सत्ताईसवाँ अध्याय कार्तिक माहात्म्य
इस प्रकार वह राक्षस और पिशाचिनी दोनों घूमते-फिरते नर्मदा नदी के किनारे एक वट वृक्ष के नीचे आकर ठहरे।
उस वट वृक्ष पर गुरु का निन्दक एक ब्रह्मराक्षस रहता था। उन दोनों को वहाँ पर आया हुआ देखकर वह कहने लगा कि अरे तुम कौन हो,
और किस पाप से इस दशा को प्राप्त हुए हो ? तब राजा ने अपना और पिशाचिनी का सारा वृत्तान्त सुनाकर कहा कि अब आप अपना वृत्तान्त कहिये।
क्योंकि हम और आप आपस में आज से मित्र हो गए हैं इसलिए मित्र से कुछ भी छुपाना नहीं चाहिए।
जो मित्र से छल कपट करता है वह पाप का भागी होता है, इसलिये अब आप भी अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त हमें सुनाइये। तब ब्रह्मराक्षस कहने लगा कि हे मित्र!
मैं मगध देश में प्रवीण सोमदत्त नाम वाला ब्राह्मण था । मैंने मद में आकर अपने को बड़ा भारी विद्वान् मानकर गुरु का अपमान किया।
उसी पाप के कारण मैं इस दशा को प्राप्त हुआ हैं। मैंने इस योनि में आकर भूख से दुःखित हो अनेक ब्राह्मण खा डाले हैं।
गुरु के अपमान के कारण ब्रह्मराक्षस की योनि प्राप्त होती है, यह मैंने भली प्रकार जान लिया है। तब कल्माषपाद ने पूछा कि हे मित्र!
गुरु की कोटि में कौन-कौन आते हैं? यह सुन सोमदत्त ने कहा- वेदों को पढ़ाने वाला, सुनाने वाला, नीतिशास्त्र तथा वेदों की व्याख्या करने वाला, •
वेदों के सन्देह को दूर करने वाला, भय से रक्षा करने वाला, अन्नदाता, शिक्षा देने वाला, बुरे कामों से रोकने वाला, अन् श्वसुर, मामा,
पिता, ज्येष्ठ भ्राता (बड़ा भाई), गर्भ से मि मरणपर्यन्त संस्कार कराने वाला तथा राजा इन सबकी गुरु क संज्ञा है। अतएव इन सबकी वन्दना करनी चाहिए।
तब पुनः द कल्माषपाद पूछने लगा कि तुमने अनेक गुरु कहे। इनमें से कोई बड़ा भी है या सब बराबर हैं? सोमदत्त कहने लगा कि हे मित्र!
यद्यपि हम राक्षस हैं, साथ ही भूख और प्यास से दुःखित भी हैं, मगर गुरु महिमा का वर्णन करने से निश्चय ही कल्याण होता है ।
यद्यपि सब गुरु बराबर हैं, फिर भी इस सम्बन्ध में शास्त्रों की व्याख्या सुनो। वेद तथा मंत्रों का उपदेश करने वाला, धर्म शास्त्र तथा पुराणों की व्याख्या व उपदेश करने वाला ये विशेष गुरु हैं।
इनमें से प्रमुख गुरु वह है जो देव पूजन करावे, देव पूजा का फल बतलावे अथवा गुप्त मन्त्र का उपदेश दे।
हमने गौतम ऋषि से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के देने वाले सब पुराण सुने हैं।
एक समय मैं महादेवजी का पूजन कर रहा था, उसी समय श्री गौतमजी वहाँ पर आ गए।
मैंने खड़े होकर उनको प्रणाम नहीं किया, वरन् पूजा में ही लगा रहा। तब महादेवजी ने हमको गुरु का अपमान करने के दोष में ब्रह्मराक्षस बना दिया।
उसी पाप के कारण मेरा अन्तःकरण जला जाता है। न जाने इस दुःख से कब मुक्ति मिलेगी।
सूतजी कहते हैं, हे ऋषियो ! इस प्रकार गुरु महिमा का वर्णन करने से उनके सब पाप नष्ट हो गए।
इतने में उन्होंने दूर से आते हुए गर्ग मुनि को देखा, तो दोनों राक्षस तथा पिशाचिनी अपने दोनों हाथ उठाकर उनकी ओर भागे कि हमारा भोजन आ गया।
परन्तु फिर गर्गजी के कहे हुए वचनों को याद करके उनके निकट न जाकर दूर से ही पिशाचिनी कहने लगी कि हे महात्मन्!
आपको नमस्कार है। हमने कितने ही ब्राह्मण खा डाले हैं परन्तु आप महादेवजी के नाम से सुरक्षित हैं।
तब गर्ग मुनि ने तुलसीदल युक्त गंगाजल से उनका अभिषेक किया। अभिषेक होते ही वे राक्षस देह से मुक्त होकर देवरूप हो गए।
पुत्र युक्त ब्राह्मणी और सोमदत्त विष्णु रूप (शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी) होकर गर्गजी की स्तुति करते हए विष्णु लोक को चले गए और कल्माषपाद अपने रूप को प्राप्त होकर सोच में पड़ गया।
उसको इस प्रकार सोच में पड़े देखकर गुप्त रूप सरस्वती बोलीं कि हे राजन्! तुम सोच में मत पड़ो।
राज्य सुख भोगने के बाद अन्त में तुम भी विष्णु लोक को प्राप्त हो जाओगे । इन वचनों को सुनकर राजा आनन्दित हो गया।
तत्पश्चात् उसने अपने गुरु का स्मरण किया और गर्ग ऋषि को प्रणाम करके श्री गंगा की स्तुति की, फिर विष्णु का स्मरण करता हुआ काशी को चला गया।
छः मास तक काशीजी, गंगा और विश्वेश्वर महादेव के दर्शन करता हुआ अति आनन्द के साथ अपने राज्य में आया। तब गुरुजी ने उसका अभिषेक किया।
तत्पश्चात अनेक भोगों को भोग कर अन्तकाल में मोक्ष को प्राप्त हुआ। सूतजी ऋषियों से कहते हैं कि इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं,
भगवान् का गुणगान करने तथा काशी के सेवन से मनुष्य को अवश्यमेव मोक्ष प्राप्त हो जाता है। गंगा के स्नान से मनुष्यों के करोड़ों जन्म के पाप दूर हो जाते हैं।