सावन माह
सृष्टि के कण-कण में त्रिदेव शिव शंकर का निवास है। महाधिदेव निराकार रूप में जगत का कल्याण करते हैं तथा साकार रूप में सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिए विभिन्न अवतार धारण करते हैं।
सदाशिव भगवान शंकर कल्याण के देवाधिदेव हैं। जो भक्त भगवान शिव की शरण में जाते हैं उनका कल्याण निश्चित है। वैसे तो भगवान शंकर की उपासना हर पल, हर दिन, हर माह ही फलदायक है परन्तु श्रावण यानी सावन का महीना भगवान शिव को अति प्रिय है।
कलियुग में सर्वाधिक पूजित भगवान शंकर की आराधना एवं शिवालयों में हर हिन्दू अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने अवश्य जाता है। बहुत सारे शिव भक्त सावन के माह में कांवड़ चढ़ाने के लिए गंगा मैया का जल लेने हेतु पैदल यात्रा करते हैं।
सावन माह में शिव आराधना
‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र के साथ सावन के सोमवार को व्रत एकाहार के संकल्प के साथ पूर्ण किया जा सकता है। एक से पांच माला का जाप करना लाभप्रद रहता है। शंकर भगवान की रुद्र रूप पूजा के लिए शिवलिंग को काले तिलों से प्रतिदिन स्नान कराया जा सकता है। अखंड ज्योति भी जलाकर रखना अति लाभदायक है। कल्याणकारी शिव का पूजन चावल से करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। भोले भंडारी का तन-मन से जलाभिषेक कर श्रद्धापूर्वक एवं भावपूर्ण अर्चना करने से दयालु शिव अपने भक्तों का सदैव कल्याण करते हैं। सावन माह में तामसिक भोजन का परित्याग कर जो शिव भक्त भगवान शिव का भजन करते हैं, वे सब बंधनों से मुक्त हो जाते हैं। जो धीर पुरुष काम योग से विरक्त होकर भगवान शंकर की भक्ति करते हैं उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाता है।
कांवड़ चढ़ाने का इतिहास
समुद्र मंथन के समय सबसे पहले समुद्र से हलाहल विष प्रकट हुआ। उस विष की भयंकर गर्मी से देवता, दैत्य और सारा संसार व्याकुल हो उठा। तब भगवान विष्णु की प्रेरणा से भगवान शिव ने हलाहल विष पी लिया, परन्तु उन्होंने उस विष को कण्ठ में ही धारण कर लिया। इससे उनका कण्ठ नीले रंग का हो गया।
तभी से भगवान शिव नीलकण्ठ कहलाए। विष की गर्मी के प्रभाव के कारण वे तीनों लोकों की परिक्रमा करने लगे और राम-राम नाम के स्थान पर उनके मुख से बम-बम निकलने लगा।
तब देवताओं ने विष की गर्मी को शांत करने के लिए भगवान शिव के मस्तक पर बहुत-सा जल चढ़ाया और कालान्तर में गंगा जी की स्थापना उनके मस्तक पर की गई। उसी समय से भगवान शिव पर जल चढ़ाने की परम्परा चल पड़ी।
पौराणिक कथा के अनुसार रावण के साथ युद्ध पर जाने से पहले श्रीरामेश्वरम् की स्थापना एवं प्राण प्रतिष्ठा से पहले भगवान श्रीराम ने अपने दूतों से सात पावन नदियों का जल मंगवाया ताकि भगवान आशुतोष का रुद्राभिषेक किया जा सके।
कालान्तर में भगवान शिव के भक्तजन भागीरथी का जल (गंगा जल) कांवड़ में भरकर पैदल लाकर आशुतोष भगवान शिव को अर्पित करने लगे और यह परम्परा चल पड़ी जो आज तक चल रही है।
संयम का पाठ पढ़ाए सावन
भगवान शिव जब ध्यान मुद्रा में बैठे थे तब कामदेव को अन्य देवताओं ने भगवान का ध्यान भंग करने को भेजा। कामदेव ने काफी प्रयत्न किए लेकिन भगवान शिव अपनी तपस्या में ही लीन रहे।
कुछ समय उपरांत जब भगवान ने अपनी आंखें खोलीं व ध्यान अवस्था त्यागी तो सामने कामदेव को खड़े पाया। भगवान ने कामदेव को उसकी उद्दंडता की सजा देते हुए उसे भस्म कर दिया। यह समाचार कामदेव की पत्नी रति को मिला तो वह विलाप करती हुई भगवान के पास पहुंचीं।
रति ने अपने पति को निर्दोष बताते हुए भगवान से प्रार्थना की कि देवताओं के कहने पर ही कामदेव यह कार्य करने आए थे। रति ने भगवान से निवेदन हुए कहा कि सभी देवता ताड़कासुर से भयभीत और पीड़ित थे।
ताड़कासुर को वरदान प्राप्त है कि वह आपके शुक्र से उत्पन्न पुत्र द्वारा ही मारा जाएगा इसलिए देवताओं की इच्छा है कि यदि आप पार्वती से शादी कर लें तो इस समस्या का समाधान हो सकता है।
रति की प्रार्थना से द्रवित होकर भगवान शिव ने कामदेव को जीवित कर दिया लेकिन उसको बस में करने का अधिकार तीसरे नेत्र को दिया। तभी से काम का वास नेत्रों में होने लगा। काम का अंत भी तीसरे नेत्र से होता है। सावन का महीना इसी तीसरे नेत्र की ओर इशारा करता है और आध्यात्मिकता की पहचान कराता है लेकिन साथ ही साथ धैर्य और संयम का पाठ भी पढ़ाता है।