चौथा अध्याय माघ महात्म्य
वशिष्ठ जी बोले- हे राजन् !
जब भृगु जी अपनी तपस्या में लीन थे तो विद्याधरों का एक दम्पति उनके पास पहुँचा। वे बहुत दुःखी थे और भृगु जी को अपनी कथा सुनाने आये थे। उन्होंने मुनि को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया और कहा- हे मुनिदेव !
इस दिव्य देह को पाकर भी हम दोनों बहुत दुःखी हैं। मेरी भार्या परम सुन्दरी और नृत्य एवं संगीत में प्रवीण है । यह वीणा बजाने में दक्ष है, इसके वीणा वादन की महर्षि नारद ने भी प्रशंसा की है। संगीत के ज्ञाता इन्द्र भी इससे प्रभावित हैं। भगवान महादेव भी इसकी संगीत विद्या से प्रसन्न हैं।
ऐसी परम सुन्दरी और गुणवती भार्या को पाकर भी मैं सुखी नहीं हूँ । कहाँ यह रूपवती मेरी भार्या और कहाँ व्याघ्र के मुख वाला, मैं इसी चिन्ता से परेशान एवं दुःखी रहता हूँ । उस विद्याधर की बात को सुनकरत्रिकालज्ञ भृगुजी मुस्करा कर बोले-हे विद्याधर हर प्राणी को कर्मों के अनुसार फल प्राप्त होता है।
जो ज्ञानी होते हैं वे मोह नहीं करते और जो अज्ञानी होते हैं, वे मोह में फँसे रहते हैं। जिस तरह यक्षिका के पांव विष – विषम हैं, उसी तरह अधूरा कर्म दुःखी करता है पिछले जन्म में तूने माघ मास की एकादशी का व्रत करके द्वादशी को तेल स्नान किया था, उसी के कारण तेरा मुख व्याघ्र का है। ने राजा पुरखा ने भी तेरी ही भांति भूल की थी इसी कारण उसको कुरूप देह प्राप्त हुई थी ।
राजा अपनी कुरूपता पर बड़ा दुःखी था । वह गिरिराज के समीप देव सरोवर पर गया । उसने स्नान किया और तपस्या हेतु कुशा के आसन पर बैठ गया। उसने शंख, चक्र, गदा पद्मधारी भगवान श्री हरि को हृदय में धारण कर तीस मास तक निराहार रहकर कठोर तप किया। भक्त वत्सल भगवान श्री हरि,राजा की तपस्या से प्रसन्न हुये। उन्होंने राजा के सम्मुख प्रकट होकर कहा- हे राजन्! मैं तेरी तपस्या से बहुत खुश हुआ।
इतना कह भगवान ने स्वयं अपने शंख के जल से राजा का अभिषेक किया जिससे राजा का शरीर सुन्दर हो गया ।भृगु जी बोले- हे विद्याधर! यह सब तेरे पूर्व जन्म का ही फल है। यदि तुम वास्तव में इस रूप को त्यागना चाहते हो, तो माघ मास में मणिकूट नदी के जल में जाकर स्नान करो, तब तुम अपने पहले पाप से मुक्त हो सकते हो।
इस नदी के तट पर देव, मुनि, सिद्ध निवास करते हैं। तेरे भाग्य से पांच दिन बाद ही माघ मास प्रारम्भ होगा। तू स्नान की विधि ध्यान से श्रवण कर पौष शुदी एकादशी से ही प्राणी को त्रिकाल स्नान निहार रहते हुए पृथ्वी पर शयन करना चाहिये । भोग विलास त्यागकर जितेन्द्रिय हो माघ शुक्ल एकादशी तक तीनों समय भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिये। तू भी ऐसा ही करे तो तेरा मनोरथ पूर्ण होगा। द्वादशी के दिन मैं स्वयं आकर तेरा अभिषेक करूँगा ।
निश्चय ही तू कामदेव के समान सुन्दर हो जायेगा ।इतना कह भृगु जी ने फिर कहा- हे विद्याधर! माघ स्नान प्राणी के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। इसका फल, तप और यज्ञ से भी श्रेष्ठ है। पुष्कर, कुरुक्षेत्र, ब्रह्मावर्त, मायापुरी (हरिद्वार) काशी, प्रयाग, सागर संगम के दस वर्ष तक निरंतर स्नान से जो फल प्राप्त होता है, उस प्राणी को माघ मास में केवल तीन दिन के स्नान से ही प्राप्त हो जाता है। जो स्वर्ग की कामना करते हैं वे मकर के सूर्य में स्नान करें। इससे आयु, आरोग्य, रूप, सुख-सौभाग्य की प्राप्ति होती है ।
जो नरक और दरिद्रता से भय करते हों, वे सदैव माघ स्नान करते रहें ।वशिष्ठ जी ने कहा- हे राजन् ! भगवान् भृगु की इस परम पुनीत बातों को सुनकर तुम्हें माघ स्नान की महत्ता का ज्ञान हो गया होगा। ये स्नान अनेक फलों को देने वाला है। सकाम अथवा निष्काम भाव से प्राणी को चाहिये कि वह माघ मास में स्नान करे । उसे इस लोक में समस्त सुखों की प्राप्ति होगी और वह परलोक में भी समस्त सुख पाता है ।
माघ मास के स्नान से पुण्यों की वृद्धि होती है और समस्त पापों का क्षय होता है। सतयुग में तप, त्रेता में ज्ञान और द्वापर में कर्म फल देता हैं उसी तरह माघ स्नान सब युगों में श्रेष्ठ कल का देने वाला है। यह स्नान समस्त वर्ण और सभी आश्रम वालों के लिए फल देने वाला है। वशिष्ठ जी बोले- हे राजन् ! भृगु जी के समझाने पर उन विद्याधर ने अपनी स्त्री के साथ आश्रम के पास झरने में ही विधिपूर्वक माघ स्नान किया। भृगु जी की कृपा से उसे सुन्दर देह प्राप्त हुई और उसका दुःख दूर हो गया ।
वह कामदेव के समान सुन्दर मुखवाला होकर अपनी पत्नी के साथ विहार करने लगा, तपस्या पूर्ण करके भृगु जी अपने शिष्यों सहित पर्वत से उतरकर अपने आश्रम को चले आये । हे राजन्! जो इस परम पुनीत कथा को श्रवण करता है, उसके समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं।