तेरहवाँ अध्याय कार्तिक माहात्म्य

तेरहवाँ अध्याय कार्तिक माहात्म्य

इतनी कथा सुनकर राजा पृथु ने कहा कि हे महाराज! कृपा करके भगवान् की पूजा का माहात्म्य कहिये। तब नारद जी कहने लगे कि हे राजा!

जो हंसी में भी भगवान् का भजन करता है वह परमपद को प्राप्त हो जाता है। परन्तु जो श्रद्धापूर्वक भजन करता है उसका तो कहना ही क्या है।

इस सम्बन्ध में हम तुमको एक पुराना इतिहास सुनाते हैं। कलिंद पर्वत पर बसे दीर्घपुर नाम के नगर में अति धर्मात्मा, प्रजा को पुत्र के समान पालने वाला सुबाहु नाम का राजा राज्य करता था।

उसके धूम्रकेश नाम वाला अति दुष्ट, चोर, जुआरी, पर-स्त्री गामी तथा व्यभिचारी एक पुत्र था। उसकी यह दशा देखकर उसके पिता राजा सुबाहु ने उसको ताड़ना दी, परन्तु वह किसी प्रकार नहीं माना।

गेंद खेलते हुए एक दिन उसकी गेंद छोटी रानी के महल में जा गिरी। जब वह गेंद लेने के लिए महल में गया तो रानी उस पर मोहित हो गई और उन दोनों ने कामांध होकर भोग किया।

जब राजा को इस बात का पता चला तो उसने कुमार को देश निकाला दे दिया, पुत्र होने के कारण उसे प्राणदण्ड नहीं दिया।

अब राजकुमार वन में रहकर प्रतिदिन मांस खाता और रात्रि को वेश्याओं के घर में रहता । चोरी आदि करके जो द्रव्य लाता वह वेश्याओं को दे देता। इस प्रकार फिरते-फिरते वह एक दिन वृन्दावन में आ गया।

कुछ समय बाद सत्यव्रत नाम वाला एक भगवान् विष्णु का भक्त अपना घर बार छोड़कर कार्तिक मास में भगवान् का पूजन करता था और वह केवल कन्द, मूल तथा फल ही खाता था।

वह नित्य भगवान् से प्रार्थना करता कि हे भगवन्! इस दुःखरूपी समुद्र में डूबते हुए मुझ दीन की रक्षा कीजिए।

श्री राधाजी सहित मैं आपको नमस्कार करता हूँ। वह प्रेम में मग्न होकर रोने भी लग जाता। इसी प्रकार वह नित्यप्रति करता।

दैवयोग से एक दिन धूम्रकेश ने उस ब्राह्मण की यह क्रिया देखी। जब रात्रि को घर आया तो वहां आकर वेश्या के सामने उसने भी मिट्टी की मूर्ति बनाकर वैसे ही सब कृत्य किया।

अन्त में उसी भांति स्तुति आदि करके रात्रि को वेश्या के घर में ही सो गया। दैवयोग से राजा के दूत भी उसी समय वहां आ गये

और उनके हाथ से धूम्रकेश वहां मारा गया और यमदूत उसको महापापी समझकर मारते हुए पकड़कर उसको यमराज के पास लाए।
उसको देखते ही यमराज खड़े हो गये तथा उसको पाद्य, अर्घ्य आदि प्रदान किया। फिर अपने दूतों से कहा कि तुमको धिक्कार है,

जब तुमसे हमारा कहना है कि विष्णु भक्तों को यहां पर मत लाओ, फिर धूम्रकेश को यहां पर क्यों लाये? उसने चाहे हास्य से ही कार्तिक मास का व्रत वृन्दावन धाम में किया,

मगर फिर भी यह वैकुण्ठ में जाने के योग्य है। यमराज पुनः धूम्रकेश से बोले कि भगवान् की भक्ति नव प्रकार की है। उनकी कथा सुनने से राजा परीक्षित,
कीर्तन से शुकदेव, स्मरण से प्रहलाद, पाद सेवा से लक्ष्मी, पूजा से पृथु, वन्दना से अक्रूर, दास भाव से सुग्रीव, मित्रभाव से अर्जुन,

आत्म निवेदन से राजा बलि जिस प्रकार परमपद को प्राप्त हुए हैं उसी प्रकार तुमने भी चाहे हास्य से ही भगवान् की पूजा की, मगर फिर भी तुम स्वर्ग के अधिकारी हो।

यद्यपि तुम अपने कर्मानुसार पहले नरक के अधिकारी थे। मगर अब वैकुण्ठ के अधिकारी हो । कार्तिक मास में की गई भगवान् की पूजा व्यर्थ नहीं जा सकती।

जहां पर भगवान् शालिग्राम हैं वहां पर ही गंडकी नदी और सब तीर्थ हैं। तब धूम्रकेश यमराज से पूछने लगा कि भगवान् सब नदियों को छोड़कर गंडकी को कैसे प्राप्त हुए?

यमराज कहने लगे कि किसी समय वेदशिरा नाम के ऋषि सब लोकों के हित के लिए गंगा तट पर तपस्या कर रहे थे।

उस रमणीक स्थान में उनके तप से इन्द्र अत्यन्त भयभीत हुआ और उनकी तपस्या को भंग करने के लिए मंजुघोषा नाम वाली अप्सरा को भेजा। मंजुघोषा वन में क्रीड़ा करती हुई अपने यौवन तथा रूप का प्रदर्शन करके अनेक हाव-भाव दिखाने लगी।

उसी समय मंजुघोषा ने मुनि के चरण का स्पर्श किया तो ऋषि के रोमांच खड़े हो गये। उस समय मंजुघोषा ने ऋषि को अपने वश में जानकर उनके गले में अपनी भुजायें डाल दीं।

तब ऋषि ने क्रोधित होकर श्राप दिया कि तुम क्योंकि मुझे इस संसार सागर में डालने को उद्यत हुई हो सो तुम नदी बन जाओ।

तब मंजुघोषा कहने लगी कि हे मुने! मैं श्राप योग्य नहीं हैं, आप मुझे क्षमा कर दीजिये। तब मुनि कहने लगे कि जिस समय विष्णु वृन्दा के श्राप वश शिलारूप होकर तुममें (गंडकी नदी में ) स्थित होंगे, तब तुम भगवान् को धारण करने वाली होगी।
अतः तुम्हारा श्राप वरदान से भी अधिक श्रेष्ठ होगा। यमराज कहने लगे कि हे राजकुमार! अब तुम विष्णुलोक को जाओ। तब धूम्रकेश सुन्दर विमान में बैठकर वैकुण्ठ लोक को चला गया।

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