वाणी का महत्त्व क्या है हमारे जीवन में

 वाणी का महत्त्व

सन्त-महापुरुषों ने रसना के बारे में फ़रमाया है कि कोई भी बात मुँह से निकालने से पूर्व हृदय के तराजू पर उसे तोल लेना चाहिये। कड़वी बात कहना या वह बात बोलना जिससे दूसरे के दिल को ठेस पहुँचे-बिना प्रयोजन अथवा मर्यादा का उल्लंघन करके बातें करना-यह हानिकर है ।

एक बार श्री श्री 108 श्री सद्गुरुदेव महाराज जी (श्री तीसरी पादशाही जी) ने श्री मुखारविन्द से ये पावन श्री वचन फ़रमाये थे- ‘मनुष्य के शरीर में जिह्वा दो प्रकार का काम करती है—एक अन्दर की बात को बाहर कहना, दूसरा बाहर के भोजन को अन्दर ले जाना – ये दोनों काम जिह्वा इन्द्रिय द्वारा ही होते हैं।

कोई भी बात जब मुख से निकल गई, चाहे वह अच्छी है अथवा बुरी; दूसरे पर कैसा प्रभाव डालेगी? यह कहने वाले व्यक्ति पर निर्भर नहीं क्योंकि वह बात मुख के दुर्ग (किले) से तो बाहर हो गई। इसी तरह खाने की कोई भी वस्तु जो किगये। आगे चलकर एक समतल स्थान पर आये परन्तु अधिक रगड़ाई करने के कारण उसमें इतनी अधिक चमक प्रतीत होती थी कि दूर से देखने से यह ज्ञात होता कि यह पानी का हौज़ है।

दुर्योधन जब इस स्थान से गुज़रने लगा तो यहां उसने कपड़े समेटने शुरु कर दिये। कहा भी है कि ‘दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है।’ भीमसेन जो कि उन्हें रंगमहल दिखा रहा था दुर्योधन से कहने लगा- भाई साहब! यहाँ तो पानी है नहीं फिर तुम कपड़े क्यों समेट रहे हो? यह कहकर वह थोड़ा-सा मुसकरा दिया ।

उस समय द्रौपदी जो कि रंगमहल की छत पर ही खड़ी यह सब कौतुक देख रही थी, दुर्योधन पर व्यंग्य कसते हुए बोली-|| शेअर |डिंगोरी पकड़ कर कोई करो, इमदाद अन्धे की न हो अंधा यह क्यों, आख़िर तो है औलाद अंधे की ॥द्रौपदी का भाव यह था कि अंधे धृतराष्ट्र की संतान है यह, इसको फ़र्श व पानी भी ठीक तरह से नज़र नहीं आता; उस समय तो दुर्योधन खून का घूँट पीकर हो चुप रहा।

घर जाकर वह इस अपमान का बदला लेने की अब युक्तियाँ सोचने लगा। अपने साथियों से कहने लगा कि ‘मैं द्रौपदी और पाण्डवों को दिखा दूँगा कि मैं अन्धे का पुत्र हूँ अथवा वे सब नेत्रहीन हैं। उनके सब सुख-ऐश्वर्य के दिन मैं शीघ्र ही दुःख में बदल दूँगा तथा अपने अपमान का बदला लेकर उन्हें लोहे के चने चबवाऊँगा।’

अन्ततः उसने अपनी मन्त्रणा अनुसार युधिष्ठिर जी को जुआ खेलने के लिए उद्यत करा ही लिया। परन्तु धर्मराज युधिष्ठिर जी इसके षडयन्त्र को समझ न सके तथा अंत में चारों भाइयों और राज्य तथा रानी द्रौपदी को भी दाव पर लगाकर हार गए।

उस समय द्रौपदी को अपमानित करने के लिए जब दुःशासन उसे दरबार में बरबस खींच कर ले आया तब दुर्योधन भरी सभा में पाण्डवों के समक्ष ही व्यंग्य कसता हुआ यह वचन बोला-

॥ कविता ॥

कह्या गरज दुर्योधन ने द्रौपदी नूँ, गल्ल रंग महल दी याद होसी ।

मैं तिल्कया साँ ते तू आख्या सी, अन्हे प्यो दी अन्ही औलाद होसी ॥

ओसे रंग महल दे विच हुण तां, तेरे नाल ऐ अन्हा आबाद होसी ।

भुल जा तू पांडू सुजाख्यां नूं, दिल अन्हयां दा करना शाद होसी ॥

अन्हे प्यो दी बनेंगी नूंह अन्ही,अन्हा पुत्र बनायेगा नार तैनूँ ।

अखाँ वालिये जे इन्कार करसें, नंगी कराँगा सरे दरबार तैनूं ॥

यह तो भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी ने द्रौपदी की लाज रख ली; नहीं तो आगे चलकर दुर्योधन ने क्या कुछ नहीं किया। पाण्डवों का कितना अपमान हुआ तथा उन्होंने कितने कष्ट सहे, यह तो सब को ज्ञात ही है। अन्त में महाभारत का युद्ध होकर रहा।

यह सब बिना सोचे मुंह से बात निकालने का ही कुपरिणाम है। इसलिए कभी भी मुंह से ऐसी अप्रिय बात नहीं बोलनी चाहिये जिसका परिणाम दुःखदायी हो।

इस विषय पर यहाँ एक और छोटा सा दृष्टान्त दिया जा रहा है, जो इस प्रकार है-

एक राजा ने रात को स्वप्न में देखा कि उसके सब दाँत गिर गए हैं। जो ज्योतिषी स्वप्न की ताबीर (भविष्य) बताता था उसको बुलवा कर राजा ने सब वृत्तान्त स्वप्न का सुनाया और ताबीर पूछी। उस ज्योतिषी ने कहा- राजन् ! इस स्वप्न का मतलब यह है कि आपकी सारी सन्तान आपकी आँखों के समक्ष ही मर जायेगी।

यह सुनकर राजा को बड़ा क्रोध आया। उसने आज्ञा दी कि इस व्यक्ति को हाथी के पैरों के नीचे कुचलवा दिया जाये।

इस पर श्री कबीर साहब जी ने कहा भी है कि-

॥ दोहा ॥ ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय । औरन को सीतल करे, आपुहि सीतल होय || तब राजा ने दूसरे ज्योतिषी को बुलवाया और उसके

आगे भी वही प्रश्न किया। तब उसने उत्तर दिया कि ‘महाराज! आपकी आयु तो सबसे अधिक लम्बी होगी। प्रजा दीर्घायु तक आपकी छत्रच्छाया में रहेगी तथा आप लम्बी उमर तक उन सबको सुख देते रहेंगे।’ इस उत्तर को पाकर राजा अति प्रसन्न हुआ। इस ज्योतिषी को पुरस्कार में राजा ने एक हाथी दिया।

अब देखिये, उत्तर तो दोनों ज्योतिषियों का एक समान ही है, परन्तु कहने- कहने में कितना अन्तर है। तभी तो । कहा गया है-

॥ दोहा ॥ बात न कीजै अटपटी, कीजै बात बातों हाथी पाइये, बातों हाथी बना ।

भाव यह कि एक बोल ने तो आदमी को हाथी के पाँव तले कुचलवाया तथा दूसरे बोल ने व्यक्ति को हाथी इनाम में दिलवाया।

यह सब वाणी का ही तो प्रताप है। यदि इस वाणी द्वारा मालिक के गुणानुवाद गाये जायें तो फिर मनुष्य को कितना ही दिव्यानन्द प्राप्त होगा। एक परमार्थी जिज्ञास के लिए तो यह आवश्यक बात है। उसे अपने जीवन को इसी साँचे में ढालना चाहिये; क्या ?

कि वह सबके साथ मीठे वचन बोले तथा कड़वे वचनों का परित्याग करे इसलिए जिह्वा-इन्द्रिय पर नियन्त्रण रखना एक परमार्थ के जीवन का आवश्यक अंग है।

एक सच्चे गुरुमुख के लिए तो यहां तक कहा गया है

॥ दोहा ॥

कि-

जो सोवै तो सुन्न में, जो जागे हरि नाम । जो बोले तो हरि कथा, भक्ति करे निष्काम ॥ अर्थात् वह यदि निद्रावस्था में हो तो तब भी उसके मन की तार अपने मालिक के चरणों से बंधी हो तथा जागृत अवस्था में प्रभु नाम का सुमिरण करे। यदि किसी के साथ बोले तो ईश्वर के गुणानुवाद करे, इससे जिह्वा व मन दोनों ही पवित्र होते हैं और ये निष्काम भक्ति के लक्षण हैं।

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