भक्त श्रीधर की कथा
भक्त श्रीधर की कथा
कहा जाता है लगभग सात सौ वर्ष पहले माता के परम भक्त श्रीधर जी हुए जो कटरा से लगभग दो किलो मीटर की दूरी पर बसे हंसाली नामक गांव में रहते थे।
वे नित्य नियम से कन्या पूजन किया करते थे। संतान न होने के कारण वह बहुत दुःखी रहते थे। अतः संतान प्राप्ति की कामना से भगवती दुर्गा का पूजन भी करने लगे।
लंबे समय तक देवी का पूजन और कन्याओं को भोजन कराते रहने पर भी जब उनके कोई संतान न हुई तो एक दिन उन्होंने यह प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक मां भगवती स्वयं आकर उन्हें भोजन न करायेंगी वह भूखे ही रहेंगे।
अपने भक्त की ऐसी कठोर प्रतिज्ञा देखकर माता का हृदय पिघल गया और भक्त जी कोदर्शन देने का विचार करके मां एक दिन कन्या का रूप धरकर अन्य कन्याओं के साथ बैठ गई।
अन्य सभी कन्यायें हर रोज की भाँति चली गई लेकिनवह कन्या रूपी भगवती वहीं बैठी रही, उसे बैठी देखकर श्रीधर जी पहले तुम भोजन कर लो फिर में तुम्हें अपना परिचय दूँगी। श्रीधर ने कहा ‘मैंने यह प्रतिज्ञा की है कि जब तक स्वयं माता आकर मुझे भोजन न करायेंगी, मैं भोजन नहीं करूँगा।
अबकी बार दिव्य स्वरूप कन्या का उत्तर था कि वह ही भगवती दुर्गा है। उनकी तपस्या से खुश होकर की कन्या का रूप धरकर आई है। अब प्रसन्न हो जाओ मैं तुमको अपने हाथों से भोजन कराऊँगी।
भोजन कराने के बाद कन्या ने कहा- हे भक्त जी यहां समीप ही त्रिकुट पर्वत की गुफा में मेरा निवास है। श्रीदुर्गा जी के अन्य स्वयुप वैष्णव रूप में मैं तपस्या करती हूँ।
कई शताब्दियों से गुफा का भाग ठीक न होने के कारण भक्त मेरा दर्शन नहीं कर पाते। अतः अबकी बार तुम ही इस सेवा को करो और अन्य भक्तों को मेरे निवास से परिचय कराओ। तुम्हारा वंश सदा ही मेरी आराधना करता रहेगा।
इस कथा का एक रूप इस प्रकार भी है कि भक्त श्रीधर की सच्ची उपासना और अडिग विश्वास को देखकर मां वैष्णों को स्वयं एक दिन कन्या का रूप धारण करके आना पड़ा। भक्त जी कन्या का पूजन की तैयारी कर रहे थे, छोटी-2 कन्यायें उपस्थित थीं।
उन्हीं में मां वैष्णवों भी कन्या बनकर आ गई। नियम के अनुसार पांव धोकर भोजन परोसते समय श्रीधर जी की दृष्टि उस महादिव्यरुपी कन्या पर पड़ी भक्त जी विस्मय में डूब गये क्योंकि यह कन्या उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी।
अन्य सभी कन्यायें तो दक्षिणा पाने के बाद वहां से चली गई परन्तु वह महाकन्या रूपी वहीं 2 बैठी रही, श्रीधर जी इससे पहले कुछ पूछते वह कन्या रुपी महाशक्ति स्वयं ही बोली- मैं तुम्हारे पास एक काम से आई हूँ छोटी-सी कन्या के मुख से ऐसी विचित्र बात सुनकर भक्त जी बहुत हैरान हुए।
कन्या ने कहा कि अपने गांव में और आस-पास यह संदेश दे आओ कि कल दोपहर आपके यहां एक महान् भंडारे का आयोजन है। इतना कहकर वह कन्या लोप हो गई। श्रीधर जी विचारों में डूब गए।
आखिर वह कन्या कौन थी? परन्तु भंडारे वाली समस्या ने भक्तजी को परेशान कर दिया।अन्त में वह कन्या की आज्ञा को ही मानते हुए समीपवर्ती गांवों में भण्डारे का निमन्त्रण देने निकल पड़े।
श्रीधर जी भण्डारे का निमंत्रण देने एक गांव से दूसरे गांव जा रहे थे तो मार्ग में साधुओं के एक के दृश्य को देखकर उन्होंने प्रणाम कर अपने यहां होने वाले भण्डारे पर पधारने को कहा।
दल के मुखिया गोरखनाथ जी भक्त का नाम पूछकर बोले-श्रीधर तुम मुझे भैरव नाथ और अन्य 360 चेलों को निमंत्रण देने में भूल कर रहे हो हमें तो देवराज इन्द्र जी भोजन न दे सके।
इस पर श्रीधर ने उन्हें कन्या के आगमन की कथा सुनाई। गुरु गोरखनाथ जी ने विचार किया कि ऐसी कौन-सी कन्या है जो सबको भोजन खिला सकती है। परीक्षा करके देखनी चाहिए और उन्होंने भक्त जी का निमंत्रण स्वीकार कर लिया।
भण्डारे के दिन श्रीधर जी को तो होश ही न था कि प्रबन्ध कैसे हो और भीड़ इकट्ठी होने लगी। गोरखनाथ व भैरोनाथ जी अपने-2 चेलों सहित आ पहुँचे। भक्त जी के सम्मुख आकर यह दिव्या कन्या बोली अब सब चिंताए छोड़िए, सब प्रबंध हो चुका है जोगियों से चलकर कहिए कि कुटिया में बैठकर भोजन करें।
श्रीधर जी उत्साह से गुरुजी के पास जाकर बोले-चलिए कुटिया में बैठकर भोजन कीजिए। इस पर गुरुजी ने कहा कि हम सब तो कुटिया में नहीं आ सकते क्योंकि उसमें स्थान ही बहुत कम हैं। श्रीधर जी ने कहा जोगीनाथ कन्या ने ऐसा ही कहा है।
जिस समय जोगी कुटिया में गए तो सबके अवश्य को सब आराम से बैठ गए और स्थान फिर भी बच इसका पता गया। कन्या ने विचित्र पात्र से निकाल सबको इच्छा हुई सबको अनुसार भोजन देना आरम्भ कर दिया तो आश्चर्य लेकिन मुझ की सीमा न रही। सबके सब देखते रह गए। यह देखकर श्रीधर जी प्रसन्न हो गए।
भण्डारे के समय गुरु गोरखनाथ और भैरवनाथ ने परस्पर विचार-विमर्श किया कि यह कन्या अवश्य कोई शक्ति है। यह वास्तव में कौन है। इसका पता लगाना चाहिए। सबको भोजन परोसती हुई सबको उनकी इच्छानुसार भोजन दे रही है लेकिन मुझको नहीं दे सकती।
‘बोलो जोगीनाथ तुमको क्या चाहिए?” कन्या ने पूछा-भैरों ने देवी से मांस और मदिरा मांगी तो कन्या ने उसे आदेश के स्वर में कहा- यह एक ब्राह्मण के घर का भंडारा है और जो कुछ वैष्णव भण्डारे में होता है वही मिलेगा।
भैरव हठ करने लगा क्योंकि उसने तो कन्या की परीक्षा लेनी थी। लेकिन भैरवनाथ के मन की बात भी देवी पहल ही जानती थी। ज्यों ही भैरवनाथ ने क्रोध से कन्या को पकड़ना चाहा वह कन्या रुपी महाशक्ति लोप हो गई। भैरवनाथ ने भी उसी समय से उसकी खोज और पीछा करना आरम्भ कर दिया।
देवी कन्या आगे बढ़ती रही- भैरव पीछा करता रहा। गुफा के द्वार पर देवी ने वीर लांगूर को प्रहरी बनाकर खड़ा कर दिया और भैरव को अन्दर आने से रोकने के लिए कहा।
कन्या गुफा में प्रवेश कर गई तो भैरव भी घुसने लगा। वीर लांगूर के साथ भैरव का युद्ध हुआ। शक्ति ने चंडी का रूप धारण कर भैरव का वध कर दिया। धड़ वही फिर गुफा के पास तथा सिर भैरों घाटी में जा गिरा। जिस स्थान पर भैरों का सिर गिरा था, उसी जगह भैरव मन्दिर का निर्माण हुआ है।
सिर धड़ से अलग होने पर भैरव की आवाज आई- हे आदिशक्ति ! कल्याणकारिणी माँ! मुझे मरने का कोई दुःख नहीं, क्योंकि मेरी मृत्यु जगत रचयिता माँ के हाथ हुई है। सो हे मातेश्वरी! मुझे क्षमा कर देना।
मैं तुम्हारे इस रूप से परिचित न था। माँ अगर तूने मुझे क्षमा न किया तो आने वाला युग मुझे पापी की दृष्टि से देखेगा और लोग मेरे नाम से घृणा करेंगे। माता न हो कुमाता भैरव के मुख से बारम्बार माँ शब्द सुनकर जगकल्याणी मातेश्वरी ने उसे वरदान दिया कि मेरी पूजा के बाद तेरी पूजा होगी तथा तू मोक्ष का अधिकारी होगा।
मेरे श्रद्धालु मेरे दर्शनों के पश्चात तेरे दर्शन किया करेंगे। तेरे स्थान का दर्शन करने वालों की भी मनोकामना पूर्ण होगी। इसी कथा के अनुसार यात्री दरबार के दर्शन के बाद वापिसी में भैरों मन्दिर के दर्शन के लिए जाते हैं।