पच्चीसवाँ अध्याय माघ महात्म्य
लोमश जी बोले- हे ब्राह्मण! इस पिशाच के इस करुण क्रन्दन को देवद्युति ने उपासना करते समय सुना। वे बैठे न रह सके और तब वे इस आश्रम से निकलकर उस पिशाच के सम्मुख गये।
भयानक आकार और क्रूर आकृति वाले पिशाच को इस प्रकार दहाड़ मारकर रोते देखा। इसके गाल भूख के कारण बैठे थे। उसके शरीर पर काले-काले लम्बे बाल थे,
जीभ प्यास के कारण बाहर निकली पड़ रही थी । उसकी दशा से वे समझ गये कि वह महा भयानक पिशाच अति दुर्बल हो चुका है और महान कष्ट में है।
दयालु मुनि ने पूछा- हे पिशाच! तू कौन है और इस तरह किस दुख के कारण रो रहा है? तू स्पष्ट कह कि मैं तेरी क्या सहायता करूँ?
मेरे इस आश्रम में प्रभु के प्रताप से कोई जन्तु कष्ट नहीं पाता और सभी को बैकुण्ठ के समान सुख प्राप्त होता है। मुनि के उन वचनों को सुनकर उस पिशाच ने रोना त्याग दिया और विनयपूर्वक कहा- हे मुने!
आपकी मनोहर वाणी और प्रेम वचनों के सुनते ही मेरी आत्मा को शान्ति मिली है। मेरा कोई पुण्य उदय हुआ है जिसके कारण आपके दर्शन प्राप्त हुये हैं ।
पुण्य के बिना महात्माओं से समागम नहीं होता है। ऐसा कह उसने अपना सम्पूर्ण वृतान्त सुनाते हुए कहा – हे मुने!
अंत समय जिनका नाम मात्र लेने से प्राणी को बैकुण्ठ की प्राप्ति होती है उन भगवान विष्णु का मैंने मूर्खतावश अनादर किया था, उसका फल पा रहा हूँ।
जो समस्त चराचर के स्वामी हैं, उनसे द्रोह करके मैंने महान कष्ट पाये हैं, भयानक नरक यातनायें भुगती है और अब पिशाच योनि को भुगत रहा हूँ ।
यदि मुझे इस योनि से मुक्ति प्राप्त हुई तो, मैं निश्चय यहीं भगवान विष्णु की आराधना करूँगा । इस योनि से दया करके आप ही मुझे मुक्त करवा सकते हैं।
देवद्युति जी ने आश्चर्य से कहा हे दुष्ट! तू माया के चक्कर में पड़कर संसार के आधार के साथ ही द्वेष करने लगा। जो स्वयं सृष्टि करते, पालन करते हैं
अपना हित चाहने वाले प्राणी को कभी विष्णु और शंकर में भेद नहीं समझना चाहिये। वे दोनों समान हैं और उनमें से किसी का भी द्रोह दूसरे को कभी सहन नहीं है। हे राजन!
निश्चय ही विष्णु भगवान से द्रोह करने का तुमको उचित दंड प्राप्त हुआ है। जहाँ तक अब तुम्हारी मुक्ति का प्रश्न है, उसका उपाय मैं तुमको बताता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो।
देवद्युति बोले – हे भद्र! माघ मास प्रारम्भ होने से पहले ही तुम तीर्थ राज प्रयाग चले जाना । शास्त्रों का कथन है कि वहाँ संगम के जल में माघ स्नान करने से प्राणी के समस्त पाप उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं,
जिस प्रकार सूर्य की किरणों के द्वारा अन्धकार का नाश हो जाता है । वहाँ स्नान करने से पूर्व जन्मों के पाप भी नष्ट हो जाते हैं।
माघ स्नान का फल अद्वितीय है और उस पर तीर्थराज प्रयाग के संगम जल में माघ स्नान करने के फल का वर्णन करना बड़ा कठिन है। संक्षेप में इतना समझ लो कि संसार का ऐसा कोई पाप नहीं हैं,
जो उसके द्वारा नष्ट न हो सकता हो। ऐसा कोई यज्ञ नहीं जिसका फल इस स्नान से श्रेष्ठ हो। इसके बराबर कोई तप नहीं जो इसकी तुलना में टिक सके। ऐसा कोई दान नहीं जो इससे श्रेष्ठ फल दे सके।
जिस प्रकार आग की एक छोटी सी चिन्गारी घास के बड़े ढ़ेर को स्वाह कर देती है ।हे भद्र! त्रिवेणी स्नान के महात्म्य का वर्णन करना मेरी शक्ति के बाहर है।