श्री राधा
भगवान नारायण कहते हैं : नारद! सुनो, मूलप्रकृतिस्वरूपिणी भगवती भुवनेश्वरी के सकाश से संसार की उत्पत्ति के समय दो शक्तियां प्रकट हुईं। श्री राधा भगवान श्री कृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं तथा श्री दुर्गा उनकी बुद्धि की अधिष्ठात्री।
ये ही दोनों देवियां सम्पूर्ण संसार को नियन्त्रण में रखती तथा प्रेरणा प्रदान करती हैं।
नारद! पहले मैं श्री राधा का मन्त्र बतलाता हूं, तुम भक्तिपूर्वक सुनो। इस श्रेष्ठ मन्त्र के आदि में मायाबीज (ह्रीं) का प्रयोग करें तो यह भगवती श्री राधा वाञ्छाचिन्तामणि मन्त्र कहा जाता है।
मंत्र इस तरह है : ह्रीं श्री राधायै स्वाहा।
असंख्य मुख तथा जिह्वा वाले भी इस मन्त्र के माहात्म्य का वर्णन नहीं कर सकते। इस मन्त्र का ऋषि मैं नारायण हूं, गायत्री छन्द है, श्री राधा इस मन्त्र की देवता हैं। ताराबीज तथा शक्तिबीज को इनकी शक्ति कहा गया है।
मुने! इसके बाद रासेश्वरी भगवती श्री राधा का सामवेद में वर्णित पूर्वोक्त विधि के अनुसार ही ध्यान करना चाहिए। भगवती श्री राधा का वर्ण श्वेतचम्पक के समान है।
इनका मुख ऐसा प्रतीत होता है, मानो शरऋतु का चन्द्रमा हो । आंखें शरदऋतु के विकसित कमल की तुलना कर रही हैं। पावन चिन्मय दिव्य रेशमी वस्त्र इन्होंने पहन रखे हैं।
रासमण्डल में विराजमान होकर ये देवी सबको अभय प्रदान करती हैं। ये शान्त स्वरूपा देवी सदा शाश्वतयौवना बनी रहती हैं। ये परमेश्वरी देवी भगवान श्री कृष्ण के प्राणों की अधिदेवता हैं। वेदों ने इनकी महिमा का वर्णन किया है।
इस तरह हृदय में ध्यान करके शालग्राम की मूर्ति, कलश या आठ दल वाले यन्त्र पर श्री राधा देवी का आवाहन करके विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए।
उसके बाद परमेश्वरी श्री राधा के पावन परिवार का अर्चन करना चाहिए। पूर्व, अग्निकोण तथा वायव्य दिशा के मध्य में श्री राधा के दिक्सम्बन्धी अंग की पूजा होती है।
इसके बाद अष्टदल – यन्त्र को आगे करके उसके अग्रभाग में मालावती, अग्निकोण में माधवी, दक्षिण में रत्नमाला, नैर्ऋत्यकोण में सुशीला, पश्चिम में शशिकला, वायव्यकोण में पारिजाता, उत्तर में परावती और ईशानकोण में सुन्दरी प्रियकारिणी इन-इन दिशाओं के दलों में बुद्धिमान पुरुष उपर्युक्त देवियों की पूजा करे।
यन्त्र पर ही दल के बाहर ब्रह्मा आदि देवताओं, सामने भूमि पर दिक्पालों तथा वज्र आदि अस्त्रों-शस्त्रों की अर्चना करे-इस तरह भगवती श्री राधा की पूजा करनी चाहिए।
इस तरह जो पुरुष रासेश्वरी परमपूज्या श्री राधा देवी की अर्चना करते हैं, वे भगवान विष्णु के समान हो सदा गोलोक में निवास करते हैं। जो बुद्धिमान पुरुष शुभ अवसर पर भगवती श्री राधा का जन्मोत्सव मनाता है, उसे रासेश्वरी श्री राधा अपना सांनिध्य प्रदान कर देती हैं।
नारद जी ने कहा : मुने! अब आप सम्यक् प्रकार से स्तोत्र सुनने की कृपा करें, जिससे भगवती श्री राधा प्रसन्न हो जाती हैं। भगवान नारायण कहते हैं: भगवती परमेशानी! तुम रासमण्डल में विराजमान रहती हो।
तुम्हें नमस्कार है । रासेश्वरि ! भगवान श्री कृष्ण तुम्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय मानते हैं, तुम्हें नमस्कार है । करुणार्णवे! तुम त्रिलोक की जननी हो, मैं तुम्हें नमस्कार करता हूं।
तुम मुझ पर प्रसन्न होने की कृपा करो। ब्रह्मा, विष्णु आदि समस्त देवता तुम्हारे चरण-कमलों की उपासना करते हैं। जगदम्बे! तुम सरस्वती, सावित्री, शंकरी, गंगा, पद्मावती तथा षष्ठी, मंगलचण्डिका इन रूपों से विराजती हो। तुम्हें नमस्कार है । तुलसीरूपे ! तुम्हें नमस्कार है। लक्ष्मीस्वरूपिणी! तुम्हें नमस्कार है।
भगवती दुर्गे! तुम्हें नमस्कार है। सर्वरूपिणी! तुम्हें नमस्कार है। जननी! तुम मूल प्रकृति स्वरूपा तथा करुणा की सागर हो। हम तुम्हारी उपासना करते हैं, इसलिए तुम इस संसार सागर से हमारा उद्धार करने की कृपा करो ।
जो पुरुष त्रिकाल संध्या के समय भगवती श्री राधा का स्मरण करते हुए उनके इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके लिए कभी कोई भी वस्तु किंचन्मात्र भी दुर्लभ नहीं हो सकती। आयु समाप्त होने पर शरीर का त्यागकर वह बड़भागी पुरुष गोलोक में जा रासमण्डल में नित्य स्थान पाता है।