वैष्णो देवी का अवतार कैसे हुआ ?
वैष्णो देवी का अवतार – देश में विपरीत परिस्थितियां होने पर समय-समय पर महाशक्ति ने भिन्न-भिन्न रूप धारण कर, दुष्टों का नाश कर भक्तों की रक्षा की है।
देवताओं के एकत्रित तेज समूह से उत्पन्न महाशक्ति ने कालान्तर में महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप धारण किए। यह दिनों रूप की रज, तम एवं सात्विक गुणों के प्रतीक हैं।
त्रेतायुग में जब पृथ्वी पर रावण, खरदूषण, त्रिशिरा, ताड़का आदि राक्षसों ने अपने अत्याचारों से धर्मात्मा, साधु सन्तजनों का जीना दुर्लभ कर दिया था तथा सर्वत्र आसुरों व आसुरी प्रवृतियों का बोलबाला था।
उस समय भगवती महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती, सावित्री एवं गायत्री आदि महाशक्तियों के स्थान पर एकत्र होकर पृथ्वी पर धर्म रक्षा के लिए अपने सम्मिलित तेज से एक दिव्य शक्ति को जन्म देने का निश्चिय किया।
फलस्वरूप उसी समय इन सभी देवियों के शरीर से तेज की एक-एक किरण ने निकलकर संयुक्त हो,एक सुन्दर दिव्य बालिका का स्वरूप धारण कर लिया।
उस दिव्य बालिका ने प्रकट होकर महाशक्तियों पूछा- ‘आपने मुझे किस लिए उत्पन्न किया है। से मेरा क्या नाम है और मुझे क्या करना है।
यह सुनकर महादेवियों ने उस दिव्य बालिका से कहा- ‘हे कन्या ! तुम्हारा नाम ‘वैष्णवी’ है।
पृथ्वी पर धर्म की रक्षा के उद्देश्य से हमने तुम्हें प्रकट किया है। अब तुम दक्षिणी भारत में ‘रत्नाकर सागर’ के घर में पुत्री बनकर प्रकट होओ।
वहां तुम विष्णु के अवतार भगवान रामचन्द्र की शक्ति सीता के अंश से उत्पन्न होओगी। तत्पश्चात् तुम अपनी प्रेरणा के अनुसार सब कार्यों को करना ।
इस घटना के कुछ समय पश्चात् उस कन्या ने रत्नाकर सागर के घर जन्म लिया। वहां उसका नाम ‘वैष्णवी’ रखा गया।
वैष्णवी के अल्प आयु में ही अपने रूप, गुण तथा आलौकिक शक्तियों से सब लोगों को चमत्कृत करना आरम्भ कर दिया। कुछ ही दिनों में उस दिव्य की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई तथा सहस्रं युक्त व्यक्ति रत्नाकर सागर के यहां उस कन्या के दर्शनों के लिए आने लगे।
कुछ समय के बाद वह दिव्य कन्या अपने पिता से आज्ञा प्राप्तकर, समुद्र तट के निर्जन प्रान्त में कुटी बनाकर रहने लगी। वहां हर समय श्रीरामचन्द्र जी का ध्यान व स्मरण करना ही उसका मुख्य कार्य था।
उसकी तपस्या को देखकर सूर्य नारायण ने उसे एक दिव्य कमण्डल भेंट किया।
जब भगवान् विष्णु ने रामचन्द्र के रूप में अयोध्या में अवतार लिया और वह अपने पिता दशरथ की आज्ञा से बनवासी हुए, उस समय वह कन्या वैष्णवी समुद्रतट पर अपनी कुटिया में समाधि लगाये हुए श्री रामचन्द्र जी के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी।
रावण के द्वारा सीता का हरण कर लिए जाने पर रामचन्द्रा जी, वानर, भालुओं की सेना को लिए समुद्र तट पहुँचे तो वहां उस समाधिमान कन्या को भी देखा।
श्री रामचन्द्र जी उसकी कुटिया में गये। रामचन्द्र जी के पहुँचने से वैष्णवी की समाधि भंग हो गई। रामचन्द्र जी को अपने सामने देखकर उसे अत्यन्त प्रसन्नता हुई। विधिवत् स्वागत सत्कार करने के उपरान्त रामचन्द्र जी कि स्तुति प्रार्थना की।
जब रामचन्द्रजी ने उस कन्या से तपस्या करने का कारण तथा परिचय पूछा तो उसने उत्तर दिया-हे प्रभु ! मैं रत्नाकर सागर की पुत्री ‘वैष्णवी’ हूँ, मैंने आपको पति के रूप में प्राप्त करने का संकल्प किया है, इसलिए मैं इतने दिनों से तपस्या कर रही थी। अब कृपा करके मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करें।
यह सुनकर रामचन्द्रजी ने कहा- ‘हे सुन्दरी ! आपने इस युग में मैंने एक पत्नी व्रती होने का संकल्प किया है, इस तपस्या का फल तुम्हें प्राप्त होगा, अतः मैं यह शर्त रखना चाहता हूँ कि रावण का वध करने के उपरांत किसी दिन तुम्हारी इसी कुटिया पर वेश बदलकर आऊंगा उस समय यदि तुम मुझे पहचान लोगी तो मैं तुम्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लूँगा अन्यथा जो देव की इच्छा।
कहते हैं लंका से अयोध्या लौटते समय भगवान् एक वृद्ध साधु का रूप धरकर कन्या के पास गए किन्तु वह उन्हें नहीं पहचान सकी तो भगवान् ने कन्या को यह आश्वासन दिया कि कलियुग में कल्की अवतार में तुम मेरी सहचारी बनोगी, उस समय तक तुम उत्तर भारत के मणिक पर्वत पर स्थित त्रिकूट पर्वत की सुन्दर गुफा में जहां तीन महाशक्तियों का निवास है, तपस्या में मग्न रहो।
वहाँ पर तुम अमर हो जाओंगी लांगुर वीर तुम्हारे प्रहरी रहेंगे। समस्त भूमण्डल पर तुम्हारी महिमा फैलेगी और तुम वैष्णव देवी के नाम से प्रसिद्ध होओगी।
विश्वास किया जाता है कि तभी से रत्नाकर सागर की पुत्री कुंवारी कन्या वैष्णवी जो देवियों के पुण्य आशीर्वाद से प्राप्त हुई, त्रेतायुग से सुंदर गुफा विराजमान है। जिसके विषय में प्राचीन कथाओं के आधार से लिया जा सकता है। युग बदलते गए माता अपनी लीला समय-समय पर करती रहीं और न जाने कितनी ही अन्य कथाओं का जन्म हुआ।