तुलसी चालीसा
तुलसी को एक पौधे पौधे के रूप में पूजा जाता है ।पूर्व जन्म में तुलसी एक कन्या थी ।जिसका नाम वृंदा था। राक्षस कुल में उनका जन्म हुआ था ।वृंदा बचपन से ही भगवान विष्णु की भगत थी।
जब वह बड़ी हुई तो उसका विवाह राक्षस राज जालंधर से हुआ। वृंदा पतिव्रता स्त्री थी। जब राक्षस राज जालंधर देवताओं से युद्ध करने के लिए जाने लगे तो वृंदा ने संकल्प लिया कि जब तक वह व्रत और भगवान की पूजा करती रहेगी जब तक आप युद्ध लड़ते रहेंगे इसी प्रकार वृंदा यह संकल्प लेकर भगवान के मूर्ति के सामने पूजा करने बैठ गई।
दूसरी और जालंधर राक्षसों का देवताओं के साथ युद्ध चल रहा था। देवताओं में हारी जा रहे थे तो उन्होंने भगवान विष्णु का स्मरण किया।
भगवान विष्णु जी राक्षस राज जालंधर का रूप लेकर वृंदा के पास गए ।यह देखकर वृंदा अपने संकल्प से उठ गई और अपने पति जालंधर को देख कर खुश होने लगी।
तभी उधर तभी देवताओं ने राक्षस राज जालंधर का सिर उतार दिया और वह वृंदा के कक्ष के बाहर आ गिरा। जिसे देख कर वृदां ने जो उसके पास खड़े थे पूछा कि तुम कौन हो।
तब वह विष्णु जी अपने असली रूप में प्रकट हो गए तब फिर वह सारी बात समझ गई और फिर उसने विष्णु जी को शालिग्राम पत्थर होने का श्राप दे दिया ।और वृदां खुद जालंधर राक्षस का सिर अपनी गोदी में लेकर सती हो गई।
सती होने के बाद उसकी राख में से पौधा निकला वह तुलसी माता के नाम से प्रसिद्ध हुआ और भगवान विष्णु ने यह भी उनको वरदान दिया कि कार्तिक शुक्ल पक्ष में की एकादशी को शालिग्राम और तुलसी का विवाह होगा । मेरा हर भोग तुलसी के साथ ही स्वीकार होगा।
चालीसा
तुलसी चालीसा एक भक्ति गीत है जो तुलसी माता पर आधारित है। तुलसी चालीसा एक लोकप्रिय प्रार्थना है जो 40 छन्दों से बनी है।
॥ दोहा ॥
जय जय तुलसी भगवती, सत्यवती सुखदानी। नमो नमो हरि प्रेयसी, श्री वृन्दा गुन खानी ॥
श्री हरि शीश बिरजिनी ,देहु अमर वर अम्ब। जनहित हे वृन्दावनी,अब न करहु विलम्ब ॥
॥ चौपाई ॥
धन्य धन्य श्री तलसी माता। महिमा अगम सदा श्रुति गाता ॥
हरि के प्राणहु से तुम प्यारी । हरीहीँ हेतु कीन्हो तप भारी॥
जब प्रसन्न है दर्शन दीन्ह्यो । तब कर जोरी विनय उस कीन्ह्यो ॥
हे भगवन्त कन्त मम होहू । दीन जानी जनि छाडाछोहु ॥
सुनी लक्ष्मी तुलसी की बानी । दीन्हो श्राप कध पर आनी ॥
उस अयोग्य वर मांगन हारी। होहू विटप तुम जड़ तनु धारी ॥
सुनी तुलसी हीँ श्रप्यो तेहिं ठामा । करहु वास तुहूनीचन धामा ॥
दियो वचन हरि तब तत्काला सुनहु सुमुखी जनि होहू बिहाला ॥
समय पाई व्हौ रौ पाती तोरा । पुजिहौ आस वचन सत मोरा॥
तब गोकुल मह गोप सुदामा । तासु भई तुलसी तूबामा॥
कृष्ण रास लीला के माही। राधे शक्यो प्रेम लखी नाही ॥
दियो श्राप तुलसिह तत्काला। नर लोकही तुम जन्महु बाला॥
यो गोप वह दानव राजा । शङ्ख चुड नामक शिर ताजा ॥
तुलसी भई तासु की नारी। परम सती गुण रूप अगारी ॥
अस द्वै कल्प बीत जब गयऊ। कल्प तृतीय जन्म तब भयऊ॥
वृन्दा नाम भयो तुलसी को। असुर जलन्धर नाम पति को ॥
करि अति द्वन्द अतुल बलधामा । लीन्हा शंकर से संग्राम॥
जब निज सैन्य सहित शिव हारे । मरही न तब हर हरिही पुकारे॥
पतिव्रता वृन्दा थी नारी। कोऊ न सके पतिहि संहारी॥
तब जलन्धर ही भेष बनाई । वृन्दा ढिग हरि पहुच्यो जाई॥
शिव हित लही करि कपट प्रसंगा । कियो सतीत्व धर्म तोही भंगा ॥
भयो जलन्धर कर संहारा। सुनी उर शोक उपारा ॥
तिही क्षण दियो कपट हरि टारी । लखी वृन्दा दुःख गिरा उचारी ॥
जलन्धर जस हत्यो अभीता। सोई रावन तस हरिही सीता ॥
अस प्रस्तर सम ह्रदय तुम्हारा । धर्म खण्डी मम पतिहि संहारा॥
यही कारण लही श्राप हमारा। होवे तनु पाषाण तुम्हारा॥
सुनी हरि तुरतहि वचन उचारे। दियो श्राप बिना विचारे ॥
लख्यो न निज करतूती पति को । छलन चह्यो जब पारवती को ॥
जड़मति तुहु अस हो जड़रूपा। जग मह तुलसी विटप अनूपा॥
धग्व रूप हम शालिग्रामा । नदी गण्डकी बीच ललामा॥
जो तुलसी दल हमही चढ़ इहैं। सब सुख भोगी परम पद पईहै॥
बिनु तुलसी हरि जलत शरीरा। अतिशय उठत शीश उर पीरा ॥
जो तुलसी दल हरि शिर धारत। सो सहस्त्र घटअमृत डारत॥
तुलसी हरि मन रञ्जनी हारी। रोग दोष दुःख भंजनी हारी॥
प्रेम सहित हरि भजन निरन्तर । तुलसी राधा में नाही अन्तर॥
व्यन्जन हो छप्पनहु प्रकारा । बिनु तुलसी दल न हरीहि प्यारा॥
सकल तीर्थ तुलसी तरु छाही । लहत मुक्ति जन संशय नाही ॥
कवि सुन्दर इक हरि गुण गावत । तुलसिहि निकट सहसगुण पावत॥
बसत निकट दुर्बासा धामा।जो प्रयास ते पूर्व ललामा॥
पाठ करहि जो नित नर नारी । होही सुख भाषहि त्रिपुरारी॥
॥ दोहा ॥
तुलसी चालीसा पढ़ही, तुलसी तरु ग्रह धारी। दीपदान करि पुत्र फल, पावही बन्ध्यहु नारी ॥
सकल दुःख दरिद्र हरि,हार है परम प्रसन्न । आशिय धन जन लड़हि, ग्रह बसही पूर्णा अत्र ॥
लाही अभिमत फल जगत, मह लाही पूर्ण सब काम।
जेई दल अर्पही तुलसी तह, सहस बसही हरीराम ॥
तुलसी महिमा नाम लख,तुलसी सूत सुखराम। मानस चालीस रच्यो,जग महं तुलसीदास ॥