श्री बाँकेबिहारी की अँगूठी लीला
श्री बाँकेबिहारी जी की सेवा का अवसर वर्ष में कम से कम एक बार प्रत्येक गोस्वामी को उपलब्ध होता है । उस दिन सेवा करने का सौभाग्य हमारे ही परिवार को प्राप्त था ।
सन्ध्या का समय था । ठण्ड कुछ बढ़ चली । मेरा छोटा भाई | श्रीविहारीजी महाराज का श्रृंगार कर रहा था। किसी भक्त की पोशाक चढ़ी थी। पोशाक का कपड़ा बड़ा महीन था।
भाई उसे धारण कराता जाता और बार-बार कहता जाता “महाराज आज तो पोशाक बड़ी हल्की है। जाड़ा पड़ रहा है। आपके सुकुमार अंगों को ठण्ड लग जावेगी । इस पोशाक पर तो कोई ऊनी वस्त्र ओढ़ने को होना चाहिए था ।
” तभी श्रीराधाकृष्ण गोस्वामी एक बहुत बढ़िया कम्बल लेकर आये और मेरे भाई से बोले – “लो, कम्बल ! ऊपर से धारण करा दो ।” भाई कम्बल को देखकर गद्गद हो गया और श्रीबिहारीजी के चरणों में लिपट गया । उसकी आँखों से आँसुओं की धारा प्रवाहित हो रही थी, श्रीबिहारीजी महाराज की करुणा की तरंग रह-रहकर उसके हृदय में उठ रही थी और उसे विह्वल बना रही थी।
जब समीपस्थ महानुभावों ने इस आवेश का कारण पूछा, तो उसने बता दिया । इस पर सभी महानुभाव श्रीबाँकेबिहारीजी महाराज की कीर्ति- कौमुदी की चर्चा अपने अपने ढंग से करने लगे ।
इस अवसर पर गोस्वामी शरणबिहारीजी ने भी एक प्रसंग प्रस्तुत किया ।
उन्होंने बताया एक दिन में सोकर जगा ही था कि एक वृद्ध सज्जन जो सरकारी नौकरी से अवकाश लेकर श्रीवृन्दावन-वास कर रहे थे और श्रीबिहारीजी तथा उनके परिवार में विशेष श्रद्धा रखते थे, एक पत्रहाथ में लेकर मेरे पास पधारे।
वृद्धावस्था के कारण उनका घूमना- फिरना श्रीबिहारीजी महाराज के दर्शनों के लिए आने-जाने तक ही सीमित था । बाकी समय वे घर पर रहकर ही भजन-संकीर्तन में संलग्न रहते थे । उस दिन इस प्रकार उन्हें अपने घर आया देखकर अनेक आशंकाओं ने मेरे हृदय को घेर लिया।
मैंने आदर के साथ उन्हें बिठाया और उनसे सहसा आने का कारण पूछा। बड़े संकोच के साथ उन्होंने कहा – “छोटे भाई का पत्र आया है। इसमें लिखा है होली के दिन रात को श्रीबिहारीजी महाराज ने मुझे स्वप्न दिया है: और कहा है कि “तुम्हारे गुसाँईंजी ने आज हाथ में अँगूठी पहनकर ही शयन के समय की अंग- सेवा की है, सो हमारे शरीर में खरोंच आ गई हैं।” मैंने गुसाईंजी को कभी अँगूठी पहिने नहीं देखा । आप उनसे जाकर पूछिये- क्या बात है ?”
मैने सोचा तो तुरन्त ध्यान आ गया कि उस दिन एक भक्त ने श्रीबिहारीजी को सोने की अंगूठी भेंट की थी। आरती के उपरान्त मैंने उसे इस भय से अपनी अंगुली में डाल लिया था कि कहीं यह खो न जाए।
उसे पहिने पहिने श्रीठाकुरजी के श्री अंगों की मालिश कर दी थी। मैंने वृद्ध सज्जन को सारी घटना सुनाते हुए कहा कि आपके भाई ने जो स्वप्न में देखा है, वह यथार्थ हैं, आप उन्हें पत्र लिख दें ।
वे सज्जन भक्तवत्सल श्रीबाँकेबिहारीजी महाराज की करुणा से लबालब भरकर अपने घर की ओर चले गये और मैं खड़ा खड़ा पश्चात्ताप की आग में तपता रहा। मेरा विश्वास है कि श्रीबिहारीजी महाराज प्रतिदिन अनेक भक्तों पर निरन्तर कृपा करते रहते हैं ।