रमा एकादशी- एकादशी महात्म्य
युधिष्ठिर कहने लगे- “हे भगवन्! अब आप मुझसे कार्तिक कृष्णा एकादशी का नाम और इसकी विधि तथा इसके करने से क्या फल मिलता है?
सो सब विस्तारपूर्वक कहिए।”कथा- “हे राजन् ! प्राचीनकाल में मुचुकुन्द नाम – का एक राजा था।
उसकी इन्द्र, यम, कुबेर, वरुण तथा विभीषण के साथ भी मित्रता थी।
वह बड़ा धर्मात्मा, विष्णु भक्त और न्यायप्रिय था। उस राजा के चन्द्रभागा नामक एक कन्या थी।
राजा ने चन्द्रभागा का विवाह राजा चन्द्रसेन के पुत्र शोभन के साथ कर दिया।
एक समय शोभन ससुरभगवान् श्रीकृष्ण बोले- “इस एकादशी का नाम रमा एकादशी है।
यह बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली है। मैं तुमसे इसकी कथा कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।’ के घर आया।
उन्हीं दिनों जल्दी ही पुण्यदायिनी रमा एकादशी भी आने वाली थी।
जब व्रत का दिन समीप आ गया तो चन्द्रभागा को अत्यन्त चिन्ता हुई कि मेरे पति बहुत दुर्बल हैं वह व्रत कैसे करेंगे और मेरे पिता की आज्ञा अति कठोर है।
दशमी को राजा ने ढोल बजवाकर सारे राज्य में यह घोषणा करवा दी कि एकादशी को कोई भी भोजन नहीं करेगा । “
घोषणा सुनते ही शोभन को अत्यन्त चिंता हुई और अपनी पत्नी से कहा- “हे प्रिये! अब क्या करना चाहिए? मैं तो किसी प्रकार भी भूख सहन नहीं कर सकूँगा ।
ऐसा उपाय बतलाओ कि जिससे मेरा कष्ट बच सके। अन्यथा मेरे प्राण अवश्य चले जायेंगे।”
चन्द्रभागा कहने लगी- “स्वामी ! मेरे पिता के राज्य में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं करता।
यहाँ तक कि हाथी, घोड़ा, गौ आदि भी तृण, अन्न, जल आदि ग्रहण नहीं करते।
फिर मनुष्य कैसे भोजन कर सकते हैं? यदि आप भोजन करना चाहते हैं तो किसी दूसरे स्थान पर चले जाइए और यदि आप यहाँ रहना चाहते हैं तो आपको एकादशी का व्रत करना पड़ेगा।
” ऐसा सुनकर शोभन कहने लगा- “हे प्रिये! मैं व्रत अवश्य करूँगा, जो भाग्य में होगा वह देखा जायेगा।
ऐसा विचार कर उसने व्रत रख लिया और वह भूख व प्यास से अत्यन्त पीड़ित होने लगा।
जब सूर्य नारायण अस्त हो गए और रात्रि को जागरण का समय आया ।
वह शोभन को अत्यन्त दुःखदायी प्रतीत हुआ । प्रातःकाल होते ही शोभन के प्राण निकल गए।” तब राजा ने उसका दाह संस्कार कराया।
परन्तु चन्द्रभागा अपने पिता की आज्ञा से सती नहीं हुई और अपने पिता के घर में ही रहने लगी।
रमा एकादशी के प्रभाव से शोभन को मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त तथा शत्रुओं से रहित एक सुन्दर देवपुर नगर का राज्य प्राप्त हुआ।
देवपुर सुन्दर स्वर्ण खम्भों पर निर्मित था और उसमें शोभन को बहुमूल्य वस्त्र – आभूषण भी मिले।
एक समय मुचुकुन्द के नगर में रहने वाला सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण तीर्थयात्रा करता हुआ घूमता- घूमता उधर जा निकला और उसने शोभन को पहचान लिया कि यह तो राजा का जमाई शोभन है।
शोभन भी उसको पहचान कर अपने आसन से उठकर उसके पास आया और प्रणामादि करके कुशल पूछी। ब्राह्मण ने कहा- “राजा मुचुकुन्द और आपकी पत्नी चन्द्रभागा आपके वियोग में बहुत दुःखी है ।
वैसे नगर में सब कुशल से हैं।” तत्पश्चात् ब्राह्मण बोला – “हे राजन् ! मुझको अत्यन्त आश्चर्य हो रहा है कि ऐसा सुन्दर नगर जो न कभी देखा न सुना।
आपको यह मनोरम अद्भुत नगर किस प्रकार प्राप्त हुआ ?” तब शोभन बोला – “कार्तिक कृष्ण पक्ष की रमा एकादशी का व्रत करने से मुझे ऐसा नगर प्राप्त हुआ है, यह अस्थिर है।
इस पर ब्राह्मण बोला- हे राजन! परन्तु यह स्थिर क्यों नहीं है और स्थिर कैसे हो सकता है सो आप मुझे बताइये। फिर मैं इसका उपाय करूंगा।
शोभन बोला- मैंने इस व्रत को श्रद्धा रहित होकर किया है। अतः यह सब कुछ अस्थिर है।
यदि आप मेरी पत्नी चन्द्रभागा को यह सब वृत्तान्त कहें जिससे वह इसका उचित उपाय करे तो यह स्थिर हो सकता है। “
ऐसा सुनकर ब्राह्मण ने अपने नगर में लौटकर चन्द्रभागा से सब वृत्तान्त कहा। ब्राह्मण के वचन सुनकर चन्द्रभागा बड़ी प्रसन्नता के साथ बोली।
हे ब्राह्मण देवता! यह सब बातें आपने प्रत्यक्ष में देखीं या स्वप्न की बात कर रहे हैं।
ब्राह्मण कहने लगा- “हे पुत्री ! मैंने मन्दराचल में तुम्हारे पति शोभन को प्रत्यक्ष देखा है।
साथ ही देवताओं के नगर के समान उनका नगर भी देखा है। उन्होंने यह भी कहा है यह स्थिर नहीं है जिस प्रकार स्थिर हो सके उसका उपाय करना चाहिए।”
चन्द्रभागा कहने लगी- “हे विप्र ! तुम मुझको वहाँ पर ले चलो, मुझे पतिदेव के दर्शन की तीव्र इच्छा है।
मैं अपने किए हुए पुण्य से उस नगर को स्थिर बनाने का प्रयत्न करूँगी।
सोम शर्मा यह बात सुनकर चन्द्रभागा को साथ लेकर मन्दराचल पर्वत के समीप वामदेव ऋषि के आश्रम में गया।
वामदेव ऋषि ने उनकी बात सुनकर वेद मंत्रों के उच्चारण से चन्द्रभागा का अभिषेक किया।
तब ऋषि के मंत्र के प्रभाव और एकादशी के व्रत से चन्द्रभागा का शरीर दिव्य रूप हो गया और वह दिव्य गति को प्राप्त हुई।
इसके बाद वह बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने पति के समीप गई।
अपनी प्रिय पत्नी को आते देखकर शोभन अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसको बुलाकर अपनी बायीं तरफ बिठाया ।
” चन्द्रभागा कहने लगी- “हे । प्राणनाथ! आप मेरे पुण्य को ग्रहण कीजिए।
अपने पिता के घर में जब मैं आठ वर्ष की थी, तब से विधिपूर्वक एकादशी के व्रत को श्रद्धापूर्वक करती आ रही हूँ।
मेरे इस पुण्य के प्रभाव से आपका यह नगर प्रलय के अन्त तक स्थिर हो जायेगा तथा समस्त मनोवांछित वैभव से पूर्ण रहेगा।
चन्द्रभागा ने उसी क्षण भगवान विष्णु का ध्यान किया और प्रार्थना की कि मेरे एकादशी के समस्त पुण्य मेरे पति के मनोरथ को पूर्ण करने हेतु स्वीकार करें।
तभी प्रसिद्ध देवपुर नगर स्थिर हो गया। तब चन्द्रभागा दिव्य रूप धारण कर तथा दिव्य आभूषणों और वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने पति के साथ रहने लगी।
भगवान् कृष्ण बोले- “हे राजन् ! यह मैंने रमा एकादशी का माहात्म्य कहा है। यह एकादशी चिन्तामणि एवं कामधेनु के समान सब मनोरथों को पूर्ण करने वाली है ।
जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं उनके ब्रह्महत्यादि समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष दोनों की एकादशी समान हैं।
इनमें कोई भेद-भाव नहीं करना चाहिए। जो दोनों को पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे समस्त पापों से छूटकर विष्णुलोक को प्राप्त होते हैं।
“फलाहार – इसमें केला का सागार लें। केला व उससे बने पदार्थ – फल और मेवा का सेवन करना चाहिए।