नौवाँ अध्याय श्रावण महात्म्य
ईश्वर ने कहा- हे सनत्कुमार! अब शुक्रवार की कथा कहूँगा। जिसे प्राणी श्रद्धा से सुनकर समस्त विपत्ति से छूट जाता है।
पाण्डव वंश में उत्पन्न एक सुशील नाम वाला राजा था। उसने बहुत प्रयत्न किये लेकिन पुत्र नहीं हुआ। उसकी मुकेशी नाम की पत्नी सर्वगुणों से युक्त थी ।
जब पुत्र नहीं प्राप्त हुआ तो वह महती चिन्ताग्रस्त हुई। वह स्त्री स्वभाव के कारण प्रत्येक महीने में कपड़े के टुकड़ों को अपने उदर में बांधकर पेट की वृद्धि करती थी।
इस तरह साहस के कारण स्वप्रसूति के अनुसार मुकेशी गर्भिणी को खोजती रही प्रारब्ध से पुरोहित की पत्नी को उसने देखा उस समय वह गर्भिणी थी।
कपटी राजा की पत्नी ने प्रसव समय में दाई के कार्य करने वाली अन्य किसी स्त्री को इस काम के लिए नियुक्त किया।
पुरोहित की पत्नी ने प्रसव समय में दाई के कार्य करने वाली अन्य किसी स्त्री को इस काम के लिए नियुक्त किया।
रानी ने उस सूतिका को एकांत में बहुत धन दिया तथा अपने गर्भ के अनुकरण की सारी बातें कह सुनायीं!
राजा ने इधर अपनी पत्नी रानी को गर्भवती जानकर पुंसवन तथा सीमन्तोन्नयन बड़े प्रसन्न मन से किया। पुरोहित की पत्नी का प्रसव का समय नजदीक आया,
यह सुन उसी तरह रानी ने भी वचन रूपी कार्य किया। पुरोहित की स्त्री गर्भवती थी । प्रसूति की बात जानती नहीं थी ।
अतः दाई की वाणी का पालन करती थी । पुरोहित की स्त्री के वंचना करने के लिए दाई ने उसके नेत्र बांध दिये।
उत्पन्न हुए पुत्र को किसी के द्वारा राजमहिषी के समीप भिजवाया। इस प्रकार राजमहिषी के समीप पुत्र जाना कोई नहीं जान सका ।
रानी ने पुत्र ग्रहण कर कहा कि मेरे लड़का हुआ और सब जगह खबर कर दी, इधर दाई ने पुरोहित पत्नी के नेत्र-बन्धन खोले।
वह अपने साथ मांस की एक पिण्डी लाई थी। पुरोहित पत्नी को उसी को दिखाया तथा विस्मय और खेद युक्त वाणी से प्रसूतिका आप की कहने लगी-
यह अनिष्ट हुआ है, पतिदेव से कहकर इसकी शान्ति करवाना। पुत्र नहीं हुआ तो न सही पुरोहित पत्नी को प्रसव स्पर्श चिन्ता हुई।
क्या इसने कपट किया? यों सन्दिग्धावस्था में थी। ईश्वर ने सनत्कुमार से कहा- राजा ने पुत्र की उत्पत्ति सुनी तो जातकर्म संस्कार आदि करके ब्राह्मणों को गज, अश्व, रथ आदि दान दिया।
जो कैदी जेलखाने में थे, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक छोड़कर सूतकांत में नामकरण आदि संस्कार किए। राजा ने उसका प्रियव्रत नाम रखा।
श्रावण महीने के आ जाने पर पुरोहित पत्नी ने शुक्रवार के दिन भक्ति द्वारा ‘जीवन्तिका’ का अर्चन किया।
दीवाल में बहुत लड़कों के सहित जीवन्तिका मूर्ति लिखवाकर पुष्पमाला से अर्चन कर पांच दीपक बनाकर उनमें दीपक जलाती तथा आप भी गेहूं के पिसान के दीपक को घृत में पकाकर भोजन किया।
अक्षत फेंककर कहा- जहाँ भी मेरा लड़का हों, हे करुणानिधे! हे जीवन्तिका उसे रक्षित रखना। यों प्रार्थना कर कथा श्रवण कर यथाविधि विसर्जन किया।
जीवन्तिका के प्रसाद से बालक दीर्घायु हुआ। उस रोज से जीवन्तिका देवी उस पुत्र की मातृ गौरव से रात-दिन रक्षा करने लगी ।
यों कुछ काल बीतने पर राजा मर गये। पितृभक्त पुत्र ने पिता की पारलौकिक क्रिया की । फिर मंत्री पुरोहितों ने प्रियव्रत को राज्य – सिंहासन पर बैठा दिया।
उसने प्रजा की रक्षा तथा कुछ काल तक राज्य कर, राज्य का भार वृद्ध मन्त्रियों को दे पितृऋण से मुक्ति प्राप्त करने के लिए भक्ति द्वारा ‘गया’ जाने की इच्छा की।
उसने राजकीय वेष छोड़कर कार्पटिक वेष बनाकर यात्रा की। रास्ते में किसी गृहस्थी के मकान में निवास किया। उसी रोज उसकी पत्नी को क्रमशः षष्ठी देवी मार चुकी थी।
पर इस लड़के के हो जाने पर पांचवे रोज राजा वहाँ गया था।
राजा ने शयन किया तो जब सत षष्ठी देवी बालक ग्रहण करने आई तब षष्ठी देवी को देखकर जीवन्तिका ने कहा कि षष्ठी देवी इस राजा को लांघ कर मत जाओ।
यों जीवन्तिका के मना करने पर जैसे षष्ठी देवी आई वैसे ही खाली चली गयी। उसने पांचवे रोज पुत्र को जीवित देखकर और राजा से प्रार्थना की। राजन्!
आज के रोज मेरे मकान पर आप ठहरें। क्योंकि हे प्रभो! आपकी दया से यह मेरा छठवां पुत्र जीवित है। गृहस्थी की ऐसी प्रार्थना सुनकर प्रियव्रत ने वहाँ निवास किया।
फिर ‘गया’ जाकर पिंड देने लगा। वहाँ विष्णुपद पर पिंड को देते हुए आश्चर्य हुआ जब पिंड ग्रहण के लिए दो हाथ निकल पड़े।
ऐसी घटना देख वह भूपति विस्मय तथा सन्देह करने लगा। क्या करूँ ब्राह्मणाज्ञा से राजा ने विष्णुपद पर ही पिंड दिया,
फिर किसी सत्यवादी ज्ञानी ब्राह्मण से पूछा कि ऐसी बातें क्यों हुई। उसके पूछने पर ब्राह्मण देव ने कहा- हे राजन् !
ये दोनों हाथ पिता के है। ऐसा क्यों हुआ? इसकी बातें माता ही कहेगी। राजा चितिंत तथा दुःखित हो मन में अनेक तरह के विचार करने लगा।
यात्रा पूरी कर जहाँ लड़का राजा के पहुंचने से जीवित हुआ था। वहाँ जाकर उसी दिन उस गृहस्थी के घर पुत्र जन्म का पाचंवा रोज था। वह स्त्री प्रसुता थी।
इस दूसरे दिन लड़का हो जाने पर रात के समय षष्ठी देवी पुत्र को ग्रहण करने आई । षष्ठी देवी को जीवन्तिका ने पुनः मना किया तो षष्ठी देवी जीवन्तिका से कहने लगी हे जीवितके! आपको इसकी क्या आवश्यकता रहती है तथा कौन सा व्रत मां करती है?
जिस कारण आप रातों दिन इसकी रक्षा करती हैं। षष्ठी देवी की ऐसी वाणी सुन जीवितका कुछ हँसती हुई कहने लगी।
राजा भी रातों दिन इस निमित्त की जानकारी के लिए जगा हुआ था, सोने का बहाना किये हुए था। उसी समय राजा ने दोनों की सब बातें सुनी।
हे षष्ठी देवी! इसकी मां श्रावण महीने की शुक्रवार के रोज मेरा पूजन तथा व्रत के जो सब नियम करती है, उसी नियम को मैं आप से कहती हूँ।
इसकी मां हरे वर्ण का कपड़ा तथा चोली नहीं ग्रहण करती और हरे वर्ण की कांच की बनी चूड़ी भी अपने हाथों में ग्रहण नहीं करती,
चावल के धोवन के जल को कभी नहीं लांघती, हरे पल्लव के मण्डप के नीचे नहीं जाती, हरे वर्ण का हो जाने से करेला का साग नहीं खाती।
यह सब राजा सुनकर सुबह अपने नगर में गया। स्वागतार्थ वहाँ राजा के नगरवासी तथा देशवासी प्राणी आये। राजा ने माता से पूछा-हे माता!
आप जीवन्तिका का व्रत करती है तो उसकी क्या विधि है? राजा के पूछने पर मां ने कहा- जीवन्तिका व्रत मैं नहीं जानती।
राजा ने ‘गया’ यात्रा के फल प्राप्त्यर्थ ब्राह्मणों तथा सुवासिनी को भोजन कराने की अभिलाषा प्रकट कर उन सुवासिनी ब्राह्मणियों के यहाँ हरे वस्त्र, हरी चोली और हरे कांच के कंगन आदि परीक्षार्थं भिजवाये।
दूत ने वहाँ यह कहा कि आप सब राजा के घर में भोजनार्थ आवे। पुरोहित की पत्नी राजदूत से कहने लगी मैं हरे वर्ण की कोई चीज नहीं लेती।
पुरोहित पत्नी उन चीजों को ग्रहण कर राजा के घर गई। उसने पूरब वाले दरवाजे पर चावल का धोवन जल तथा हरे वर्ण का मण्डप देखकर वह स्त्री अन्य दरवाजे से गई।
उन स्तनों की दुग्ध धारा से वह राजा अच्छे प्रकार सिंचित हो गया।
गयाजी में दो हाथ निकलने से तथा रास्ते में गृहस्थी के यहाँ देवी से बातचीत और स्तनों से दूध बहने मात्र से राजा को विश्वास हो गया कि मेरी मां है।
राजा ने गृह में रक्षा करने वाली मां के समीप जाकर बड़े विनय से पूछा – हे माता!
भय मत करो, मेरे जन्म समय की बात सुकेशिनी ने तथ्य रूप से कह दी, राजा ने इससे प्रसन्न हो अपनी जन्म देने वाली मां, बाप को नमस्कार किया और सम्पत्ति दे बढ़ाया।
उसी समय स्वप्न में देवी ने संशय नाश कर देने वाली वाणी कही हे राजन! मैंने तुझे केवल विश्वास दिलाने के लिए ऐसी माया की थी, इसमें संदेह मत करो।