श्री राधा कौन है ? – श्री राधा-कृष्णतत्त्व सर्वथा अप्राकृत है, इनका विग्रह अप्राकृत है, इनकी समस्त लीलाएँ अप्राकृत हैं- जो अप्राकृत क्षेत्रमें अप्राकृत मन-बुद्धि-शरीरसे अप्राकृत पात्रों में हुई थीं।
अप्राकृत लीला को देखने, सुनने , कहने और समझने के लिये अप्राकृत नेत्र, कर्ण, वाणी और मन-बुद्धि चाहिये।
भगवान् के विभिन्न सच्चिदानन्दमय दिव्य लीला-विग्रहों में विभिन्न नाम-रूपों से उनकी ह्लादिनी शक्ति साथ रहती ही है। नाम-रूपोंमें पृथक्ता दीखनेपर भी वस्तुतः वे सब एक ही हैं। स्वयं श्री भगवान ने ही श्रीराधाजीसे कहा है-
हे राधे ! जिस प्रकार तुम गोलोक और गोकुलमें श्रीराधिकारूपसे रहती हो, उसी प्रकार वैकुण्ठ में महालक्ष्मी और सरस्वतीके रूपमें विराजमान हो। तुम ही क्षीर सागरशायी भगवान् विष्णु की प्रिया मर्त्यलक्ष्मी हो। तुम ही धर्मपुत्र की कान्ता लक्ष्मी-स्वरूपिणी शान्ति हो।
तुम ही भारतमें कपिलकी प्रिय कान्ता सती भारती हो। तुम ही द्वारकामें महालक्ष्मी रुक्मिणी हो । तुम्हारी ही छाया सती द्रौपदी है। तुम ही मिथिला में सीता हो। तुम्हींको रामकी प्रिया सीता के रूपमें रावणने हरण किया था।’
भगवान् के दिव्य लीला विग्रहों का प्राकट्य ही वास्तव में आनन्दमयी ह्लादिनी शक्तिके निमित्त से है।
श्री भगवान् अपने निजानन्द को परिस्फुट करने के लिये अथवा उसका नवीन रूपमें आस्वादन करनेके लिये ही स्वयं अपने आनन्द को प्रेमविग्रहों के रूप में प्रकट करते हैं और स्वयं ही उनसे आनन्द का आस्वादन करते हैं।
भगवान के उस आनन्द को प्रतिमूर्ति ही प्रेमविग्रहरूपा श्रीराधारानीजी हैं और यह प्रेमविग्रह सम्पूर्ण प्रेमोंका एकीभूत समूह है।
अतएव श्री राधिका जी प्रेममयी हैं और भगवान् श्रीकृष्ण आनन्दमय हैं। जहाँ आनन्द है, वहाँ प्रेम है और जहाँ प्रेम है, वहीं आनन्द है।
आनन्द रससार का घनीभूत विग्रह श्रीकृष्ण हैं और प्रेमरससारकी घनीभूत मूर्ति श्रीराधारानी हैं। अतएव श्रीराधा और श्रीकृष्ण का विछोह कभी सम्भव ही नहीं।
न श्रीराधाके बिना श्रीकृष्ण कभी रह सकते हैं और न श्रीकृष्णके बिना श्रीराधाजी श्रीकृष्ण के दिव्य आनन्दविग्रह की स्थिति हो दिव्य प्रेम विग्रहरूपा श्री राधाजीके निमित्त से है ।
श्रीराधारानी हो श्रीकृष्ण की जीवनस्वरूपा हैं और इसी प्रकार श्रीकृष्ण ही श्रीराधाके जीवन हैं। दिव्य प्रेम रससार विग्रह होनेसे ही श्रीराधारानी महाभावरूपा हैं।
और वह नित्य निरन्तर आनन्दरससार रसराज, अनन्त-ऐश्वर्य, अनन्त-सौन्दर्य- माधुर्य लावण्य- निधि, सच्चिदानन्दसान्द्रांग, अविचिन्त्यशक्ति, आत्मा- रामगणाकर्षी प्रियतम श्रीकृष्णको आनन्द प्रदान करती रहती हैं।
इस हादिनी शक्तिकी लाखों अनुगामिनी शक्तियाँ मूर्तिमती होकर प्रतिक्षण सखी, मंजरी, सहचरी और दूती आदि रूपोंसे श्रीराधाकृष्ण की सेवा किया करती हैं। श्री राधाकृष्ण को सुख पहुँचाना और उन्हें प्रसन्न करना ही इनका एकमात्र कार्य होता है। इन्होंका नाम श्रीगोपीजन है।
नित्य आनन्दमय, नित्य तृप्त, नित्य एकरस, कोटि- कोटि ब्रह्माण्ड-विग्रह, पूर्णब्रह्म परमात्मामें सुखेच्छा कैसे हो सकती है?
यह प्रश्न युक्तिसंगत प्रतीत होनेपर भी इसीको सिद्धान्त नहीं माना जा सकता। भाव और प्रेम परमात्मासे पृथक् वस्तु नहीं है। प्रेमाश्रय का भाव प्रेम विषय में और प्रेम-विषय का भाव प्रेमाश्रयमें अनुभूत हुआ करता है।
श्री गोपीजन प्रेम का आश्रय हैं और – श्रीकृष्ण प्रेम के विषय हैं। श्री गोपियों का अप्राकृत दिव्य – भाव ही परब्रह्ममें दिव्य सुखेच्छा उत्पन्न कर देता है।
प्रेमका महान् उच्च भाव ही उन पूर्णकाममें कामना, नित्यतृप्तमें अतृप्ति, क्रियाहीन में क्रिया और आनन्दमय में आनन्द की वासना जाग्रत् कर देता है।
अवश्य ही यह सुखेच्छा, कामना, अतृप्ति, क्रिया या वासना जड इन्द्रियजन्य नहीं है, इस मर्त्य जगत की मायामयी वस्तु नहीं है, क्योंकि वह दिव्य आनन्द और दिव्य प्रेम अभिन्न हैं। श्रीकृष्ण और श्रीराधारानी सदा अभिन्न हैं। श्रीभगवान् कहते हैं-
‘जो तुम हो, वही मैं हूँ, हम दोनोंमें किंचित् भी भेद नहीं है। जैसे दूधमें सफेदी, अग्निमें दाहिका शक्ति और पृथ्वीमें गन्ध रहती है, उसी प्रकार मैं सदा तुममें रहता हूँ।’
अब रही श्री राधिका जी के विवाह की बात, सो इस रूपमें इनका लौकिक विवाह कैसा ?
वृन्दावन लीला ही लौकिक लीला नहीं है। लौकिक लीला की दृष्टिसे तो ग्यारह वर्षकी ही अवस्था में श्रीकृष्ण व्रज का परित्याग करके मथुरा पधार गये थे।
इतनी छोटी अवस्था में स्त्रियों के साथ प्रणय की बात ही कल्पना में नहीं आती और अलौकिक जगत में दोनों सर्वदा एक ही हैं।
फिर भी भगवान ने ब्रह्मा जी को श्रीराधा के दिव्य चिन्मय प्रेम- रस सार विग्रह का दर्शन करानेका वरदान दिया था ।
उसकी पूर्ति के लिये एकान्त अरण्य में ब्रह्मा जी को श्रीराधिका जी के दर्शन कराये और वहीं ब्रह्माजी के द्वारा रसराज और महाभाव की विवाह लीला भी सम्पन्न हुई।
ये विवाहिता श्रीराधाजी नित्य ही भगवान् श्री कृष्णके संग रहती हैं। अवश्य ही छिपी रहती हैं। श्रीकृष्ण कृपा होनेपर ही किन्हीं प्रेमी महानुभावको इस ‘युगल जोड़ी’ के दुर्लभ दर्शन होते हैं ।
श्रीमद्भागवत में श्रीराधाका नाम प्रकटरूप में नहीं आया है, यह सत्य है; परंतु वह उसमें उसी प्रकार छिपा हुआ है, जैसे शरीर में आत्मा ।
प्रेमरससार – चिन्तामणि श्रीराधाजीका अस्तित्व ही आनन्द- रससार श्रीकृष्णकी दिव्य प्रेमलीलाको प्रकट करता है। जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहाँ श्रीराधा नहीं हैं-यह कहना ही नहीं बनता।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं
‘जो हम दोनों में (श्रीकृष्ण और श्रीराधामें) भेद-बुद्धि करता है, वह जबतक चन्द्र-सूर्य रहते हैं, तब तक के लिये कालसूत्र नामक नरक में रहता है।उसके पहले के सात और पीछे के सात पुरुष अधोगामी होते हैं और उसका कोटि जन्म अर्जित पुण्य निश्चय ही नष्ट हो जाता है।
जो नराधम अज्ञानवश हम लोगों की निन्दा करते हैं, वे पापात्मा भी चन्द्र-सूर्य की स्थिति काल तक घोर नरक भोगते हैं।
अब रही गोपियों के प्रेम के शुद्ध होने की बात ।
छोटे बालक जैसे अपने प्रतिबिम्बके साथ खेला करते हैं, वैसे ही श्री कृष्ण भगवान ने भी व्रज सुन्दरियों के साथ क्रीड़ा की । लीला-रसमय आनन्दकन्द भगवान स्वभाव से ही प्रेमवश हैं।
अतएव उन्होंने प्रेमभाव से ही अपनी आनन्द स्वरूपा शक्तिद्वारा अपने ही प्रतिबिम्बरूप प्रेमस्वरूपा महाभागा गोपियों के साथ क्रीड़ा की। उनका तो यह आत्मरमण था और गोपियों का इसमें श्रीकृष्णसुख ही एकमात्र उद्देश्य था ।
अतएव प्रेममयी गोपी और आनन्दमय श्रीकृष्णकी यह लीला सर्वथा काम गन्ध शून्य थी। गोपियोंका प्रेम अत्युच्च – पराकाष्ठाका भाव था। इसी से उसे रूढ़ महाभाव कहते हैं।
इसमें निजेन्द्रिय-तृप्तिकी इच्छाके संस्कार की भी कल्पना नहीं थी। यह इस जगत्की काम-क्रीड़ा नहीं थी।
यह तो दिव्य आनन्दमय, पवित्र प्रेममय जगत्की अति दुर्लभ रहस्यमय लीला थी, जिसका रसास्वादन करनेके लिये बड़े-बड़े देवता और सिद्ध महात्मागण भी लालायित थे।
कहा जाता है कि इसीलिये उन्होंने व्रजमें आकर पशु-पक्षियों तथा वृक्ष- लता – पत्ताके रूपमें जन्म लिया था।
श्री गोपियों के इस कामशून्य प्रेमभावको, श्रीकृष्ण कान्ता शिरोमणि श्री राधारानी के महाभाव को और निजानन्द में नित्यतृप्त परमात्मामें सुखेच्छा क्यों उत्पन्न होती हैं और कैसे उन्हें प्रेमरूपा शक्तियोंके साथ लीला करनेमें सुख मिलता है।
इस बातको समझने-समझानेका अधिकार श्रीकृष्णगतप्राण, भजनपरायण, प्रेमी रसिक भक्तोंको ही श्रीकृष्ण कृपा से प्राप्त होता है।
मुझ जैसा विषयी मनुष्य इसपर क्या कहे-सुने? मेरी तो हाथ जोड़कर सबसे यही प्रार्थना है कि अपने मनकी मलिनता का आरोप भगवान् के पवित्र चरित्रों पर कोई कदापि न करें और शंका छोड़कर जिसको भगवान्का जो नाम- रूप प्रिय लगता हो।
जिसकी जिसमें रुचि हो, भगवान्के दूसरे नाम रूपको उससे नीचा न समझकर बल्कि अपने ही इष्टदेव का एक भिन्न स्वरूप समझकर, अनन्य भाव से अपने उस इष्टकी सेवा में लगे रहें।