Shri Krishan Leela || Banke Bihari leela || Thakur Leela
अद्भुत ग्वाला – श्री बाकें बिहारी की अद्भुत लीला
हर वर्ष की भाँति उस वर्ष भी सपरिवार श्रीबिहारीजी महाराज के दर्शनों के लिए वृन्दावन जाने का कार्यक्रम तय हुआ था । हम गाजियाबाद से दिल्ली होते हुए बस द्वारा मथुरा पहुँचे थे।
तब आज की तरह दिल्ली से वृन्दावन के लिए सीधे कोई बस-सेवा न थी अतः वृन्दावन जाने वाले सभी यात्रियों को पहले मथुरा उतरना पड़ता था-फिर वहाँ से रिक्शा, ताँगा या बस जैसा साधन बन जाता उससे वृन्दावन जाना होता था।
मथुरा बस स्टैण्ड के बाहर खड़े ताँगे वाले से वृन्दावन जाने के लिए किराया तय करने के विचार से मैंने पूछा-‘वृन्दावन जाने का क्या लोगे ?’ ‘पूरा तांगा बाबूजी या और भी सवारी बैठानी है ?’ तांगे वाले ने प्रतिप्रश्न किया ।
मैंने कहा-‘पूरा तांगा, तय करो कितने पैसे लोगे ?’ ताँगे वाला नौजवान लड़का ही था, हँसकर बोला-‘जो इच्छा हो से दे देना । आप कोई मेरी मेहनत थोड़े ही रख लोगे । लाइये ! सामान रखूँ ।
‘देखो ! पैसे पहले बता दो, नहीं तो बात में चक-चक करोगे ।’
मैंने अपनी बात जोर देकर कही ।
‘अरे ! नहीं बाबूजी ! जो जँचे सो दे देना कोई चक-चक नहीं करेंगे ।’ और ताँगे वाला सामान उठाकर ताँगे में करीने से लगाने लगा । मुझे उसकी सज्जनता पर मन ही मन में बड़ी प्रसन्नता हुई । मैंने उससे कहा कि यदि ऐसी बात है तो हम लौटकर भी तुम्हारे ताँगे से ही आयेंगे । किन्तु तब किराया तुम्हें ही बताना होगा ।
ताँगे वाले ने कहा-जैसी आपकी इच्छा ! और मैं सपरिवार ताँगे में सवार हो गया ।
ताँगे ने मथुरा को पार करने में काफी समय लिया । यद्यपि तब आजकल जैसी भीड़ नहीं रहती थी फिर भी तांगे वाले के ज्यादा बातूनी होने के कारण ताँगे की गति काफी कम थी।
वह हमें मथुरा के मन्दिरों के बारे में न जाने क्या-क्या बताता रहा। थोड़ी देर में ही हम सब ताँगे वाले की बातों में मगन हो गये। देखकर कोई नहीं कह सकता था कि हमारा उसका परिचय अत्यल्प समय से ही हुआ होगा ।
हमारे तीनों बच्चों को तो उसकी बातों में अद्भुत जानकारी मिलने के कारण बड़ा आनन्द आने लगा। वे भी अनेक बाल-सुलभ प्रश्न कर रहे थे और ताँगे वाला हँस-हँसकर उनके जबाब देता जा रहा था ।
वृन्दावन पहुँचते-पहुँचते सूरज सिर पर चढ़ आया था । सन् १९५६ के नवम्बर माह की गुनगुनी धूप चारों ओर छिटकी हुई थी । बिहारीजी के बगीचे के पास गुजरते हुए तांगे वाले ने सामने आते एक साधु से पूछा-‘बाबा ! बिहारीजी की आरती में कितनी देर है ।
भोग के बाद दर्शन खुल चुके हैं, जल्दी कर । मैं दर्शन करके आ रहा हूँ ।’ ताँगे वाले ने ताँगे को तेज दौड़ाया देखते ही देखते-बिहारी जी की गली के पास पुलिस चौकी के सामने ताँगा खड़ा कर दिया। आजकल यह पुलिस चौकी श्रीबिहारीजी के नाम से जानी जाती है किन्तु तब इसे ‘पुलिस चौकी गोवर्धन गेट’ कहा जाता था ।
ताँगे वाला बोला-‘बाबूजी आप इन तीनों बच्चों को लेकर जायेंगे तो दर्शन नहीं मिलेंगे । बच्चे छोटे हैं न तो खुद जल्दी चल सकेंगे और न आपको चलने देंगे ।
ऐसा कीजिये इन्हें यही छोड़ जाइये मैं इनकी देखभाल करता हूँ तब तक आप आ जाइये ? और हाँ, अपने जूते-चप्पल भी यहीं उतार जाइये, ऐसा न हो कि मन्दिर के बाहर से कोई पहन जाय ।
ताग वाले की बात जँच गयी। मैंने पत्नी को जल्दी जल्दी चलने को कहा। तीनों बच्चे ताँगे में ही रह गये ।
हम दोनों जब मन्दिर में पहुँचे तो परदा आया हुआ था-राजभोग आरती होने वाली थी । दर्शन खुलने पर गोस्वामी जी ने श्रीबिहारीजी महाराज की आरती उतारी। हजारों भक्तजनों के कंठ से-
आरती कीजै श्रीनवनागर की । खंजन नैंन रसमाते रूप सुधासागर की ।
के महाघोष की गूँज पूरे मन्दिर में पुर गयी। आरती के बाद प्रसाद- ग्रहण कर हम दोनों लौटकर पुलिस चौकी के पास पहुँचे । किन्तु वहाँ न तो ताँगा था और न बच्चे ।
हमारे तो पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी। सर्दी के मौसम में भी घबराहट के कारण हम दोनों पति-पत्नी के माथे पर पसीना छलक आया। मैंने सड़क पर दोनों ओर और गौतम पाड़े की गली में दूर-दूर तक देखा किन्तु ताँगे का कहीं पता न था ।
पत्नी के धीरज का बाँध टूटा जा रहा था । क्या करें क्या न करें ? कुछ समझ नहीं पा रहे थे ।
अन्त में, हमने पुलिस चौकी में रिपोर्ट लिखायी। पुलिस वाले ने हमारी अकलमन्दी को कोसते हुए रिपोर्ट लिखी और बोला-‘हम पता कराते हैं थोड़ी देर बाद आकर पूछ लेना । यदि मिल जायेगा तो उसे जरूर गिरफ्तार कर लेंगे ।’
हम दोनों उदास मन से बिहारीजी महाराज के मन्दिर की तरफ लौट आये । मन्दिर का मुख्यद्वार बन्द हो चुका था। मैं मन ही मन सोचता था कि प्रभु ! यह तेरा कैसा न्याय है, कैसी परीक्षा है ?
बच्चे कहाँ चले गये सिवाय तेरे और कौन है जो तेरे दरबार में हमारी मुसीबत को टाल सके ! हे दीनबन्धु ! हमारी सहायता करो । पत्नी की आँखों से आँसुओं की धार एक क्षण को भी नहीं रुकी थी । हम दोनों दुखिया मन्दिर के मुख्यद्वार के सामने ही बैठ गये ।
वहाँ बैठे अन्य यात्रीगण हमारी परेशानी से परिचित होकर हमें सहयोग देने के लिए आग्रह करने लगे। कोई रुपये देने को तैयार था तो कोई टिकट खरीद कर देने को ।
परन्तु हमारे तो बच्चे ही गायब हो गये थे । रुपयों का हम क्या करते ? हमारी टेक तो श्रीबाँकेबिहारीजी से लगी थी। उन्हीं के दरबार में आये थे उन्हीं की जिम्मेदारी थी कि हम सकुशल लौटे ।
धीरे-धीरे तीन घण्टे बीत गये । अचानक मैंने देखा कि वही तांगे वाला मन्दिर के मुख्य द्वार के सामने बने चबूतरे की सीड़ियाँ चढ़ रहा है । देखते-देखते वह हमारे पास आ पहुँचा और पैरों में सिर रखकर रोने लगा- बाबूजी मारिये मुझे ! मैं बहुत पापी हूँ । मुझे पुलिस में दे दीजिये-या जो जी में आये करिये ?
मैंने हड़बड़ी में पूछा – बच्चे कहाँ हैं ?
‘तांगे में’ उसने उत्तर दिया ।
‘और तांगा मुंगेर मन्दिर पर खड़ा है ।’ उसने कहा हम दोनों लगभग दौड़ते से उसके साथ मुंगेर मन्दिर के सामने पहुँचे ।
तीनों बच्चे स्वस्थ सानन्द थे । हमारी जान में जान लौटी । मैंने तांगे वाले से पूछा- बच्चों को लेकर इतनी दूर क्यों चला आया था । वह बोला- बाबूजी ! अब मैं सारी बात सच-सच कहूँगा ।
आपसे कुछ भी न छिपाऊँगा । दरअसल मैं आगरे का रहने वाला हूँ । बच्चों और सामान की चोरी करके बेच देता हूँ । यही मेरा धन्धा है । ताँगा-वाँगा तो बस यों ही समझिये ।
जब आप दर्शनों के लिए चले गये तो मेरे स्वभाव ने जोर मारा और मैंने बच्चों सहित आपका सामान उड़ा देने की योजना बना डाली ।
मैंने बच्चों को वृन्दावन घुमाने का झांसा दिया और पुलिस चौकी के साथ बाली गली में से होकर यहाँ तक ले आया ।
किन्तु यहाँ आकर मेरी योजना धरी की धरी रह गयी । और मैं न तो आपके बच्चों को चुरा सका और न सामान को ।
क्यों, ऐसा क्या हुआ ? मैंने पूछा-वह कहने लगा-‘जब मैं ताँगा लेकर यहाँ पहुँचा और मथुरा जाने को तैयार ही था कि तभी मेरी आँखों के सामने एक आठ-दस वर्ष का बालक ग्वाले के वेश में आकर खड़ा हो गया।
उसकी रहस्यमय मुस्कान को देखकर मेरा सारा शरीर काँपने लगा, घोड़े की लगाम मेरे हाथ से छूटकर न जाने कब गिर गयी। सिर चक्कर खाने लगा और मैं बेहोश होकर गिर पड़ा ।
जब मुझे होश आया तो मैं पागलों-सा दौड़ता हुआ तुम्हारे पास पहुँचा और तुमसे अपने अपराध की क्षमा माँगी ।
उस बालक की चेतावनी अब भी जैसे मेरे कानों में गूंज रही है-‘मूर्ख, या तो मेरे भक्त के बच्चों को उन्हें वापस पहुँचा दें नहीं तो मैं तुझे अन्धा कर दूँगा,और तेरा सर्वनाश कर दूँगा ।’
ताँगे वाला आँखों में आँसू भरकर कह रहा था-‘मैंने तो लाख कोशिश की कि ताँगा दौड़ाकर मथुरा ले जाऊँ । पर उस ग्वाले के सामने एक न चली । तांगा टस से मस तक नहीं हुआ ।
अब आप चाहें तो मुझे पुलिस में दे दें । मैंने भयानक अपराध किया है । हमने इस सब घटना को श्रीबाँकेबिहारीजी महाराज की अचिन्त्य-लीला मानकर उस ताँगे वाले को क्षमा कर दिया । और उसी के ताँगे में बैंठकर शाम को श्रीबिहारीजी के दर्शन करके मथुरा लौटे ।
श्रीबिहारी जी महाराज की अद्भुत कृपा का स्मरण आज भी हमें पुलकित किये रहता है ।
आप वृन्दावन चले जाओ
जब आप श्रीबिहारीजी महाराज के दर्शन करने के उपरान्त परिक्रमा करने के लिए दक्षिण-द्वार से बाहर निकलेंगे तो द्वार से सटा हुआ एक मन्दिर दिखायी देगा, इस मन्दिर में ठाकुर श्री…. विराजमान हैं जो गोस्वामी ओंकारनाथ जी महाराज की सेव्य निधि हैं।
मन्दिर से लगे घर में गोस्वामी जी का सम्पूर्ण परिवार रहता है, गोस्वामी ओंकारनाथ जी श्रीबाँकेबिहारीजी महाराज की राजभोग सेवा के अधिकारी हैं, इन्हीं गोस्वामी जी के ज्येष्ठ पुत्र गोस्वामी अमरनाथ लखनऊ में बैंक में नौकरी करते थे ।
बहुत वर्षों पहले जब अमरनाथ जी की नौकरी लखनऊ में लगी थी तो घर से विदा होते समय पिताश्री ओंकारनाथ जी ने उन्हें हृदय से लगा लिया था ।
उनकी दोनों आँखों में अनायास आँसुओं का समुद्र गहराने लगा-पुत्र का भी ऐसा ही हाल था, जीवन में पहली बार ऐसा | मौका आया था जब पिता-पुत्र को एक दूसरे से पृथक होना पड़ रहा था, किन्तु प्रभु की इच्छा के अनुकूल ही तो चलना होता है-ओंकारनाथ जी अमरनाथ के साथ श्रीबिहारीजी की परिक्रमा से होकर कुँए तक आये ।
कुँए के पास ही रिक्शा खड़ा था जिसमें अमरनाथ के छोटे भाइयों ने उनका सामान जमा दिया था ।
रिक्शा पर बैठने से पूर्व अमरनाथ एक बार पुनः पिताजी के चरण स्पर्श करने को झुके तो पिताजी ने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा-‘बेटा! कमाना-खाना तो जीवन की गाड़ी के घड़-घड़ाहट जैसा होता है।
असली बात है जीवन के दायित्वों को निभाते हुए भी अपने प्राणाराध्य श्रीबांके बिहारीजी महाराज की सेवा का कोई भी अवसर अपने हाथ से निकलने न देना। कुछ भी हो, कहीं भी रहना पर जब
श्रीबिहारीजी महाराज की सेवा का क्रम हो तब अवश्य ही यहाँ उपस्थित रहना ।” जबाब में अमरनाथ जी के रुँधे हुए गले से शब्द बाहर तो नहीं आये किन्तु मन में कहीं बहुत गहरे उन्होंने इन शब्दों को चुपचाप बसा लिया था ।
प्रति वर्ष जब उनका श्रीबिहारीजी महाराज की सेवा का क्रम आता तो वे सपरिवार वृन्दावन आते श्रीबिहारीजी महाराज को विविध भाँति ‘लाड़ लड़ाते, और तत्पश्चात् पुनः लखनऊ लौट जाते। ऐसा बहुत समय तक चलता रहा ।
एक बार किसी गलत फहमी के कारण उनसे बैंक का मैनेजर उलझ गया । तब तो बात आयी गयी होगी किन्तु बाद में मैनेजर मौके वे मौके उनके हर काम में रोड़े अटकाने लगा ।
यह सिलसिला कई महीनों तक यूँ ही चला-अमरनाथ जी ने मैनेजर को कई बार समझाने का प्रयास भी किया, किन्तु वह था कि कुछ समझने के लिए तैयार ही न था । अतः कोई समाधान नहीं हो पाया ।
फरवरी महीने की आखिरी तारीखें चल रहीं थीं । एक दिन गोस्वामी अमरनाथ ने मैनेजर के चैम्बर में प्रवेश कर एक कागज उसकी मेज पर रखा ।
मैनेजर कुछ काम में व्यस्त था आहट पाकर । उसने ऊपर नजर उठायी। एक बार अमरनाथ जी की ओर देखा और दूसरी बार कागज की ओर। बड़े ही अनमने ढंग से उसने वह कागज उठा लिया और पढ़ते ही जैसे उसकी त्यौरियाँ तन गयीं ।
‘मि० गोस्वामी ! ये मार्च का महीना शुरु होने को है और आपको लम्बी छुट्टियाँ चाहिए। यह कतई सम्भव नहीं। मैनेजर ने वह प्रार्थना-पत्र एक ओर सरकाते हुए कहा ।
सर बात यह है कि मुझे श्रीबिहारीजी महाराज की सेवा में शामिल होने के लिए वृन्दावन पहुँचना जरूरी है अतः आप मेरा अवकाश स्वीकृत कर दें ।
अमरनाथ जी ने अनुरोध किया । ‘ओह नो इट इज नॉट पॉसिबिल’ मैनेजर ने कहा-‘यह समय क्लोजिंग का है और आप चाहते हैं कि मैं आपको फालतू के काम के लिए छुट्टी मंजूर कर दूँ ।’
‘फालतू का काम’ सुनते ही अमरनाथजी को ऐसा लगा कि जैसे उनके कानों में किसी ने पिघला हुआ शीशा भर दिया हो ।
उन्होंने मन ही मन श्रीबिहारीजी महाराज से प्रार्थना की कि इस मूर्ख मैनेजर को क्षमादान दें यह नहीं जानता कि यह क्या कह रहा है । किन्तु वृन्दावन जाने में अड़चन आती देख वे खिन्न हो गये ।
उन्होंने अपना प्रार्थना- पत्र मेज पर से उठा लिया और चैम्बर से बाहर यह कहते हुए निकल गये- ‘यदि उसे मुझे अपनी सेवा में बुलाना ही होगा तो वो तुम्हारे रोकने से मुझे यहाँ रुकने नहीं देंगे। अब मैं नहीं आऊँगा छुट्टी की अर्जी लेकर ।
अमरनाथ का मन दुःखी था – काम में मन न लगा-जैसे तैसे शाम आयी और वे बैंक से अपने घर भारी पैरों लौट आये । मन में वृन्दावन जाने की तड़प थी और तन पर नौकरी के प्रतिबन्धों की जकड़न ।
अमरनाथ जी जब घर पहुँचे तो आसमान में अँधेरा गहरा हो चुका था । रास्ते में ही बत्तियाँ जल उठीं थी।
घर के द्वार पर पैर रखते ही भीतर से आती आवाजों ने उन्हें बच्चों तथा धर्मपत्नी के उत्साह से परिचित करा दिया। सभी प्रसन्नता पूर्वक वृन्दावन जाने की तैयारी में जुटे थे । उनकी पत्नी कभी कपड़े ठीक करके रखतीं तो कभी दूसरे सामान ।
बच्चे दौड़ दौड़कर माँ का हाथ बँटा रहे थे । अमरनाथ के पैर एक क्षण को द्वार पर ही ठिठके-वे सोचने लगे कि जैसी ही इन सबको पता लगेगा कि मेरा अवकाश मंजूर नहीं हुआ वैसे ही इन सबका मन टूट जायेगा । किन्तु करूँ तो क्या करूँ ? कोई रास्ता न पाकर वे घर में प्रविष्ट हुए ।
अमरनाथ जी को देखते बच्चों ने उन्हें घेर लिया- बाबूजी ! अम्मा ने मेरी लाल कमीज रखी है ? एक ने कहा, तो दूसरे ने अपने खिलौने न ले चलने की शिकायत की तीसरे की तीसरी बात और चौथे की चौथी ।
अमरनाथ ये सबको हाँ-हूँ करके बहलाया तब तक उनकी पत्नी पानी का गिलास लेकर आ गयी थीं। पानी देने के बाद पत्नी ने अनुभव किया कि अमरनाथ कुछ परेशान से लग रहे हैं, उसने पूछा- क्यों जी ! क्या बात है ?
‘कुछ खास नहीं’ अमरनाथ जी ने कहा- “मैंनेजर पहले से ही खार खाये बैठा था आज अवकाश मंजूर करने से मना कर दिया । “
‘बस ! इसके लिए परेशान होने की क्या बात है । श्रीबिहारीजी को बुलाना होगा तो वो खुद ही कोई न कोई रास्ता निकाल लेंगे ।’ पत्नी ने ढाँढस बँधाया ।
‘हाँ, मैं भी यही सोचता हूँ जैसी उनकी इच्छा होगी वही तो होगा’ – अमरनाथ जी ने दीर्घश्वास छोड़ते हुए कहा, स्वामी हरिदास जी एक पंक्ति अनायास ही उनके होठों से प्रस्फुटित होकर बह चली-तिनका ज्यों बयार के बस, ज्यों-ज्यों चाहे त्यों-त्यों उड़ाय लै डारै अपने रस ।
उधर, बैंक के सभी कर्मचारी जा चुके थे । किन्तु दो चपरासी अभी अनमने से बैंक में ही बैठे थे । सर्दी का मौसम होते हुए भी | मैनेजर साहब अभी घर नहीं गये थे।
वो जायें तो इन्हें भी छुट्टी मिले । तभी घड़ी ने आठ बजाये । टन्न टन्न…. की आवाजें बैंक के सूनेपन को कुरेदकर वहीं लीन हो गयी। मैनेजर ने अपना पैन बन्द किया और कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
दोनों चपरासी दौड़कर उसके पास जा पहुँचे । बैंक बन्द करवाने की अपेक्षित कार्यवाही कर उन्होंने एक चपरासी को सुबह जल्दी आने की हिदायत दी और गाड़ी स्टार्ट कर घर के लिए चल दिये ।
दूसरे दिन सुबह अमरनाथ जी के पड़ौसी आर०पी० वर्मा ने उनका दरवाजा खटखटाया- ‘गोस्वामी जी ! अरे गोस्वामी तुम्हारा फोन है । ‘मैनेजर साहब बोल रहे हैं-जरा जल्दी करो ।’ ! दरअसल अमरनाथ जी ने बैंक में अपने पड़ौसी का फोन नम्बर
दे रखा था ताकि कभी विशेष काम होने पर सम्पर्क हो सके। सुबह- सुबह मैनेजर के फोन कियो जाने की बात उन्हें कुछ विचित्र सी लगी । उन्होंने वर्मा जी के घर की ओर लपकते हुए यह सोच डाला था कि हो न हो मैंनेजर सुबह जल्दी बैंक पहुँचने के लिए ही कहेगा । उन्होंने रिसीवर कान से लगाया-‘हैलो !’
सर ! मैं कुछ समझ नहीं पा रहा जरा साफ-साफ बतायें बात क्या है ? अमरनाथजी ने आग्रह किया ।
अमरनाथजी को तो जैसे विश्वास ही नहीं हुआ-‘ किन्तु सर ! कल तो आपने….।’ ‘अरे ! कल की बात छोड़ो। जो आज कह रहा हूँ वह करो’ उधर से मैनेजर बोला ।
‘हैलो !’ उधर से आवाज आयी । मैं बोल रहा हूँ खन्ना, गोस्वामी जी ऐसा करो आप अपने कार्यक्रम के मुताबिक वृन्दावन चले जाओ मैं पीछे से देख लूँगा ।’
अमरनाथजी को तो जैसे विश्वास ही नहीं हुआ- किन्तु सर ! कल तो आपने….।’ ‘अरे ! कल की बात छोड़ो। जो आज कह रहा हूँ वह करो’ उधर से मैनेजर बोला ।
सर ! मैं कुछ समझ नहीं पा रहा जरा साफ-साफ बतायें बात क्या है ? अमरनाथजी ने आग्रह किया ।
‘भई, बात यह है कि कल जब मैं बैंक बन्द करके चला तो रास्ते में मेरी गाड़ी का ऐक्सीडेण्ट हो गया। मेरे चोट तो अधिक नहीं लगी पर कल रात नर्सिंगहोम में ड्रैसिंग करा कर आया हूँ । घर पर आकर जब सोने की कोशिश की तो सो नहीं सका ।’
क्यों सर ! अमरनाथ ने आश्चर्य पूछा । ‘बता तो रहा हूँ कि जब भी सोने की कोशिश की तो आँख बन्द करते ही कानों में ‘बाँके बिहारीलाल की जै’ का महाघोष सुनाई देने लगता ।
आँखें खोलता तो फिर सब कुछ नौरमल हो जाता। सारी रात यही होता रहा । इसीलिए तुम्हें सुबह फोन करना पड़ा ।’ समझे ! ‘हाँ, सर ! समझ रहा हूँ’ – अमरनाथ जी ‘बिहारीजी महाराज के इस चरित्र को जानकर गद्गद हो उठे फोन का रिसीवर उनके हाथों से नीचे लुढ़ककर झूल गया था ।
अपनी अर्जी किसी के हाथ भिजवा देना’-मैनेजर की आवाज रिसीवर से बाहर आ रही थी, अमरनाथ की प्रसन्नता का ठिकाना न था वे घर की ओर दौड़ लिए, अगले दिन वे सपरिवार श्रीबिहारीजी महाराज के आमन्त्रण की डोर में बँधे उनकी सेवा में पहुँच गये ।