श्री सरस्वती चालीसा – जय श्री सकल बुद्धि बलरासी

सरस्वती चालीसा

माँ सरस्वती की कथा

भगवान विष्णु की आज्ञा से प्रजापति ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना करके पृथ्वी पर आए तो उन्हें चारों ओर सुनसान तथा निर्जन दिखाई दिया।

उदासी से सारा वातावरण मूक सा हो गया था। जैसे किसी के वाणी न हो। इस उदासी तथा मलीनता को दूर करने के लिए ब्रह्मा जी ने अपने कमण्डल से जल छिड़का।

उन जल कणों के वृक्षों पर पड़ते ही चार भुजाओं वाली एक शक्ति उत्पन्न हुई जो दो हाथों से वीणा बजा रही थी तथा दो हाथों में पुस्तक तथा माला धारण किए थे। ब्रह्मा जी ने उस देवी से वीणा बजा कर उदासी दूर करने को कहा।

उस देवी ने वीणा बजा कर सब जीवों को वाणी प्रदान की। इस देवी का नाम सरस्वती पड़ा। यह देवी विद्या और बुद्धि को देने वाली है।

चालीसा

सरस्वती चालीसा एक भक्ति गीत है जो सरस्वती माता पर आधारित है। सरस्वती चालीसा एक लोकप्रिय प्रार्थना है जो 40 छन्दों से बनी है। ज्ञान और बुद्धि का विकास करने वालों के लिए सरस्वती चालीसा का पाठ लाभकारी होता है।

॥ दोहा ॥

जनक जननि पद कमल रज, निज मस्तक पर धारि । बन्दौं मातु सरस्वती,बुद्धि बल दे दातारि ॥

पूर्ण जगत में व्याप्त तव,महिमा अमित अनंतु। रामसागर के पाप को, मातु तुही अब हन्तु ॥

॥ चौपाई ॥

जय श्री सकल बुद्धि बलरासी । जय सर्वज्ञ अमर अविनासी ॥

जय जय जय वीणाकर धारी। करती सदा सुहंस सवारी ॥

रूप चतुर्भुजधारी माता। सकल विश्व अन्दर विख्याता॥

जग में पाप बुद्धि जब होती। जबहि धर्म की फीकी ज्योती॥

तबहि मातु ले निज अवतारा । पाप हीन करती महि तारा॥

बाल्मीकि जी थे बहम ज्ञानी । तव प्रसाद जानै संसारा॥

रामायण जो रचे बनाई । आदि कवी की पदवीपाई ॥

कालिदास जो भये विख्याता।तेरी कृपा दृष्टि से माता ॥

तुलसी सूर आदि विद्धाना। भये और जो ज्ञानीनाना॥

तिन्हहिं न और रहेउ अवलम्बा। केवल कृपा आपकी अम्बा ॥

करहु कृपा सोइ मातु भवानी। दुखित दीन निज दासहि जानी॥

पुत्र करै अपराध बहूता। तेहि न धरइ चित सुन्दर माता॥

राखु लाज जननी अब मेरी । विनय करूं बहु भांति घनेरी॥

मैं अनाथ तेरी अवलंबा । कृपा करउ जय जय जगदंबा ॥

मधु कैटभ जो अति बलवाना। बाहुयुद्ध विष्णू ते ठाना॥

समर हजार पांच में घोरा। फिर भी मुख उनसे मोरा ॥

मातु सहाय भई तेहि काला । बुद्धि विपरीत करी खलहाला॥

तेहि ते मृत्यु भई खल केरी। पुरवहु मातु मनोरथ मेरी ॥

चंड मुण्ड जो थे विख्याता।छण महुं संहारेउ तेहि माता॥

रक्तबीज से समरथ पापी। सुर-मुनि हृदय धरा सब कांपी॥

काटेउ सिर जिम कदली खम्बा बार बार बिनवउं जगदंबा ॥

जग प्रसिद्ध जो शुंभ निशुंभा । छिन में बधे ताहि तू अम्बा ॥

भरत-मातु बुधि फेरेउ जाई। रामचन्द्र बनवास कराई ॥

एहि विधि रावन वध तुम कीन्हा । सुर नर मुनि सब कहुं सुख दीन्हा॥

को समरथ तव यश गुन गाना। निगम अनादि अनंत बखाना॥

विष्णु रूद्र अज सकहिं न मारी। जिनकी हो तुम रक्षाकारी ॥

रक्त दन्तिका और शताक्षी नाम अपार है दानवभक्षी॥

दुर्गम काज धरा पर कीन्हा । दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा ॥

दुर्ग आदि हरनी तू माता। कृपा करहु जब जब सुख दाता॥

नृप कोपित जो मारन चाहै । कानन में घेरे मृगनाहै॥

सागर मध्य पोत के भंगे। अति तूफान नहिं कोऊसंगे॥

भूत प्रेत बाधा या दुःख में।हो दरिद्र अथवा संकटमें ॥

नाम जपे मंगल सब होई । संशय इसमें करइ न कोई॥

पुत्रहीन जो आतुर भाई । सबै छांड़ि पूजें एहि माई ॥

करै पाठ नित यह चालीसा । होय पुत्र सुन्दर गुणईसा॥

धूपादिक नैवेद्य चढावै। संकट रहित अवश्य हो जावै॥

भक्ति मातु की करै हमेशा। निकट न आवै ताहि कलेशा॥

बंदी पाठ करें शत बारा। बंदी पाश दूर हो सारा ॥

करहु कृपा भवमुक्ति भवानी। मो कहं दास सदानिज जानी ॥

॥ दोहा ॥

माता सूरज कान्ति तव, अंधकार मम रूप। डूबन ते रक्षा करहु,परूं न मैं भव-कूप ॥

बल बुद्धि विद्या देहुं मोहि, सुनहु सरस्वति मातु । अधम रामसागरहिं तुम, आश्रय देउ पुनातु ॥

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