बाकें बिहारी का चमत्कार
लगभग सवा सौ वर्ष पहले की बात है । तब वृन्दावन एक छोटा-सा नगर था। नगर के बीचों-बीच एक चौड़ा मार्ग था जो रेल लाईन को काटता हुआ मथुरा जाने वाले मार्ग से जुड़ा हुआ था।
रेल की इस क्रासिंग के चारों ओर दावानल कुण्ड, कैमार वन और मोतीझील का सघन जंगल था जिसमें बेर, कैथ, नीम, करील की बहुतायत थी।
इसी जंगल के एकान्त में जयपुर महाराज द्वारा निर्मित श्रीराधामाधव जी का एक विशाल और आकर्षक मन्दिर है कहते हैं-इस मन्दिर के निर्माण में काम आने वाले पत्थर की ढुलाई के लिए ही मथुरा वृन्दावन रेल लाइन बिछायी गयी थी।
जंगल की सघनता के कारण साधारण लोग तो दिन में भी इधर नहीं आते थे, किन्तु कुछ साधु-सन्तों ने दावानल कुण्ड के पास अपनी कुटिया बना रखी थीं । वृन्दावन के घरों से मधुकरी (भिक्षा) लाकर अपनी क्षुधा शान्त करते और दिन रात भजन करते, यही इन सन्तों की दिनचर्या थी ।
एक दिन इस जंगल में, न जाने कहाँ से कंजरों की एक टोली घूमती हुई आयी और जहाँ आज श्रौतमुनि निवास आश्रम की लम्बी- चौड़ी इमारत खड़ी है, वहाँ रेल लाइन के पास बस गई ।
२०-२५ स्त्री-पुरुष की इस टोली में एक थी-मणि । छोटा कद, साँवला रंग, सामान्य-सा नैन-नक्शा, उलझे हुए बाल जिनमें न जाने कब का बँधा हुआ फीता ।
नाक-कान, गले में चाँदी के आभूषण और मैले फटे हुए कपड़े जिनमें से झांकता हुआ शरीर ऐसी थी मणि । उमर होगी कोई पचास वर्ष ।
मणि एक बार बिहारीजी महाराज के दर्शन करने मन्दिर गयी । दर्शन किये तो अपनी सुध-बुध ही खो बैठी । श्रीबिहारीजी महाराज के प्रकाशमान डहडहे नयनों ने उसे विमोहित कर लिया था, मणि
-अपनी बस्ती की ओर लौटी तो, किन्तु अपना अपनपा श्रीबिहारीजी महाराज को सौंपकर । सोते, जागते, उठते, बैठते काम-काज करते उसके होठों पर थिरकती रहती थी-एक ही पंक्ति-‘मेरी सुन लो अरज श्रीविहारीजी’ यही उसका भजन था, यही पूजा । दिन बीतते गये ।
मणि के हृदय में श्रीबिहारीजी महाराज की भक्ति धीरे-धीरे दृढ़ होती गयी है। लोकवार्ताओं में उसका मन न लगता था ।
मणि का पति कई दिनों से अस्वस्थ चल रहा था। मणि उसकी सेवा-शुश्रूषा में लगी थी। दिन रात एक कर दिया था उसने । किन्तु इस सारे क्रम में श्रीबिहारीजी का नाम उसे एक क्षण को भी विस्मृत नहीं हुआ था । ‘मेरी सुन लो अरज श्रीविहारीजी’ की रट प्रतिपल उसके प्राणों में, झोपड़ी में गूँजती रहती ।
यह सर्दियों का मौसम था। दिन निकल चुका था, किन्तु कुहरे के कारण सूर्य नारायण अभी तक अदृश्य थे ।
कंजरों की बस्ती में भी लोग जग चुके थे । चारों ओर चहल-पहल धीमी गति से प्रारम्भ हो गयी थी। तभी दूर से आती ‘बाँकेबिहारी जय हो तिहारी’ की कंठ ध्वनि वातावरण की निस्तब्धता को बरबस भंग करने लगी।
धीरे- धीरे कुहरे की चादर पर कई मानवाकृतियों की छायाएँ उभरी और क्रमशः मणि की बस्ती की ओर बढ़ने लगी । कीर्तन का स्वर भी तीव्र से तीव्रतर हो उठा था । मणि ने भी सुना और दुहाराया-‘बाँके बिहारी जय हो तिहारी ।’
यह दावानल कुण्ड के समीपस्थ वन में निवास करने वाले साधुओं की टोली थी। जो स्नानादि नित्य कर्म से मुक्त होकर अपने प्राणाराध्य श्रीबांकेबिहारी जी महाराज के दर्शनार्थ जा रही थी।
मणि इन्हें प्रतिदिन इसी प्रकार आते जाते देखती थी। वह पति की अस्वस्थता के कारण कई दिनों से बिहारीजी महाराज के दर्शनों को नहीं जा सकी थी। कीर्तन की ध्वनि सुनते ही मणि के पैर न रुक सके, वह दौड़कर झोंपड़ी के द्वार पर खड़ी हो गयी ।
साधुओं का दल, जिस प्रकार कुहरे को भेदकर प्रकट हुआ था । ठीक वैसे ही मणि की झोंपड़ी के सामने से गुजरता हुआ कुहरे में ही विलीन हो गया । शेष रह गयी थी कीर्तन-ध्वनि जो झोंपड़ी के द्वार पर जड़वत् खड़ी मणि के कर्ण कुहरों को तृप्त कर रही थी । मणि वहाँ कब तक यों ही खड़ी रही… उसे पता ही नहीं चला ।
मणि को देह का होश तब हुआ जब ‘बाँकेबिहारी जय हो तिहारी’ की कीर्तन-ध्वनि उसके कानों में पुनः टकरायी साधुओं का दल दर्शन कर लौटता हुआ उसकी झौंपड़ी के सामने से गुजर रहा था। आज न जाने क्या हुआ, मणि ने साधुसन्तों के दल को अचानक रोका ‘बाबा !’
‘क्यों क्या है, मैया ?’ एक साधु ने पूछा ।
‘कहां से आ रहे हैं आप ?’ मणि ने पुनः पूछा ।
‘मैया, श्रीबिहारीजी की श्रृंगार आरती करके आ रहे हैं’ वही साधु फिर बोला ।
‘अच्छा ! जरा, बताओ तो आज बिहारीजी ने किस रंग की पोशाक धारण की है ।’ कैसा श्रृंगार हुआ है आज उनका ?’ मणि ने उत्सुकतावश पूछा । ‘पोशाक का रंग !’ कौन-सा रंग था- पोशाक का ?
सोच में पड़ गये साधु । दर्शन तो हमने किये थे किन्तु श्रृंगार कैसा था- यह तो याद ही नहीं आता। सभी ने एक दूसरे की ओर देखा इस आशा से कि मणि के प्रश्न का समाधान शायद किसी के पास हो |
किन्तु सभी के माथे पर सलवटें उभरी और धीरे-धीरे मिट गयीं । किन्तु मणि के प्रश्न का उत्तर उनके पास न था । ‘मैया ! हम दर्शन
तो जरूर करके आ रहे हैं किन्तु हमें पोशाक का रंग, श्रृंगार का ढंग स्मरण नहीं आ रहा ।”
मणि हँसी, ‘बाबा आप लोग दर्शन करके आ रहे हैं या मन्दिर घूमकर । अरे ! आज बिहारीजी ने पीले रंग की पोशाक धारण कर रखी है उसमें लाल रंग की किनोर पर सिलमा-सितारे का काम किया हुआ है, माथे पर पीली पगड़ी बँधी है।
गले में चन्द्रसैनी हार है, जाओ ! दर्शन करके दुबारा आना । तब बताना कि जो मैंने कहा वह ठीक है या नहीं।’ साधु आश्चर्य चकित थे । सबने परस्पर बात चीत की और एक बार फिर श्रीबिहारीजी के दर्शन करने का निर्णय किया ।
वे सब पुनः जिस दिशा से आये उसी ओर लौट पड़े मणि ने पुकार कर कहा-‘ और हाँ, गुसाई जी से कहना कि आज मेरे लाड़ले को उत्थापन में लड्डू भोग क्यों नहीं लगाये । उसे मोतीचूर के लड्डू बहुत प्रिय हैं ।’
साधुओं ने जाते-जाते मणि के ये शब्द भी गिरह बाँध लिए । मन्दिर पहुँच कर उनके आश्चर्य का ठिकाना ना रहा । श्रीबिहारीजी महाराज की ठीक वैसी ही पोशाक थी और वैसा ही श्रृंगार जैसा मणि ने बताया ।
उनका हृदय मणि पर बिहारीजी महाराज की अलौकिक कृपा का अनुभव कर आनन्दाभिभूत हो उठा । उत्सुकतावश उनके पाँव जगमोहन की ओर बढ़े, वे निजमन्दिर (गर्भगृह) के द्वार के निकट जा पहुँचे ।
गुसाँई जी परदा बन्द करके दर्शनार्थियों को तुलसी प्रसाद दे रहे थे कि एक साधु ने उन्हें ‘जय बिहारीजी की’ कह अभिवादन किया और बोला-‘महाराज ! क्या आपने आज उत्थापन में श्रीबिहारीजी महाराज को मोतीचूर के लड्डू का भोग लगाया था ?” ‘हाँ, हाँ, लगाया था, पर तुम यह पूछ क्यों रहे हो ?’ गुसांई जी ने पूछा।
“महाराज यदि एक बार आप अन्दर देखने के पश्चात् मुझे निश्चित तौर पर बतायें कि आज लड्डुओं का भोग लगा या नहीं तो आपकी बड़ी कृपा होगी।’ साधु ने आग्रह किया ।
गुसाईं जी कहने लगे-‘आप कहते हो तो देखकर बता देते हैं। वैसे हमने भोग तो प्रातः काल ही लगा दिया’ कहते हुए गुसाईं जी । निजमन्दिर में चले गये ।
पोशाक का रंग, श्रृंगार का ढंग मणि के कहे अनुसार देख लेने के बाद साधुओं का मन यह मानने के लिए तैयार न था कि मणि की लड्डुओं वाली बात मिथ्या होगी। पर गोसाई जी पर भी अविश्वास का कोई कारण न था। मन सत्य और संशय के मध्य डूबता उतराता रहा।
इतने में गुसाई जी पर्दा हटाकर द्वार पर आये। उनके माथे पर पसीने की बूँदें झलक रही थीं, आते ही कहने लगे-बाबा ! आज तो बड़ा भारी अपराध बन गया। ठाकुर जी महाराज को वास्तव में लड्डू भोग लगने से रह गये ।
साधुओं की शंकाओं का निवारण हो गया था वे लौट कर मणि के द्वार पहुँचे और उसके भाग्य की सरहना करते हुए अपनी- अपनी कुटियों को वापस लौटे ।
मणि जब तक जीवित रही रोज श्रीबिहारीजी महाराज का ध्यान करती रही और अन्त में वृन्दावन की रज में रज होकर मिल गयी। सच, वह केवल नाम की ही मणि नहीं थी, अपितु प्रभु कृपा के प्रभाव से भक्तिमतियों की मुकुटमणि भी बन चुकी थी ।