाने-पीने की तथा अन्य आवश्यक वस्तुएं उचित मूल्य पर मिल जाती हैं। ठहरने के लिए निकट ही होटल, घर्मशाला तथा यात्री विश्राम गृह बने हुए हैं। सामने श्रीधर सभा द्वारा निर्मित ७ मंजिला विशाल गृह बने हुए हैं। हजारों यात्री ठहर सकते हैं। यात्रा पर जाने से पहले, प्रत्येक यात्री के लिए, बस स्टैण्ड पर ही स्थित टूरिस्ट रिसेप्शन सेंटर से यात्रा पर्ची प्राप्त करना अनिवार्य है, अन्यथा बाण गंगा से वापिस आना पड़ता है। यह यात्रा पर्ची निःशुल्क दी जाती है। है
श्री रघुनाथ मन्दिर कटरा
श्री रघुनाथ मन्दिर कटरा – कटरा बस स्टैण्ड से लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर बना हुआ है जहां एक सुन्दर मन्दिर स्वामी नित्यानन्द जी का बनाया हुआ है। यहां श्री रघुनाथ जी के अतिरिक्त ११ मन वजनी हनुमान जी की विशालकाय मूर्ति भी है। भगवान आशुतोष का मन्दिर और स्वामी नित्यानन्द जी की समाधि भी बनी हुई है। वैष्णो देवी जाते हुए यात्री रास्ते में इस स्थान के दर्शन कर सकते हैं।
भूमिका मन्दिर
भूमिका मन्दिर– कटरा से लगभग दो मील दूर पैदल जाने वाली सड़क पर ऐतिहासिक मन्दिर है। इसी स्थान से माता वैष्णवी देवी की कलियुग की कहानी की विशेष भूमिका बंधती है। कहा जाता है कि लगभग ७०० वर्ष पूर्व यहाँ पर पं. बाबा श्रीधर जी को देवी ने कन्या रूप में साक्षात दर्शन दिए। जैसा कि पहले पृष्ठों में बताया गया है- दिव्य कन्या ने अपने दिव्य कमण्डल से नाथ को भण्डारा दिया तथा भैरवनाथ के अभद्र व्यवहार की चेष्टा करने पर अन्तर्ध्यान हो गई। जब पवन रूप होकर माता त्रिकूट पर्वत की ओर बढ़ी तब भैरव-योगी ने योगविद्या के बल-प्रभाव से उस पवन का पीछा किया।
चिन्तामणि मन्दिर व धर्मशाला
चिन्तामणि मन्दिर व धर्मशाला कटरा से माता के दर्शनों के लिये जाते हुए मार्ग में ही इस भव्य मन्दिर के दर्शन कर सकते हैं। चिन्तामणि ट्रस्ट द्वारा निर्मित विशाल धर्मशाला के आधुनिक सुविधा से युक्त कई कमरे हैं, जहां यात्री विश्राम कर सकते हैं। मन्दिर में दुर्गा जी की सुन्दर प्रतिमा और विशाल शिवलिंग के दर्शन होते हैं। यह स्थान बस स्टैण्ड से लगभग एक किलोमीटर है।
शालीमार उद्यान से त्रिकूट पर्वत का दृश्य
शालीमार उद्यान से त्रिकूट पर्वत का दृश्य-शीत ऋतु में त्रिकूट पर्वत के तीनों श्रृंगों पर बर्फ की सफेदी मनमोहक दृश्य उपस्थित कर देती है। यात्रा पर जाते समय बस स्टैण्ड कटरा से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर शालीमार उद्यान स्थित है। वहीं से त्रिकूट पर्वत का यह दृश्य लिया गया है।
दर्शनी दरवाजा
दर्शनी दरवाजा दिव्य कन्या भूमिका नामक स्थान से लोप होकर इसी स्थान से होती हुई त्रिकूट पर्वत की ओर बढ़ी। स्मृति स्वरूप यह दरवाजा बना है। त्रिकूट पर्वत का पहला दर्शन यहां होता है, इसी से इसे दर्शनी दरवाजा कहा जाता है। यह कटरा से लगभग डेढ़ किलोमीटर है।
बाण गंगा
बाण गंगा का मन्दिर व पुल कन्या-रूपी महाशक्ति जब उक्त स्थान से होकर आगे बढ़ी तो उसके साथ वीर लांगुर भी था। चलते-चलते वीर लांगुर को प्यास लगी तो देवी ने पत्थरों में बाण मारकर गंगा प्रवाहित कर दी और अपने प्रहरी की प्यास को तृप्त किया। उसी गंगा में ही देवी ने अपने केश भी धोकर संवारे इसलिए इसे बाल गंगा भी कहते हैं।
मन्दिर में प्रतिष्ठित देवी की मूर्ति –
बाण गंगा का पुल पार करके सामने ही मन्दिर के प्रांगण में देवी की यह सुन्दर प्रतिमा प्रतिष्ठित है। यह स्थान कटरा से २ किलोमीटर और पिछले दर्शनी दरवाजा नामक स्थान से एक किलोमीटर है। एक पुल द्वारा इस गंगा को पार कर आगे बढ़ते है। समीप ही मन्दिर है। अधिकांश लोग यहां स्नान भी करते हैं। यहीं से सीढ़ियों वाला पक्का मार्ग भी प्रारम्भ हो जाता है। साथ ही कच्चा मार्ग भी है जिससे खच्चर घोड़े आदि भी जाते हैं। वास्तव में यहां से त्रिकूट पर्वत की कठिन चढ़ाई प्रारम्भ होती है।
चरण पादुका
चरण पादुका – मन्दिर इस स्थान पर रुक कर महाशक्ति देवी ने पीछे – की ओर देखा था कि भैरव जोगी आ रहा है या नहीं। रुकने से इस स्थान पर माता के चरण-चिन्ह बन गए. इसी कारण इस स्थान को चरण पादुका पुकारा जाता है। बाण गंगा से यह १५ किलोमीटर की दूरी पर, समुद्रतल से ३३८० फीट की ऊंचाई पर स्थित है। एक मन्दिर, चाय, फल आदि की दुकानें हैं। वैष्णो देवी यात्रा में यह दूसरा पड़ाव है।
गर्भ जून
आदिकुमारी कुछ दूर आगे चलकर वैष्णवी कन्या ने एक तपस्वी को ददिघ्य-रूप के दर्शन देकर उसकी संकरी गुफा में प्रवेश करके नौ माह तक तपस्या की। उधर भैरव खोज करते हुए जब इस गुफा तक पहुंचा तो वह दिव्य कन्या अपने त्रिशूल के प्रहार से मार्ग बनाकर बाहर निकल गई। तपस्वी ने भैरव को बताया कि वह कोई साधारण कन्या नहीं, बल्कि सर्वशक्तिमान और आदि कुमारी है। इसी प्रसंग से यह स्थान आदिकुमारी और गुफा को गर्भयोनि कहा जाता है।
आदिकुमारी
आदिकुमारी का दृश्य चरण पादुका से काफी दूर चलकर वैष्णवी कन्या ने सामने एक गुफा के पास तपस्वी साधु को देखकर उसे अपनी दिव्य झलक दिखाई और कहा- हे तपस्वी! मैं यहां कुछ समय विश्राम करूंगी, कोई मेरे विषय में पूछे तो कुछ न बताना।
यह कहकर शक्ति गुफा में चली गई और जिस प्रकार बालक माता के गर्भ में नौ महीने तक रहता है, उसी प्रकार कन्या गुफा में नौ महीने तक तपस्या में लीन रही।
उधर भैरव कन्या की खोज करता हुआ यहां तक आ पहुंचा। उसने तपस्वी से पूछा-
क्या तुमने किसी कन्या को इधर से जाते देखा है?
यह सुनकर तपस्वी ने भैरव से कहा- जिसे तू साधारण नारी समझता है वह तो महाशक्ति है और आदिकुमारी है (अर्थात् जब से सृष्टि की रचना हुई तभी से उसने कौमार्य-व्रत धारण किया)। जा, यहां से चला जा।
भैरव सुनकर क्रोधित हुआ और बोला कि मैं तो ढूंढकर ही दम लूंगा। भैरव ने गुफा में प्रवेश किया। गुफा में बैठी जगतमाता यह सब देख रही थीं। माता ने अपनी शक्ति से त्रिशूल द्वारा गुफा के पीछे से दूसरा मार्ग बनाया और बाहर निकल गईं। इसीलिए इस गुफा को गर्भजून गुफा और स्थान को आदिकुमारी कहा जाता है। चरण पादुका से यह स्थान ४.५ किलोमीटर तथा समुद्रतल से ऊंचाई लगभग ४८०० फीट है।
माता वैष्णो देवी की पवित्र गुफा के अन्दर दिव्य पिण्डी दर्शन
माता वैष्णो देवी की पवित्र गुफा के अन्दर दिव्य पिण्डी दर्शन- गुफा के अन्त में जिस स्थान पर पवित्र पिण्डियों के दर्शन किये जाते हैं, वहां एक साथ पांच-छ: व्यक्ति ही बैठ सकते हैं। सीधे खड़ा होना कठिन है। यहां भगवती वैष्णो माँ के दर्शन तीन भव्य पिण्डियों के रूप में होते है-महाकाली, महालक्ष्मी एवं महा सरस्वती। पिण्डियों के पीछे कुछ श्रद्धालु भक्तों एवं जम्मू-कश्मीर के भूतपूर्व नरेशों द्वारा स्थापित मूर्तियां एवं यन्त्र इत्यादि हैं। पिण्डियों के पास माता की अखण्ड ज्योति प्रज्वलित है। प्रातः एवं सांय, दोनों समय पिण्डियों का स्नान, शृंगार, पूजन एवं आरती होती है।
माता वैष्णो देवी का दरबार (हिमपात में)
माता वैष्णो देवी का दरबार (हिमपात में) महान आदर और सत्कार देते हुए सुन्दर गुफा के निकटवर्ती क्षेत्र को देवी का दरबार नामक संज्ञा दी जाती है। दरबार माता वैष्णो में प्रवेश करते ही यह दृश्य दिखाई देता है। यात्रियों के ठहरने का पूरा प्रबंध है।
यहां यात्रा पर्ची दिखाकर पवित्र गुफा में दर्शन के लिए नम्बर मिलता है। खाने पीने की दुकानों के अतिरिक्त प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र, पोस्ट ऑफिस, टेलीफोन व्यवस्था एवं पुलिस सहायता भी उपलब्ध है।
जो यात्री वैष्णो देवी दरबार में रात को ठहरना चाहें, उनके लिए धर्मार्थ ट्रस्ट की ओर से कम्बल, दरी व स्टोव आदि मिल सकते हैं। लगभग तीन हजार यात्री एक साथ वहां ठहर सकते हैं। हाथी मत्था से चार किलोमीटर तथा समुद्रतल से ५२०० फीट ऊंचाई है।
माता का भवन तथा गुफा का प्रवेश द्वार
गुफा के प्रवेश द्वार पर ही मन्दिर अथवा भवन बना है। इसके सामने बैठकर क्रमानुसार पंक्तिबद्ध होकर भक्तजन दर्शन के लिए प्रतीक्षा करते हैं। गुफा का प्रवेश द्वार काफी संकरा (तंग) है। लगभग दो गज तक लेटकर या काफी झुककर आगे बढ़ना पड़ता है, तत्पश्चात लगभग बीस गज लम्बी गुफा में पत्थर की शिला से नीचे उतरकर, कमर झुकाकर धीरे-धीरे आगे चलना होता है। गुफा के अन्दर सीधे खड़ा नहीं हुआ जा सकता। गुफा के अन्दर जनरेटर द्वारा प्राप्त विद्युत प्रकाश का प्रबंध है, फिर भी यात्री टार्च ले जावें तो अच्छा रहता है। गुफा के अन्दर टखनों की ऊंचाई तक शुद्ध एवं शीतल जल प्रवाहित होता रहता है, जिसे चरण गंगा कहते हैं।
गुफा में पिण्डी दर्शन
नई गुफा से बाहर आते हुए भक्तजन यात्रियों की सुविधा के लिए २० मार्च, १६७७ को इस नई गुफा का उद्घाटन डॉ. कर्णसिंह जी द्वारा सम्पन्न हुआ। प्रवेश द्वार संकरा होने के कारण यात्रियों को दर्शन करने के पश्चात वापिस आने में काफी समय लग जाता था, जिससे अन्य यात्रियों को बड़ी देर तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी तथा सीमित संख्या में ही लोग दर्शन कर पाते थे। गुफा की लम्बाई ३६.६१ मीटर, चौड़ाई १.८२ मीटर तथा ऊंचाई २.२१ मीटर है।
भैरों मन्दिर
भैरों मन्दिर – वैष्णों देवी के दर्शन करने के बाद वापिस लौटते समय भक्तजन भैरों बाबा के दर्शन के लिए जाते हैं। दरबार से लगभग आधा कि.मी. आगे चलकर भैरों मन्दिर के लिए कच्ची पगडण्डी तथा पक्की सीढ़ियां, दोनों प्रकार का मार्ग बना है। दरबार माता वैष्णों से २.५ मी. तथा समुद्रतल से ६५८३ फीट है। कि.
भैरों मन्दिर का इतिहास
देवी कन्या आगे बढ़ती रही- भैरव पीछा करता रहा। गुफा के द्वार पर देवी ने वीर लांगूर को प्रहरी बनाकर खड़ा कर दिया और भैरव को अन्दर आने से रोकने के लिए कहा। कन्या गुफा में प्रवेश कर गई तो भैरव भी घुसने लगा। वीर लांगूर के साथ भैरव का युद्ध हुआ। शक्ति ने चंडी का रूप धारण कर भैरव का वध कर दिया। धड़ वही फिर गुफा के पास तथा सिर भैरों घाटी में जा गिरा। जिस स्थान पर भैरों का सिर गिरा था, उसी जगह भैरव मन्दिर का निर्माण हुआ है।
सिर धड़ से अलग होने पर भैरव की आवाज आई- हे आदिशक्ति ! कल्याणकारिणी माँ! मुझे मरने का कोई दुःख नहीं, क्योंकि मेरी मृत्यु जगत रचयिता माँ के हाथ हुई है। सो हे मातेश्वरी! मुझे क्षमा कर देना।
मैं तुम्हारे इस रूप से परिचित न था। माँ अगर तूने मुझे क्षमा न किया तो आने वाला युग मुझे पापी की दृष्टि से देखेगा और लोग मेरे नाम से घृणा करेंगे। माता न हो कुमाता भैरव के मुख से बारम्बार माँ शब्द सुनकर जगकल्याणी मातेश्वरी ने उसे वरदान दिया कि मेरी पूजा के बाद तेरी पूजा होगी तथा तू मोक्ष का अधिकारी होगा।
मेरे श्रद्धालु मेरे दर्शनों के पश्चात तेरे दर्शन किया करेंगे। तेरे स्थान का दर्शन करने वालों की भी मनोकामना पूर्ण होगी। इसी कथा के अनुसार यात्री दरबार के दर्शन के बाद वापिसी में भैरों मन्दिर के दर्शन के लिए जाते हैं।
श्री वैष्णों देवी की सम्पूर्ण यात्रा चाहे आप उसे शक्ति नाम से पुकारें, चाहे देवी मान कर पूजा करें। वैज्ञानिक ऊर्जा, या कोई अन्य व्यक्ति उसे ताकत (Power) कह ले।
बिना शक्ति के संसार में पत्ता भी नहीं हिल सकता, कोई भी काम नहीं हो सकता। ब्रह्मा, विष्णु महेश सहित सभी देवता भी बिना शक्ति के अचूरे हैं। वह भी महाशक्ति की इच्छा से रचना, पालन और संहार के अपने-अपने कार्य उसी के आदेशानुसार करते हैं। चित्र में बस अड्डा कटरा से बाण गंगा, चरण पादुका, आदिकुमारी, हाथी मत्था, भैरों मन्दिर व दरबार की सम्पूर्ण यात्रा को दर्शाया गया है।