बीसवाँ अध्याय माघ महात्म्य

बीसवाँ अध्याय माघ महात्म्य

कुमारियों ने कहा- हे माता! आज किन्नारियों के साथ सरोवर पर स्नान करते और खेलते रहने के कारण हमें समय का ज्ञान नहीं रहा, वे अपनी माताओं का ध्यान अपनी ओर से हटाये रखने के लिये तरह-तरह की बातें करने लगी परन्तु उनके हृदय तो उस ब्रह्मचारी युवक पर मोहित थे और जो अदृश्य हो गया था, उस की टीस उन्हें बराबर थी ।

वे विरह की अग्नि से जलती पृथ्वी पर पड़ी छटपटाती रही, किसी से बातचीत न की। वे समस्त ओर से ध्यान को हटाकर एकाग्र मन से ऋषि कुमार का ध्यान करने लगी, उनको रात काटना भारी हो गया ।

जैसे-तैसे उस विरह की रात को काटकर जब प्रातः वे उठी तो जल्दी से घर के बाहर निकली और आपस में सलाह करके उसी सरोवर की ओर चली, जहाँ उन्हें वह ब्रह्मचारी मिला था।

वहाँ पहुँचकर उन्होंने उस सरोवर में स्नान किया और गौरी की प्रतिमा बनाकर उसका पूजन किया। उसी समय वह ऋषि कुमार सदा की भाँति स्नान एवं पूजा अर्चना के लिए उसी सरोवर पर आया।

उसे आता देख उनके हृदय कमल खिल गये और वे बिना कुछ सोचे विचारे दौड़कर उस ब्रह्मचारी के पास जा पहुँची। इस आशय से कि वह कहीं भाग न जाये।

उन सुन्दरियों ने उसे चारों तरफ से घेर लिया और बोली हे प्रियतम! कल तुम हमें छोड़कर भाग गये थे। मगर आज हम तुमको नहीं जाने ।

स्वयं चारों ओर से उन सुन्दरियों द्वारा घिरते देखकर वह ऋषिकुमार चिंता में पड़ गया। उसने उन्हें भली प्रकार समझाते हुए कहा- हे सुन्दरियों!

धर्म की मर्यादा को ध्यान में रखो, मैं तो अभी तक ब्रह्मचारी हूँ और वेदाध्ययन कर रहा हूँ। जब तक मैं गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के योग्य नहीं हो जाता, तब तक मैं विवाह कैसे कर सकता हूँ।

गुरुजनों का कथन है कि प्राणी को अपने वर्ण का • और आश्रम की रक्षा करनी चाहिए इसलिए तुम मुझे वरण करने की विचार त्याग कर अपने इस घेरे को तोड़ कर मुझे बन्धन मुक्त करो ।

वे गन्र्धव कन्यायें कामासक्त हो रही थीं। उस ऋषि पुत्र की वह अमृतवाणी सुनकर वे और अधिक अधीर हो उठी और बोली- हे काम रूपे! विद्वानों का कथन है कि धर्म से अर्थ, अर्थ से काम और काम से धर्म का उदय होता है।

तुम्हारे संचित धर्म के कारण ही अवकाम तुम्हारे सम्मुख है। अतः उसका उपभोग करे। यह तो स्वर्ग भूमि है, यहाँ दिव्य भोगों की कमी नहीं है।

उचित है कि आप हमें निराश न करें और हमारे कामग्नि से जलते हुए हृदय को शांति पहुँचायें। तब उस ऋषि कुमार ने गम्भीर होकर कहा- हे देवियों! तुम्हारा कथन न्याय संगत है परन्तु आप मेरी कठिनाई को बिना देखे ही अपना निर्णय दे रही हैं।

मुझे अपना ब्रह्मचर्य व्रत को समाप्त करने के लिए गुरु की आज्ञा लेना अनिवार्य है। तब उन कन्याओं ने काम से विफल होकर कहा- तुम महान मूर्ख हो ।

शास्त्रों का कहना है कि बुद्धिमान वही है जो सहज प्राप्त होने वाली दिव्य औषधियां, ब्रह्मरसायनों, सिद्धियों, निधियों, रसों, कलाओं, सुन्दर स्त्रियों, मित्रों और धर्म सिद्धि को नहीं त्यागता ।

यदि ये वस्तुयें अनायास ही उसे प्राप्त होती है तो उसे किंचित भी आलस्य नहीं करना चाहिए। जिसे हम जैसी सुन्दरी प्राप्त होती हैं वह बड़ा भाग्यशाली होता है ।

हमारी सुन्दरता को देखो और हमारे कुल आदि को समझो । दैव की गति है कि हम तुम जैसे तपस्वी कुमार पर ही आसक्त हुई ।

अब तुम्हारा कल्याण इसी में है कि हमारे साथ गन्धर्व विवाह करके हमें स्वीकार करो अन्यथा हम इसी वन में निराश होकर अपने प्राण त्याग देंगे ।

तब उस धर्म प्राण ऋषि कुमार ने कहा- हे सुन्दरियों! धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों वर्ग विधिपूर्वक सेवन करने से ही प्राणी को उनका सुफल प्राप्त होता है।

अतः जब तक मेरा ब्रह्मचर्य व्रत पूर्ण नहीं हो जाता, मैं कदापि तुम्हारा वरण नहीं कर सकता क्योंकि समय से पूर्व किया कर्म उसी प्रकार नष्ट होता है, जैसे कि सागर में डाला गया एक लोटा जल ।

हे कन्याओं! इस समय मेरा मन धर्म में आसक्त है। अतः मैं तुम्हारी इच्छा की पूर्ति कदापि नहीं कर सकता। उसके इस उत्तर को जान और अपनी कामवासना से मदान्ध हुई उन युवतियों ने अपने हाथों को छोड़ दिया और सबकी सब एक होकर उस ऋषि कुमार से चिपट गई।

प्रमोदिनी ने उसके चरण पकड़े, सुशीला और सुस्वरा ने उसकी दोनों भुजाओं को जकड़कर पकड़ लिया, सुतारा उसके वक्ष से चिपट गई और चन्द्रिका उसके मुख को चूमने लगी। इस प्रकार कामोशक्ति उन गन्धर्व कन्याओं के उत्तेजित करने पर भी वह ऋषिकुमार अपने धर्म की रक्षा में सफल रहा।

उसे प्रचण्ड क्रोध आया और तब श्राप देते हुये बोला, हे कामासिक्तों! तुमने पिशाचियों की भांति मुझे घेरा है, अतः तुम अब पिशाचिनियों का रूप ग्रहण करो ।इस श्राप को सुनते ही वे उससे छिटक कर दूर हटी और क्रोध में भरकर बोली- हे पापी! हम निरपराध कन्याओं को तूने यह श्राप क्यों दिया ।

तू धर्मज्ञ नहीं है, जो प्रिय और अप्रिय कार्य का भी भेद नहीं समझता । सभी जानते हैं कि प्रेम पात्र, भक्त एवं मित्रों के साथ द्रोह करने वालों को कोई सुख नहीं मिलता है। जैसा तूने हमारे साथ किया उसका फल तुझे भी प्राप्त हो सके इसलिए हम भी तुझे श्राप देती हैं कि तू भी पिशाच हो जा ।

इस प्रकार परस्पर श्रापों के आदान-प्रदान से वे कन्यायें पिशाचिनी और वह ऋषिकुमार पिशाच बन उसी सरोवर के तट पर निवास करने लगे । हे राजन्! कर्म के फल को प्राणी अवश्य ही प्राप्त करता है। कर्म फल सदैव छाया की तरह प्राणी के साथ रहता है। देवता भी कर्म फल से मुक्त नहीं होते हैं।

उनके माता-पिता घर पर उनके लिए व्यथित थे और वे इस सरोवर के किनारे भटकते हुये पिशाच योनि को भोग रही थीं। बहुत समय व्यतीत हो जाने पर एक दिन लोमश ऋषि पौष की चतुर्दशी को सरोवर पर स्नान को।

भूख से व्याकुल पिशाच एवं पिशाचिनियां उनकी ओर भागे परन्तु लोमश ऋषि के तेज के कारण वे पास पहुँचने से पहले ही जलने लगे और इस कारण वे दूर भाग गये ।वह वहाँ अग्निमय का पिता वेदनिधि लोमश ऋषि को सरोवर तट पर आया देख इनके पास आकर हाथ जोड़कर बोला- हे महामुने ।

महाभाग्य के उदय होने पर ही उत्तम पुरुषों के दर्शन होते हैं। उत्तम मुनियों के दर्शन मात्र ही से प्राणियों के पाप नष्ट हो जाते हैं । हे नाथ! मेरा यह पुत्र और ये सुन्दर गन्धर्व कन्यायें पिशाच योनि को प्राप्त हुये हैं। ये इनके परस्पर श्राप का प्रभाव है।

इतना कह उन्होंने सम्पूर्ण वृतान्त ऋषि को सुनाते हुये कहा- हे मुने! आपके दर्शन मात्र से इनका निस्तार होगा। अब आप कृपा करके इनके श्राप नष्ट होने का उपाय बताइये और इनके दुःख को दूर करिये।

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