इक्कीसवाँ अध्याय श्रावण महात्म्य
ईश्वर ने कहा- हे सनत्कुमार! श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के रोज वेदोत्सर्जन उपाकर्म होता है या पौष मास की पूर्णिमा तिथि उत्सर्जन की कही गई है।
उत्सर्जन में पौष मास या माघ मास या प्रतिपदा तिथि या रोहिणी नक्षत्र कहा गया है। दूसरा समय करना उत्तम कहा गया है।
अतः श्रावण मास पूर्णिमा के रोज उत्सर्जन अभीष्ट है तथा बव्हच शाखार्थी उपाकर्म में श्रावण नक्षत्र हो, उसी रोज ऋग्वेदियों का उपाकर्म में श्रावण नक्षत्र अभीष्ट है।
चतुर्दशी, पूर्णमासी प्रतिपदा तिथि के रोज या जिस किसी भी रोज श्रवण नक्षत्र हो, उसी रोज ऋग्वेदियों का उपाकर्म होता है।
यजुर्वेदियों का उपाकर्म पूर्णिमा में तथा सामवेदियों का हस्त नक्षत्र में होता है। उपाकर्म गुरु और ‘शुक्रास्त में पहला उपाकर्म शुभारम्भ न करे, यह शास्त्र का मत है।
ग्रहण तथा सक्रान्ति आदि योग, दुष्ट समय आ जाने पर दूसरे काल में करें । हस्त नक्षत्र युक्त पंचमी या भाद्रपद पूर्णिमा के रोज अपने-अपने गृह्यसूत्र के अनुसार उत्सर्जन उपाकर्म करे।
मलमास आ जाने पर शुक्ल पक्ष में करें। ये दोनों उत्सर्जन और उपाकर्म नित्य है। नियम द्वारा इनको हर साल करे।
उपाकर्म की समाप्ति होने पर द्विजातियों के समक्ष उसी सभा में स्त्री सभादीप समर्पण करे। उसे आचार्य या अन्य ब्राह्मण को दे ।
पहले चाँदी या ताँबे के पात्र में एक सेर गेहूँ रख उसके ऊपर गेहूँ के आटे का दीया बना कर रखे तथा उसे जला दे ।
घी या तेल से योग कर तीन बत्ती, ब्राह्मण को दक्षिणा पान सहित दे। दीया तथा ब्राह्मण का पूजन कर इस मन्त्र को कहे- यह श्रेष्ठ सभादीप दक्षिणा पान सहित देवेदेवार्थ के लिए दिया।
इस सभादीप के देने से मेरे सब मनोरथ परिपूर्ण हो तथा पुत्र-पौत्र आदि सब कुल समुज्जवल हो, यश की वृद्धि हो।
इस तरह प्रार्थना मात्र से जन्मान्तर में देवांगनाओं के तुल्य रूप मिल जाता है। इस प्रकार पाँच साल तक करने के बाद उद्यापन करे ।
यथाशक्ति भक्ति से ब्राह्मण को दक्षिणा दे। हे विप्र! आप से, सभादीप का यह उत्तम महात्म्य कहा। उसी रात में श्रवण कर्म कहा।
उसी के समीप सर्प बलि करे। दोनों कार्य अपने-अपने गृह्य सूत्रों को देखकर करे । हयग्रीव उपासक के लिए यह नित्य है।
श्रावण मास पूर्णिमा के रोज हयग्रीव जयन्ती महोत्सव करे। श्रावण मास पूर्णिमा के रोज श्रवण नक्षत्र में भगवान हयग्रीव ने पहले जन्म लिया।
उसी समय सम्पूर्ण पाप नाश करने वाला ‘सामवेद’ गाया। इसी पूर्णिमा के रोज ‘रक्षाबंधन’ कहा है। यह सब रोगों तथा सब अशुभों का नाश करने वाला है।
हे मुनि शादुल! इसके पुराने इतिहास को आप सुनें। पहले इन्द्राणी ने जय सिद्धयर्थं इन्द्र के लिए इसे किया। हे विप्र !
पहले बारह साल लगातार देव तथा असुर युद्ध हुआ। इन्द्राणी ने उसी समय सुरेश्वर को थका देखकर कहा- हे देव ! आप चतुर्दशी हैं।
कल सुबह अच्छा होगा। मैं रक्षा करूंगी। जिसे करने मात्र से आप अजेय होंगे।
यों कहकर इन्द्राणी ने पूर्णिमा के रोज मंगल आदि कर हर्ष देने वाली रक्षा को दाहिने हाथ में बाँध दी। इन्द्र ने रक्षा बंधवा ब्राह्मणों सहित स्वस्तिवाचन किया।
दानव सेना पर के चढ़ाई की क्षण भर में प्रतापी इन्द्र ने दानवों को जीत, लोकत्रय में फिर से विजय प्राप्त दे किया । हे मुनीश्वर ! आपसे मैंने यह रक्षा काप्रभाव कहा।