भगवान् शंकर द्वारा श्रीराम नाम की महिमा
भगवान् शंकर रामायण के प्रधान आचार्य हैं। रामचरित्र का वर्णन सौ करोड़ श्लोकों में श्रीशिवजी ने किया है- शतकोटिप्रविस्तरम् । रामायण के सौ करोड़ श्लोक हैं, उसको संक्षेप में कौन कर सकता है?
शिवजी ने कहा है- ‘मैं श्रीरामजी की कथा करता हूँ, सब दिन सतत राम नाम जपता हूँ परन्तु श्रीरामजी कैसे हैं, वह मैं जानता नहीं।’ शिवजी की यह विनम्रता है। जो जानते हैं- ‘हम कुछ जानते नहीं, इस प्रकार समझकर जप करते हैं, वे ही कुछ जानते हैं।
भगवान् शंकर सतत राम-नाम का जप करते हैं। ऊँकार में जो शक्ति है, वही शक्ति राम-नाम में है। राम-नाम सब वेदों का सार है।
एक बार महादेव बाबा के दरबार में देवता आये, ऋषि आये और राक्षस भी आये। महादेव बाबा का दरबार सबके लिए सब समय खुला है। जब भी जाओ, दर्शन होते हैं। रात्रि के बारह बजे तुम रामजी के दर्शन करने जाओ तो रामजी दर्शन देते नहीं। ये तो राजाधिराज हैं। शयन करते हैं, परन्तु रात्रि बारह बजे कोई शंकर
महादेव के दर्शन करने जाय तो दर्शन कर सकता है। महादेव बाबा का दरबार बन्द होता नहीं, इनका दरवाजा बन्द होता नहीं। ये तो कहते हैं कि ‘रात्रि बारह बजे तो क्या, तुमको रात्रि दो बजे आना हो तो आओ’ मैं तो बैठा हुआ हूँ। जब आना हो तब आओ और जिसको आना हो वह आओ। सबके लिए शिवजी का दरबार खुला है।
रामजी के द्वार पर हनुमान् खड़े रहते हैं
रामजी के यहाँ हरेक को प्रवेश मिलता नहीं। रामजी के दरबार में तो उसी को प्रवेश मिलता है जो रामजी की मर्यादा का पालन करता हो, रामजी जैसी मातृ-पितृभक्ति रखता हो, रामजी जैसा संयम-सदाचार का पालन करता हो। रामजी के द्वार पर हनुमान् खड़े रहते हैं। उनकी आज्ञा के बिना कोई अन्दर प्रवेश कर नहीं सकता।
राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥
रामजी के दरबार में प्रवेश माँगनेवाले से हनुमान्जी पूछते हैं- ‘तुम मेरे रामजी जैसा बन्धु- प्रेम रखते हो? संयम रखते हो? मेरे रामजी की मर्यादा का पालन करते हो?
परस्त्री को माता के समान देखते हो? रामजी की मर्यादा पालन करे, उसी को दरबार में प्रवेश का अधिकार मिलता है। हनुमान्जी सबको अन्दर जाने देते नहीं।
श्रीकृष्ण के दरबार की कथा अलग है। कन्हैया कहते हैं कि मेरे यहाँ आना है तो नाक में बाली पहननी पड़ेगी। साड़ी भी पहननी पड़ेगी। मेरे दरबार में आना हो तो गोपी बनकर आओ।
शिवजी का ही एक दरबार ऐसा है कि जो चाहे वहाँ जा सकता है। भगवान् शंकर तो आशुतोष हैं। सरलता से ही रीझ जाते हैं। शिवजी के दरबार में हरेक को प्रवेश मिलता है।
वहाँ देवता आते हैं, ऋषि आते हैं, दैत्य आते हैं और भूत-पिशाच भी आते हैं। तुम मथुरा तो गये होगे। मथुरा में भूतेश्वर महादेव का मन्दिर है।
वहाँ के ब्राह्मण ऐसा कहते हैं कि वहाँ सारे दिन तो देवता-ऋषि पूजा करते हैं परन्तु रात्रि ग्यारह बारह बजे के बाद वहाँ भूत आते हैं और शिवजी की आराधना करते हैं।
भगवान् शंकर तो सबके स्वामी हैं। जीव-मात्र के ऊपर इनकी कृपा-दृष्टि है। शिवजी का दरबार सबके लिए खुला न होता तो बेचारे भूत-पिशाच कहाँ जाते?
शिवजी के दरबार में देवता और ऋषि रामायण माँगने आये। वहाँ राक्षस भी आये और उन्होंने कहा- ‘महाराज! हमको रामायण पाठ करना है, सो आप हमको रामायण दो।’
राक्षस भी रामायण पाठ करते हैं, परन्तु आजकल के मनुष्य रामायण का पाठ करते नहीं। कितने ही लोग तो उपन्यास-शृंगार की कथा बहुत पढ़ते है और मन को बिगाड़ते हैं।
जीवन को बिगाड़ते हैं। जब तुमको फुरसत मिले, तब रामायण का पाठ करो, तुम्हारा पाप भस्म होगा। श्रीहनुमान्जी महाराज तुम्हारे ऊपर कृपा करेंगे।
राक्षसों को भी श्रीराम अच्छे लगते हैं। रामजी का वर्णन देवता और ऋषि ही करते हैं, ऐसा नहीं है-राक्षस भी उनकी प्रशंसा करते हैं।
रावण भी श्रीरामजी का बखान करता है, यह प्रसंग पहले आ चुका है। राक्षसों को भी रामायण रुचिकर है। वे भी रामायण का पाठ करते हैं। सब मिलकर भगवान् नीलकण्ठ के पास आये और कहा कि महाराज! हमको रामायण दो।
रामायण के श्लोक हैं, सौ करोड़ और लेनेवाले हैं तीन । देवता, दैत्य और ऋषि। शिवजी ने श्लोकों का समान बँटवारा किया तो हरेक के भाग में तैंतीस करोड़, तैंतीस लाख, तैंतीस हजार, तीन सौ तैंतीस श्लोक आये। कुल निन्यानबे करोड़, निन्यानबे लाख, निन्यानबे हजार नौ सौ निन्यानबे श्लोक वितरित हुए। उन सौ करोड़ में से एक श्लोक बाकी बचा।
यह जो एक श्लोक बचा हुआ था, उसको भी तीनों माँगने लगे। देवताओं ने कहा-हमें दो। ऋषियों ने कहा- हमें दो और राक्षसों ने कहा- हमें दो।
एक श्लोक के लिए तीनों झगड़ने लगे। शंकर दादा को झगड़ा जरा भी पसन्द नहीं। मन्दिर में कभी कलह करना नहीं। मन्दिर में जोर से बोलना नहीं, प्रभु के दरबार में तो पशु-पक्षी भी वैर को भूल जाते हैं और प्रेम से साथ बैठते हैं। मालिक को झगड़ा पसन्द नहीं।
कितने ही लोग मन्दिर में जाकर अपना पक्ष ऊँचा करते हैं। मन्दिर में सबको प्रेम से देखो, सबके साथ प्रेम से बोलो। कोई बहुत जोर से बोलता है तो लाला को बुरा लगता है कि यह यहाँ मारा-मारी करने आया है क्या? कन्हैया तो बहुत कोमल हैं।
शंकर भगवान् के दरबार में तुम दर्शन करोगे तो ध्यान में आवेगा कि शत्रु होते हुए भी सभी जीव एक ही जगह एकत्रित हैं। शत्रु होते हुए भी वैर को बिसार रखा है।
शिवजी के दरबार में गणपति महाराज हैं और उनका वाहन है मूषक। शिवजी के गले में सर्प है। सर्प और मूषक का जन्मसिद्ध वैर होता है।
सर्प मूषक को देखते ही दौड़ पड़ता है और चूहे को मार डालता है, परन्तु शिव मन्दिर में तो इन्होंने वैर भुला रखा है, प्रेम से सब साथ बैठे हैं। भगवान् शंकर के वाहन हैं नन्दीश्वर और माता पार्वतीजी के वाहन हैं सिंह आदिशक्ति जगदम्बा सिंहवाहिनी हैं।
माताजी को सिंह बहुत प्रिय है। सिंह हिंसा तो बहुत करता है। परन्तु सिंह में एक बहुत बड़ा सद्गुण है। सिंह वर्ष में एक ही बार काम-सुख भोगता है, बाकी तीन सौ उनसठ दिवस यह संयम रखता है।सिंह संयम की मूर्ति है और इसीलिए आदिशक्ति जगदम्बा ने सिंह को पसन्द किया है। माताजी के मन्दिर में सिंह की स्थापना होती है।
देवीभागवत में आदिशक्ति जगदम्बा के इक्यावन सिद्धपीठों की कथा आती है। स्वर व्यञ्जन मिलने से इक्यावन वर्ण होते हैं। आदिशक्ति जगदम्बा जहाँ विराजती हैं; वहाँ सिंह की स्थापना होती है।
काशी में विशालाक्षी हैं। काञ्ची में कामाक्षी हैं। मथुरा में मीनाक्षी हैं। प्रत्येक पीठ में सिंह की स्थापना है। माताजी का वाहन सिंह और शिवजी भगवान् का वाहन नन्दी सिंह और बैल का जन्मसिद्ध वैर है, परन्तु शिवजी के धाम में ये वैर भूल जाते हैं।
नारायण के दरबार में भी एकत्रित हुए हैं। नारायण के वाहन हैं गरुड़ और शव्या है शेष। गरुड़ और सर्प का वैर जन्मसिद्ध है। पुराणों में कथा आती है। सर्पों ने गरुड़जी की माता को बड़ा त्रास दिया था, परन्तु नारायण के सम्मुख आने के बाद वे वैर भूल जाते हैं।
मन्दिर में वैर विष को भूल जाओ। आँख में प्रेम रखकर सबको प्रेम से देखो। शिवजी को आश्चर्य हुआ कि एक श्लोक के पीछे तुम लोग झगड़ा करते हो? मेरे धाम में आने के पश्चात् तो पशु-पक्षी भी वैर नहीं करते, झगड़ा नहीं करते, फिर तुम क्यों करते हो?
“शिवजी ने उलाहना दिया, फिर भी तीनों जनों ने एक श्लोक के लिए माँग चालू रखी।
“तब शंकर बाबा ने कहा- तुम लोग ऐसा दुराग्रह न करो। इस श्लोक के अक्षर मैं तुमको समान भाग में बाँट देता हूँ। यह श्लोक अनुष्टुप् छन्द में था। अनुष्टुप् छन्द के अक्षर होते हैं बत्तीस।
शिवजी महाराज ने बँटवारा किया। तब हरेक को दस-दस अक्षर वितरित हुए। तीस अक्षर बँटे तथा दो बाकी बचे। इन दो अक्षरों के लिए भी तीनों झगड़ने लगे कि हमको दो।
शंकर दादा ने अन्त में कहा- ‘ये दो अक्षर अब मुझे किसी को देने नहीं। ये दो अक्षर मैं अपने कण्ठ में ही रखूँगा।’
ये दो अक्षर ही ‘रा….म’ नाम है। सब वेदों का सार है। अति सरल हैं, बहुत मधुर हैं। राम नाम में अमृत से भी अधिक मिठास है। यह तो जो रामनामामृत में का पान करता है, उसी को खबर पड़ती है।
शिवजी ने कहा, यह राम-नाम मैं किसी को दूंगा नहीं। मैं कण्ठ में धारण करूँगा। शिवजी के कण्ठ में राम-नाम है। इसलिए शिवजी विष पी गये। वह विष भी अमृत बन गया।
नाम प्रभाव जान सिव नीको। कालकूट फल दीन्ह अमी को॥
जो संसार में आता है, उसको जहर तो पीना ही पड़ता है। तुम्हारा पुत्र तुम्हारा कहा न करे और सामने उत्तर दे तो तुमको जहर-जैसा लगेगा। प्रतिकूल परिस्थिति ही जहर है।
तुम्हारी कोई निन्दा करे तो तुमको जहर जैसा लगेगा। संसार में निन्दा, व्याधि, अपमान इत्यादि जहर हैं। जब-जब जीवन में दुःख आये, जहर पीने का प्रसंग आये तब-तब राम-नामामृतका पान करना, राम नाम का जप करना, जिससे जहर भी अमृत बन जायेगा।
भगवान् शंकर तो हर समय राम-नाम कण्ठ में रखते हैं-‘राम राम राम’ करते हैं। तुम राम-राम नहीं अपितु श्रीराम- श्रीराम इस तरह श्री के साथ राम नाम लेना।
शंकर दादा को तो लक्ष्मी की जरूरत नहीं है, इसलिए श्री को छोड़ कर अकेले राम-नाम को पकड़ रखा है, परन्तु हमें तो लक्ष्मी की बहुत जरूरत रहती है, इसलिये हमें केवल राम-राम न करके श्रीराम-श्रीराम रटना चाहिये।
श्री शब्द का अर्थ होता है लक्ष्मी, श्री शब्द का अर्थ होता है, श्रीसीताजी। राम-नाम में दिव्य शक्ति है। राम नाम की महिमा कौन वर्णन कर सकता है?
श्रीराम-नाम जपतां सबु कष्ट जाय। श्रीराम-नाम भजतां सुख सर्वथाय॥॥
परमात्मा के नाम के साथ प्रीति करोगे तो धीरे-धीरे जीवन सुधरेगा। मन को शान्ति मिलेगी, तुम्हारा कल्याण होगा। परमात्मा के नाम में प्रीति न हो, तब तक संसार की आसक्ति छूटती नहीं, संसार का मोह छूटता नहीं।
प्रभु के नाम में सतत रचे-पचे रहो। नाम जहाँ है, वहाँ किसी न किसी दिवस स्वरूप भी प्रकट होगा। संसार में रहकर मन की पवित्रता जाननी हो तो परमात्मा के साथ प्रीति करो।