तीसरा अध्याय माघ महात्म्यराजा ने कहा- हे ब्राह्मण! भृगु ऋषि ने मणि पर्वत पर विद्याधरों को क्या उपदेश दिया था ? उन सबको जानने की मेरी बड़ी इच्छा है, सो कृपा कर मुझे सुनाये। वशिष्ठ जी बोले- हे राजन् !
एक समय बारह वर्ष तक वर्षा न होने से व सूखा के कारण प्रजा त्राहि-त्राहि करने लगी। तप और वेद पाठ भी रुक गये। पृथ्वी पर फल, फूल, अन्न और जल का पूरी तरह अभाव हो गया। तब भृगु जो अपने आश्रम को त्यागकर अपने शिष्यों के साथ हिमालय पर्वत पर चले गये।
वहाँ कैलाश पर्वत के पश्चिम की ओर मणि पर्वत के नीचे के भाग में स्फटिक शिलायें हैं, मध्य की शिलायें नीलकण्ठ पक्षी के समान हैं । अपने एक ऐश्वर्य के कारण यह शुक्ल नीलकण्ठ की भांति शोभायमान था। उसके नीचे स्वर्ग मेखला थी इस छवि के कारण वह पीताम्बरधारी कृष्ण की तरह शोभित होता था। उसमें से एक दिव्य ज्योति निकलकर आस-पास के वातावरण को शोभायमान करती रहती थी।
पर्वत की कन्दराओं से किन्नरियां तान उड़ाती घूमती रहती थी। सूर्य की किरणें पड़ने पर पर्वत की शिलाओं से इन्द्र धनुष के रंग की किरणें दिखाई देती थी। इस मनोहर छवि वाले पर्वत के निचले भाग में विद्याधर अपनी पत्नियों के साथ मृदु घास पर बिहार करते थे। पर्वत पर बनी रमणीक गुफाओं में संसार का त्यागकर आये हुए महात्मा दिन रात तपस्या करते थे।
उस पर्वत की कन्दराओं में बैठकर महात्मा रुद्राक्ष की माला हाथ में लिए महादेव जी का भजन करते थे। चारों ओर का वातावरण सुन्दर एवं शान्त था । झरनों से गिरने वाला जल कल-कल शब्द करके बहता रहता था। उस पर्वत की कन्दरा में हाथी अपने बच्चों के साथ दिखाई देते थे । प्रत्येक पशु-पक्षी मानों हर बोलियां बोलते थे । देव, यज्ञ, अप्सरागण, किन्नर आदि विहार करते थे। राजा ने पूछा- हे मुने ! यह पर्वतराज बहुत ही आश्चर्यजनक है। वह कितना ऊंचा और कितना विशाल है? वशिष्ठ जी बोले- यह पर्वत छत्तीस योजन ऊंचा है।
उस पर अनेक प्रकार के वृक्ष तथा उत्तम लतायें शोभा पाती हैं क्योंकि भृगु जी पृथ्वी पर दुर्भिक्ष पड़ जाने के कारण उस पर्वत पर गये थे, अतः उस पर्वत के वातावरण को देख अति प्रसन्न हुये, उन्होंने उसी पर निवास करने का विचार किया एक सुन्दर कन्दरा में वे निवास करने लगे और भृगु जी तपस्या करने लगे ।