सत्ताईसवाँ अध्याय माघ महात्म्य
ब्राह्मण ने पूछा- हे प्रेत! तूने सारस से जो वचन सुने हैं। वह मुझसे कहो। प्रेत बोला-हे विप्रवर! इसी खण्ड के समीप गुहिका नामक एक नदी है।
यह नदी पहाड़ी के समीप है, उसमें से अथाह निर्मल जल रहने के कारण बड़ी-बड़ी लहरें उठा करती हैं। उनके किनारे हाथियों के झुण्ड विचरण किया करते हैं ।
दोनों ओर के किनारों पर अनेको जामुन के पेड़ लगे हुये हैं। मैं एक समय घूमता हुआ उस नदी के तट पर थककर विश्राम करने की इच्छा से एक वृक्ष के नीचे बैठ गया।
तभी आहार की खोज कर आ रहा सारस का एक जोड़ा वहाँ आ पहुँचा। वहाँ पहले ही से अनेकों पक्षी किलोल कर रहे थे।
सारस दम्पत्ति ने भी आपस में बहुत देर तक किलोल की और जब वे थक कर चूर हो गये तो एक छायादार स्थान पर चोंच को पंखों में दबाकर विश्राम करने लगे।
जब वे निद्रामग्न थे, तभी एक लाल मुख वाला बन्दर क्रोध से लाल- लाल आखें करके सोते हुये सारस के पास आ गया।
उस लम्बे-लम्बे काले बालों वाले दुष्ट वानर ने अपनी लम्बी चंचल पूँछ को चारों ओर फटकारा। उस वानर को देखते ही आस-पास के पक्षी तो भय से चींखते हुए जान बचाकर भाग खड़े हुये।
सारसी ने जब वानर को देखा तो वह सारस को जगाने के लिए वहाँ से दूर-दूर भागकर शोर करने लगी। तब तक मौका पाकर उस वानर ने सारस के पैर मजबूती से पकड़ लिये थे,
चीख सुनकर सारस की जब नींद खुली तो उसने देखा कि वह दुष्ट वानर उसे मार डालने के लिये खड़ा था। तब उस सारस ने बहुत मधुर वाणी से उस वानर से कहा ।
हे वानर ! तुम मुझ निरअपराध को क्यों मार डालने को उतारू हो ? राजा भी अपराधी को ही दण्ड देता है । सत्य पुरुष कभी हम जैसे अहिंसक जीवों को नहीं सताते, वह दया ही करते हैं।
हम जल परछाई को ही खाते हैं। परस्त्री के साथ भोग भी नहीं करते । सदैव वन में ही रहते हैं। इसलिए हे श्रेष्ठ वानर ! तुमको मुझे मारना उचित नहीं है। मैं निरपराध हूँ इसलिये मुझे छोड़ दो।
मैं तुम्हारे पूर्व जन्म के वृतान्त से परिचित हूँ। उस वानर ने सारस के वचन सुनकर उसे छोड़ते हुए कहा- हे सारस! मैं वन में भ्रमण करने वाला वानर हूँ ।
तू ज्ञान हीन पक्षी होकर भी मेरे पूर्व जन्म के वृतान्त को कैसे जानता है? वह मुझे बता । को जानता सारस ने कहा- मैं अपनी जाति की स्मृति के बल पर तुम्हारे पूर्व जन्म के वृतान्त हूँ।
पूर्व जन्म में तू विन्ध्याचल पर पर्वतेश्वर था। उस समय तुम्हारा कुल गुरु था। तूने विवेकहीन हो अपनी प्रजा को सताया और बहुत सा धन संचित किया था ।
प्रजा के श्राप से मरने पर तुझे कुम्भी पाक नरक मिला। इसी प्रकार बार-बार जन्म-मरण में नरक भोगते हुए बहुत समय हो गया। अब तेरे शेष पाप भोगने के लिए ही वानर योनि प्राप्त हुई है ।
ब्राह्मण के बाग में बिना आज्ञा चुराकर केले खाने से तुझे वानर बनना पड़ा है, अब मुझे मारकर क्यों अपराधी बनता है। मैं पाप कर्म की ओर कभी नहीं गया हूँ, इसी कारण सारस बनकर भी मुझे ज्ञान है।
तब वानर ने पूछा- हे सारस ! अब यह बता कि ज्ञानवान और उत्तम कुल का ब्राह्मण होने के बाद भी तू इस जन्म में सारस क्यों बना है?