तीसवाँ अध्याय कार्तिक माहात्म्य
राजा पृथु पूछते हैं, हे नारदजी ! भगवान् का अत्यन्त प्रिय भीष्मपंचक व्रत कैसे प्रसिद्ध हुआ?
तब नारदजी कहने लगे, हे राजा पृथु ! यह व्रत आदिकाल से है परन्तु बीच में लुप्त हो गया था।
फिर यह कैसे प्रसिद्ध हुआ, सो कथा हम तुमसे कहते हैं, सुनो।
श्रीकृष्णजी ने भीष्मजी से इस व्रत का वृत्तान्त कहा, तब सर्वप्रथम भीष्मजी ने इस व्रत को किया ।
इसी कारण तभी से यह व्रत भीष्म पंचक के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
हे राजन्! भगवान् श्रीकृष्ण जब पांडवों की ओर से दूत बनकर कौरवों को समझाने गए तो सबसे पहले वह विदुरजी के पास पहुंचे।
विदुरजी ने उनका अत्यन्त आदर सत्कार किया। फिर श्रीकृष्णजी भीष्मजी के पास गए।
वहाँ जाकर कुशल-क्षेम पूछने के बाद श्रीकृष्णजी ने अपने आने का सम्पूर्ण वृत्तान्त भीष्मजी से कहा।
तब भीष्मजी कहने लगे, हे भगवन्! त्रिलोकीनाथ होते हुए आप पांडवों की ओर से ही दूत बनकर क्यों आए?
आपका पांडवों के साथ इतना प्रेम क्यों है? तीनों लोक आपके वश में हैं
तब पांडवों के पास ऐसा क्या वशीकरण मंत्र है अथवा उन्होंने ऐसा कौन सा व्रत, तप अथवा यज्ञ किया है,
जिसके कारण आप उनके वश में हो गए हैं? तब श्रीकृष्णजी हंसकर बोले, हे गंगा-पुत्र !
यद्यपि यह अत्यन्त गुप्त वार्ता है, फिर भी मैं तुमसे कहता हूं। उन्होंने एक ऐसा व्रत किया है,
जो मुझको अत्यन्त प्रिय है। इसीलिए मैं उनके वशीभूत हूं। अब मैं उसका वृत्तान्त तुमसे कहता हूं।
पूर्वकाल में उज्जैन नगरी में पांच ब्राह्मण कवि, शुचि, दृढ़, दन्त और हंस नाम वाले निवास करते थे।
तीनों ही वेदों को जानने वाले, रूपवान, युवावस्था को प्राप्त, गन्धर्व विद्या में अति प्रवीण थे।
वे अनेक देशों में घूमते-फिरते तथा अपनी गान विद्या का प्रदर्शन करके खूब द्रव्य प्राप्त किया करते थे।
एक समय वह मथुरापुरी में सुवीर नाम वाले राजा के पास आये।
संगीत कला में निपुण होने के कारण उन्होंने राजसभा में जाने की इच्छा प्रकट की।
वह चार दिन उपवास करते रहे और अत्यन्त पवित्र श्री यमुनाजी में स्नान करते रहे।
फिर उन्होंने किसी से राजा का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुना । उसने बताया कि राजा की कादम्बरी नाम वाली एक भोग- पत्नी है।
वह संगीत विद्या में निपुण, राग तथा कंठ में अत्यन्त प्रवीण, नाचने में दक्ष तथा रूप यौवन में अद्वितीय सुन्दरी है।
वह प्रतिदिन एकान्त में राजा के सामने नृत्य करती तथा गाती है।
ऐसा सुनकर वे ऐसे स्थान पर जाकर खड़े हो गए जहां से नृत्य तथा ताल का शब्द सुनाई पड़ता था ।
फिर राजा के पास आने-जाने वालों के समीप जाकर कहने लगे, बड़े ही दुःख की बात है कि राजा के पास नृत्यकला का जानने वाला कोई नहीं है।
वीणा में दो तार ढीले हैं, तार बराबर नहीं हैं, बाजे में नृत्य शुद्ध नहीं है।
इसी प्रकार की बातें वह प्रत्येक से कहते रहे। तब तक किसी ने यह बात राजा से जाकर कह दी।
राजा ने तत्काल जहाँ पर कादम्बरी का नृत्य हो रहा था, उन पाँचों को बुलाया।
वहाँ पहुंचकर उन्होंने राजा को आशीर्वाद दिया और बैठ गए।
कादम्बरी ने उनको संगीत विद्या में अति निपुण समझकर विशेष नृत्य किया।
जब उसने चक्र में ताल दिया, तो उन ब्राह्मणों ने उसको रोक दिया।
उसने चक्र छोड़ यथा योग्य ताल दिया, मगर चक्र खंडित नहीं किया।
इस पर कादम्बरी का रूप और गुण देखकर वह पाँचों उस पर मोहित हो गए।
कादम्बरी भी पाँचों को देखकर उन पर मोहित हो गई। उसने रात्रि को चोरी छिपे ब्राह्मणों के पास अपनी एक सखी के हाथ
यह संदेश भेजा कि तुम पाँचों में से एक-एक प्रतिदिन नगरी से दूर उत्तरी कोण में यमुना तट के समीप जनशून्य लताओं से ढका हुआ अनन्त नामक तीर्थ है,
वहाँ पर मेरे पास आकर अपनी-अपनी विद्या तथा गुण का प्रदर्शन करे मैं भी वीणा तथा राग की अपनी कुशलता दिखाऊंगी।
भगवान् कहते हैं, हे भीष्मजी ! एक ब्रह्मचारी जो मेरा भक्त था, दुष्ट संगति के भय से गाँव से अति दूर वहाँ रहता था ।
उन दिनों वह भीष्म पंचक व्रत करता हुआ देवालय में मेरा पूजन करता था।
कार्तिक शुक्ला एकादशी के दिन उन संगीतज्ञ ब्राह्मणों में से कवि नाम वाला ब्राह्मण वहाँ पर आया ।
कादम्बरी भी मुनि के उस स्थान पर पहुंच गई। वहाँ मुनि ने जिस प्रकार पूजा की, उस कवि नामक ब्राह्मण ने भी उसी प्रकार भगवान् का पूजन किया।
उसके बाद वीणा लेकर गान करने लगे। उस मुनि ने क्योंकि अपना मन जीता हुआ था इस कारण उसने गान सुनकर भी क्रोध नहीं किया।
सारी रात कादम्बरी और कवि गायन व नृत्य करते रहे। मुनि को गोबर का आचमन करते देख कवि ने भी वैसा ही किया ।
प्रातःकाल होते ही कादम्बरी राजमहल में पहुँच गई। मुनि की संगति से उसके समस्त पाप दूर हो गये।
इस कारण द्वादशी के दिन कवि अपना समस्त द्रव्य दान करके विरक्त हो गया।
दूसरे दिन शुचि आया। उसने भी कादम्बरी के साथ रात्रभर नृत्य-गायन किया और मुनि की भांति हमारा पूजन करके गोमूत्र का आचमन किया।
फिर प्रातःकाल होते ही वह भी अपना धनादि दान करके विरक्त हो गया।
उसने निश्चय किया, जिस प्रकार कादम्बरी के नृत्य-गायन व रूप को देखकर मुनि का मन चलायमान नहीं हुआ,
उसी प्रकार मुझे भी अपने मन को वश में करना चाहिए।
त्रयोदशी के दिन दृढ़ नाम वाला ब्राह्मण कादम्बरी से मिलने आया और नृत्य-गायन करने के बाद मुनि की तरह पूजन व गौ का दूध पीकर विरक्त होकर चला गया।
चतुर्दशी को वहाँ पर दन्त नाम वाला ब्राह्मण आया और पहले वाले अपने बन्धुओं के समान कादम्बरी के साथ नृत्य-गायन करके मुनि से बचे घी का पान करके शुद्ध चित्त होने के कारण विरक्त हो गया।
सबसे अन्त में पूर्णमासी को हंस नामक ब्राह्मण ने आकर मुनि को देख उनको नमस्कार किया और यमुना में स्नान कर आँवले के वृक्ष के नीचे बैठकर श्राद्ध-कर्म किया।
भगवान् कहते हैं, हे भीष्मजी कार्तिक के महीने में हमारा पूजन तथा दान-पुण्य करने से करोड़ों यज्ञों का फल प्राप्त होता है ।
अतएव हंस नामक वह ब्राह्मण सत्संग, पूजन तथा मुनि के बचे हुए दही का पान करके विरक्त हो गया और अपना सब धन दान करके तीर्थ यात्रा को चला गया।
उधर राजा ने मन्दिर में कादम्बरी के जाने का समाचार सुनकर उसे महल में बन्द कर दिया, जिससे वह मन्दिर न जा सकी।
कार्तिक मास में हमारे सामने नृत्य-गान करने के कारण वही कादम्बरी द्रोपदी हुई तथा हंस नाम वाला वह ब्राह्मण आँवले के वृक्ष के नीचे श्राद्धादि करने से युधिष्ठिर हुआ ।
एकादशी के जागरण के कारण कवि अर्जुन, शुचि सहदेव, दन्त नकुल तथा दृढ़ नाम वाला पराक्रमी भीम हुआ।
हे भीष्मजी ! वस्तुतः इस व्रत के प्रभाव से ही मैं पांडवों के वशीभूत है।
अब तुम्हारे द्वारा यह पंचक व्रत किये जाने से यह तुम्हारे नाम से ही विख्यात होगा अर्थात् भीष्म पंचक व्रत कहलायेगा।
इस व्रत के अन्त में ब्राह्मणों को भोजन कराकर यथाशक्ति दान-दक्षिणा देनी चाहिए।