महाबली भीम
भीमसेन कुंती का दूसरा पुत्र था। इसका जन्म पवन देवता के संयोग से हुआ था, इसी कारण इसमें पवन की-सी शक्ति थी। इसके उदर में वृक नामक तीक्ष्ण अग्नि थी, इसीलिए इसका नाम वृकोदर भी पड़ा |
जिस समय इसका जन्म हुआ, उसी समय आकाशवाणी हुई थी कि भीमसेन वीरों में श्रेष्ठ होगा और यह बड़े-बड़े सेनानियों को पराजित करने की क्षमता रखेगा। इसकी देह वज्र के समान कठोर थी। कहा जाता है कि एक बार माता कुंती इसको गोद में लेकर बैठी थीं। यह सो रहा था।
उसी समय सामने से एक व्याघ्र चला आया। उसे देखकर कुंती घबराकर उठ बैठी। अचानक उठने के कारण भीम नीचे चट्टान पर गिर पड़ा, लेकिन फिर भी उसके शरीर पर किसी प्रकार की चौट नहीं आई।वह बचपन में ही इतना पराक्रमी था कि मोटे तने वाले पेड़ों को अकेला ही हिला दिया करता था।
जब कौरव वाटिका में खेलने जाते थे तो वह भी वहां पहुंच जाता था और पेड़ों पर चढ़े हुए कौरवों को पेड़ हिलाकर नीचे गिरा दिया करता था। विशेष रूप से दुर्योधन को वह बहुत ही परेशान किया करता था। इसी से दुर्योधन तथा अन्य कौरव उससे बड़ी ईर्ष्या करते थे।
इसी ईर्ष्या के कारण दुर्योधन ने तो एक बार उसे मारने के लिए मिठाई में विष मिलाकर उसको खिला दिया था। इसके पश्चात दुर्योधन उसको बहकाकर जल- -क्रीड़ा करने ले गया। जल के भीतर ही भीम बेहोश हो गया और पानी में डूब गया।
दुर्योधन ने और ऊपर से एक लात मार दी। पाताल में जाकर वह नागकुमारी के ऊपर गिरा तो उन्होंने उसको इस लिया। इससे उसका पहले का विष उत्तर उसको डस लिया। इससे उसका पहले का विष उतर गया, क्योंकि एक विष दूसरे विष का असर मिटाता है। जब विष उतरने के पश्चात उसकी बेहोशी टूटी, तो वह वहां नागकुमारों को मारने-पीटने लगा।
उन्होंने जाकर नागराज वासुकि से शिकायत की। नागराज ने भीमसेन को पहचान लिया और उसकी अच्छी तरह आवभगत की नागों ने उसको अमृत दिया, जिसे पीकर वह वहां आठ दिन तक सोता रहा और फिर उठकर अपने भाइयों के पास आ गया।
जब दुर्योधन का यह उपाय भी निष्फल चला गया तो लाक्षागृह में उसने भीम तथा अन्य पाण्डवों को मारना चाहा, लेकिन यह कुचक्र भी बेकार चला गया। सभी पांडव सुरंग बनाकर आग लगने से पहले ही उस गृह से निकल गए थे।फिर अंत में महायुद्ध के समय दुर्योधन ने उसको मारना चाहा था।
पुरानी ईर्ष्या के कारण ही तो उसने अपने साथ द्वंद्व युद्ध करने के लिए उसको छांटा था, लेकिन वहां भी उसका इरादा पूरा नहीं हो सका। भीमसेन ने आखिर उसका काम तमाम कर ही डाला। हां, यह अवश्य है कि यदि कृष्ण तरकीब नहीं बताते तो शायद दुर्योधन को पराजित करना बहुत कठिन पड़ता।
दुर्योधन भी तो बलदाऊ का शिष्य था। भीमसेन के पराक्रम का दूसरा उदाहरण हमें उस समय मिलता है, जब वह राक्षस हिडिंब के साथ द्वंद्व युद्ध करता है। हिडिंब बड़ा ही भयानक और पराक्रमी राक्षस था| यह भीमसेन के ही बस की बात थी कि उसको पराजित करके उसकी बहन हिडिंबा से शादी कर ली।
पहले तो कुंती ने इस शादी के लिए आज्ञा नहीं दी, लेकिन हिडिंबा के प्रार्थना करने पर भीम को अनुमति मिल गई। शर्त यह थी कि एक पुत्र होते तक ही भीम उसके साथ रहेगा| घटोत्कच भी इतना पराक्रमी था कि एक बार तो इसने कौरव-सेना के छक्के छुड़ा दिए थे।
उसने आकाश में आग बरसाना प्रारंभ कर दिया था। कौरव सेना का उसने इतना भीषण विनाश किया कि कर्ण को आखिरकार उसके ऊपर इंद्र की दी हुई अमोघ शक्ति छोड़नी पड़ी, तब वह मरा।साधारण अस्त्र-शस्त्र तो उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाए।
हिडिंब राक्षस ने बाद में कितनी ही बार भीमसेन से बदला लेने की कोशिश की, लेकिन उसका सारा प्रयत्न निष्फल गया था| जिन राक्षसों को भी वह भेजता था, उन्हें ही भीम मार डालता था। एकचक्रा नगरी में रहते समय उसने बक नामक राक्षस को मारा था और इस तरह वहां के निवासियों के संकट का निवारण किया था।
गिरिव्रज में जाकर उसने जरासंध को युद्ध करके पछाड़ा था| वह महान योद्धा भी था। राजसूय यज्ञ से पहले उसने पांचाल, विदेह, गण्डक और दशार्ण प्रभृति देशों पर विजय प्राप्त करके पुलिन्ह नगर के स्वामी सुकुमार, चेदिराज, शिशुपाल, कुमार राज्य के स्वामी श्रेणिमान, कोशल देश के राजा वृहद्बल, अयोध्यापति दीर्घयज्ञ और काशीराज सुबाहु प्रभृति से कर वसूल किया था|
इसके पश्चात उत्तर दिशा पर चढ़ाई करके मोदा-गिरि और गिरिव्रज आदि के राजाओं को तथा शक, बर्बर और समुद्र तट के निवासी म्लेच्छ आदि को वश में कर लिया था।भीमसेन बड़े ही क्रोधी स्वभाव का था| धैर्य उसमें अधिक नहीं था|
परिस्थिति की गंभीरता को भी वह अधिक नहीं समझता था| जुए में सबकुछ हार चुकने के पश्चात जिस समय युधिष्ठिर चुपचाप बैठे थे और द्रौपदी का भरी सभा में अपमान किया जा रहा था तो भीमसेन से रहा नहीं गया|
जब दुर्योधन ने द्रौपदी को बिठाने के लिए अपनी जांघ खोली तो भीमसेन ने पुकार कर कहा, “हे दुष्ट दुर्योधन ! मैं युद्ध में तेरी इस जांघ को तोडूंगा।”इसी प्रकार दु:शासन से भी उसने कहा था कि, दुःशासन ! आज तू हमारी पत्नी द्रौपदी को नंगी करके उसका अपमान करना चाहता है,
लेकिन मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि इसके बदले तेरा सीना फाड़कर उसके भीतर से रक्त को समर- -भूमि में पीऊंगा।भीम ने अपने दोनों प्रतिज्ञाओं को पूरा किया| दुःशासन उसी के हाथ से मारा गया था। उसके रक्त से उसने द्रौपदी के केशों को भिगोया था। बड़ी ही क्रूर प्रवृत्ति वाला था भीम|
एक बार निश्चय कर लेने के पश्चात शत्रु के प्रति दया का भाव उसके हृदय में कभी नहीं आता था| अर्जुन और युधिष्ठिर की तरह वह कभी स्वजनों की मृत्यु पर दुखी नहीं हुआ। वह प्रारंभ से कौरवों को दुष्ट हृदय समझता था और अंत तक उसकी घृणा उनके प्रति बना रही|
उसके चिरित्र में दार्शनिकता बिलकुल नहीं थी। वह तो कार्य करना जानता था, उसके आगे या पीछे सोचना उसे नहीं भाता था |अपने भीई युधिष्ठिर का वह आज्ञाकारी सेवक था। उसका विरोध उसने जीवन में कभी नहीं किया।
अग्रज में उचित-अनुचित जो कुछ भी किया, उसे ही भीम ने स्वीकार कर लिया।कठिन से कठिन परिस्थिति के सामने भी झुकना वह नहीं जानता था| बनवास के समय एक दिन द्रौपदी के सामने हवा से उड़कर एक फूल आ गिरा था।
उसकी सुगंध की ओर आकर्षित होकर द्रौपदी ने भीमसेन से वैसे ही और फूल लाने के लिए कहा। यद्यपि वह उन फूलों का उत्पत्ति स्थल नहीं जानता था, लेकिन उनकी खोज में निकल पड़ा| रास्ते में हनुमान जी से भेंट हो गई।
उनको न पहचान कर उसने उनके साथ एक साधारण बंदर का सा व्यवहार किया| जब हनुमान जी ने अपना वास्तविक रूप दिखाया, तब उसने उनको प्रणाम किया। इसके पश्चात उनसे पूछकर वह कुबेर के बगीचे में पहुंचा, जहां द्रौपदी के बताए वैसे अनेक फूल खिल रहे थे।
बागवानों ने मना किया और कुबेर के नाम की धमकी भी दी, लेकिन वह माना नहीं और वहां से बहुत से फूल तोड़कर द्रौपदी के पास ले आया। द्रौपदी की भीम ने अनेक बार रक्षा की थी। एक बार जटासुर द्रौपदी को उठाकर ले गया था, तब उस असुर को मारकर भीम ने द्रौपदी की रक्षा की थी।
फिर जब जयद्रथ उसको उठाकर ले गया था तो उसी ने अर्जुन के साथ मिलकर द्रौपदी को छुड़वाया था और जयद्रथ को बुरी तरह पराजित किया था| उस समय यदि युधिष्ठिर नहीं रोकता तो वह जयद्रथ को जीवित नहीं छोड़ता।
अज्ञातवास के समय भी भीम ने अपना पराक्रम दिखाया। वह उस समय वल्लभ नामधारी रसोइया था| द्रौपदी कानाम सैरंध्री था। राजा विराट का सेनापति और साला कीचक द्रौपदी को बड़ा तंग करता था| उससे क्रुद्ध होकर वल्लभ नामधारी भीम ने कीचक को मार डाला था।
वह द्रौपदी की करुण अवस्था देख नहीं सका था, इसीलिए भावावेश में आकर इस काम को कर गया था, वैसे देखा जाए तो अज्ञातवास के समय यह करना उचित नहीं था|दूसरे दिन जब सुशर्मा ने विराट के ऊपर आक्रमण कर दिया था, तो विराट् उससे सामना करने गए थे।
उस समय सुशर्मा के सैनिकों ने विराट को बंदी बना लिया था| जब भीम को यह पता चला तो भाइयों को लेकर वह युद्ध-स्थल पहुंचा और उसने सुशर्मा को बुरी तरह मारकर राजा विराट को मुक्त करा लिया।भीम के पराक्रम के संबंध में धृतराष्ट्र के वाक्य सुनने योग्य हैं।
धृतराष्ट्र ने इसके पराक्रम से भयभीत होकर एक बार कहा था, “भीमसेन के भय के मारे मुझे रात कोनींद नहीं आती। इंद्र तुल्य तेजस्वी भीम का सामना कर सकने वाला एक आदमी भी मुझे अपनी ओर दिखाई नहीं पड़ता।
वह बड़ा उत्साही, क्रोधी, उद्दण्ड, टेढ़ी नजर से देखने वाला और कठोर स्वर वाला है। न तो वह कभी साधारण रूप में हंसी-दिल्लगी करता है और न कभी वैर को ही भूलता है। एकाएक वह कुछ भी कर बैठता है।
अपने प्रतिशोध की आग को शांत करने के लिए वह कठिन से कठिन और क्रूर से क्रूर कार्य करने को तत्पर हो जाता है। उससे मेरे पुत्रों को बड़ा भय है। व्यास जी ने मुझे बताया है कि अद्वितीय शूर और बली भीमसेन गोरे रंग का, ताड़ के वृक्ष जैसा ऊंचा है।
वह वेग में घोड़े से और बल में हाथी से बढ़कर है।”धृतराष्ट्र के इस कथन से भीम के चरित्र पर काफी प्रकाश पड़ता है। यह तो उसके बारे में सत्य है कि भावावेश ही उसमें अधिक था। बुद्धि का प्रयोग वह कम ही करता था।
यद्यपि वनवास भोगने के लिए वह अग्रज के साथ कष्टपूर्ण जीवन बिताता रहा, लेकिन जब उसको युधिष्ठिर पर क्रोध आया तो वह बिना किसी हिचकिचाहट के कहने लगा, “भाई ! राजा लोग जो धन आपको भेंट में दे गए थे, वह सब आपने दांव पर लगा दिया।
धन-धान्य को ही नहीं, बल्कि हम सभी को भी आपने जुए में दांव पर लगा दिया| आपकी इस सारी बात को मैंने चुपचाप सह लिया और वह भी इसलिए कि आप हमारे अग्रज हैं, लेकिन अब द्रौपदी को इस तरह भरी सभा में अपमानित होते मैं नहीं देख सकता| आप इसे चुपचाप बैठकर सह रहे हैं?
क्या आपका हृदय नहीं है? जुआरियों के घर में वेश्याएं होती हैं, उन्हें भी वे दांव पर नहीं लगाते, लेकिन आपका व्यवहार तो निराला है, जो आपने अपनी पत्नी तक को अपमानित होने के लिए दांव पर लगा दिया है। मैं इसको कभी सहन नहीं कर सकता।
जिन हाथों से आपने यह जुआ खेला है और यह सर्वनाश किया है, उन्हीं को मैं जला दूंगा।”यह कहकर उसने सहदेव को आग लाने के लिए आज्ञा दी| वह सचमुच ही युधिष्ठिर के हाथों को जलाने के लिए उतारू हो गया था। यह उसका भावावेश ही था।
वह पूरी तरह सरल स्वभाव का व्यक्ति था| छल-कपट में वह विश्वास नहीं करता था। बात को सीधे कहने में ही उसका विश्वास था। पुत्रों के मारे जाने पर धृतराष्ट्र जब युधिष्ठिर के आश्रम में रहकर जी खोलकर दान-पुण्य किया करते थे तो भीमसेन कभी-कभी एकाध लगती हुई बात कह देता था।
बात कहकर वह इस बात की परवाह नहीं करता था कि वृद्ध धृतराष्ट्र के हृदय पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा।इस तरह हम देखते हैं कि भीमसेन के चरित्र की महानता उसकी सरल हृदयता में है। उसका पराक्रम तो बड़े-बड़े योद्धाओं को चकित कर देता है।
आठ बार उसने द्रोणाचार्य के रथों को उठाकर तोड़ डाला था। जब कभी वह सेना के बीच मारकाट करता निकल जाता था तो ऐसा लगता था, मानो कोई सिंह साधारण प्राणियों के बीच घुस आया हो।
अपनी गदा के प्रहारों से वह कुछ ही क्षणों में असंख्य सैनिकों को पृथ्वी पर सुला देता था।