श्री दुर्गा स्तुति पाठ प्रारम्भ
दुर्गा स्तुति पहला अध्याय
पहला अध्याय
वन्दो गौरी गणपति शंकर और हनुमान।
राम नाम प्रभाव से है सब का कल्याण।
गुरुदेव के चरणों की रज मस्तक पे लगाऊं।
शारदा माता की कृपा लेखनी का वर पाऊं।
नमो ‘नारायण दास जी’ विप्रन कुल श्रृंगार।
पूज्य पिता की कृपा से उपजे शुद्ध विचार।
वन्दू सन्त समाज को वन्दू भगतन भेख।
जीनकी संगत से हुए उल्टे सीधे लेख।
आदि शक्ति की व दना करके शीश नवाऊं।
सप्तशति के पाठ की भाषा सरल बनाऊं।
क्षमा करें विद्वान सब जान मुझे अन्जान ।
चरणों की रज चाहता बालक ‘चमन’ नादान।
घर घर दुर्गा पाठ का हो जाये प्रचार।
आदि शक्ति की भक्ति से होगा बेड़ा पार।
कलियुग कपट कियो निज डेरा, कर्मो के वश कष्ट घनेरा।
चिन्ता अग्न में निस दिन जरही।प्रभु का सिमरण कबहुं न करही।
यह स्तुति लिखी तिनके कारण।दुःख नाशक और कष्ट निवारण।
मारकंडे ऋषि करे बखाना।संत सुनई लावे निज ध्याना।
सवारोचिप नामक मनंवतर में।सुरथ नामी राजा जग भर में।
राज करत जब पड़ी लड़ाई, युद्ध में मरी सभी कटकाई।
राजा प्राण लिए तब भागा, राज कोष परिवार त्यागा।
सचिवन बांटयो सभी खजाना, राजन मर्म यह बन में जाना।
सुनी खबर अति भयो उदासा, राजपाठ से हुआ निराशा।
भटकत आयो इकबन माहिं, मेधा मुनी के आश्रम जाहिं।
मेधा मुनि का आश्रम था कल्याण निवास।
रहने लगा सुरथ वहां बन संतन का दास।
इक दिन आया राजा को अपने राज्य का ध्यान।
चुपके आश्रम से निकल पहुंचा बन मे आन।
मन में शोक अति उपजाये, निज नैन से नीर बहाये।
पुरममता अति ही दुःख लागा, अपने आपको जान अभागा।
मन में राजन करे विचारा, कर्मन वश पायो दुःख भारा।
रहे न नौकर आज्ञाकारी, गई राजधानी भी सारी।
विधनामोहे भयो विपरीता, निश दिन रहं विपन भयभीता।
देव करोगे कबह सहाई, काटो मोरि विपदा सिर आई।
सोचत सोच रहयो भुआला, आयों वैश्य एकतेहिं काला।
तिनराजा को कीन प्रणामा, वैश्य समाधि कहयो निज नामा।
दोहा :- राजा कहे समाधि से कारण दो बतलाये।
दुखी हुए मन मलिन से क्यों इस वन में आए।
आह भरी उस वैश्य ने बोला हो बेचैन।
सुमिरन कर निज दुःख का भर आये जलनैन।
वैश्य कष्ट मन का कह डाला, पुत्रों ने है घर से निकाला।
छीन लियो धन सम्पत्ति मेरी, मोरी जान विपत ने घेरी।
घर से धक्के खा वन आया, नारी ने भी दगा कमाया।
सम्बन्धी स्वजन सब त्यागे, दुख पावेगें जीव अभागे।
फिर भी मन में -धीर न आवे, ममतावश हर दम कल्पावे।
दोहा :- मेरे रिश्तेदारों ने किया नीचों का काम।
फिर भी उनके बिना न आये मुझे आराम।
सुरथ ने कहा मेरा भी ख्याल ऐसा। तुम्हारा हुआ ममतावश हाल जैसा।
चले दोनों दुखिया मुनि आश्रम आए।चरण सिर निवा कर वचन ये सुनाए।
ऋषिराज कर कृपा बतलाइये गा। हमें भेद जीवन का समझाइये गा।
जिन्होने हमारा निरादर किया है। हमें हर जगह ही बेआदर किया है।
लिया छीन धन और सर्वस्व है जो,किया खाने तक से भी बेबस है जो
ये मन फिर भी क्यों उनकों अपनाता है। उन्ही के लिए क्यों यह घबराता है।
हमारा यह मोह तो छुड़ा दीजिये गा। हमें अपने चरणों लगा लीजिये गा।
बिनती उनकी मान कर, मेधा ऋषि सुजान। उनके धीरज के लिए कहे यह आत्म ज्ञान।
यह मोह ममता अति दुखदाई, सदा रहे जीवों में समाई।
पशु पक्षी नर देव गन्धर्वा, ममतावश पावे दुख सर्वा।
गृह सम्बन्धी पुत्र और नारी, सब ने ममता झूठी डारी।
यद्यपि झूठ मगर न छूटे, इसी के कारण कर्म है, फूटे।
ममतावश चिड़ी चोग चुगावे, भूखी रहे बच्चों को खिलावे।
ममता ने बांधे सब प्राणी, ब्राह्मण डोम ये राजा रानी।
ममता ने जग को बौराया, हर प्राणी का ज्ञान भुलाया।
ज्ञान बिना हर जीव दुःखारी, आये. सर पर विपता भारी।
तुमको ज्ञान यथार्थ नाही, तभी तो दुख मानों मनमाही।
दोहा:- पुत्र करे माँ बाप को लाख बार धिक्कार।
मात पिता छोड़े नहीं फिर भी झूठा प्यार।
योग निन्द्रा इसी तो ममता का है नाम।जीवों को कर रखा है इसी ने बे आराम।
भगवान विष्णु की शक्ति यह, भक्तों की खातिर भक्ति यह।
महामाया नाम धराया है, भगवती का रुप बनाया है।
ज्ञानियों के मन को हरती है, प्राणियों को बेवस करती है।
यह शक्ति मन भरमाती है, यह ममता में फंसाती है।
यह जिस पर कृपा करती है, उसके दुःखों को हरती है।
जिसको देंती वरदान है यह, उसका करती कल्याण है यह।
यही ही विद्या कहलाती है, अविद्या भी बन जाती है।
संसार को तारने वाली है, यह ही दुर्गा महांकाली है।
सम्पूर्ण जग की मालिक है, यह कुल सृष्टि की पालिक है।
दोहाः- ऋषि से पूछा राजा ने कारण तो बतलाओ।
भगवती की उत्पति का भेद हमें समझाओं।
मनि मेधा बोले सुनो ध्यान से। मग्न निंद्रा में विष्णु भगवान थे।
थे आराम से शेष शैय्या पे वो। असर मधु-कैटभ वहां प्रगटे दो।
श्रवन मैल से प्रभु की लेकर जन्म ॐ।लगे ब्रह्मा जी को वो करने खत्म।
उन्हे देख ब्रह्मा जी घबरा गये। लखी निंद्रा प्रभु की तो चकरा गये।
तभी मग्न मन ब्रह्मा स्तुति करीं।कि इस योग निंद्रा को त्यागो हरी।
कहा शक्ति निंद्रा तू बन भगवती। तू स्वाहा तू अम्बे तू सुख सम्पति।
तू सावित्री सन्धया विश्व आधार तू। है उत्पत्ति पालन व संहार तू।
तेरी रचना से ही यह संसार है। किसी ने न पाया तेरा पार है।
गदा शंख चक्र पदम हाथ ले।तू भक्तों का अपने सदा साथ दे।
महामाया तब चरण ध्याऊं, तुमरी कृपा अभय पद पाऊ।
ब्रह्मा विष्णु शिव उपजाए, धारण विविध शरीर कर आये।
तुमरी स्तुति की न जाए, कोइ न पार तुम्हारा पाए।
मधु कैटभ मोहे मारन आए, तुम बिन शक्ति कौन बचाए।
प्रभु के नेत्र से हट जाओ, शेष शैय्या से इन्हे जगाओं।
असरों पर मोह ममता डालो, शर्णागत को देवी बचा लो।
सुन स्तुति प्रगटी महामाया, प्रभु आंखों से निकली छाया।
तामसी देवी नाम धराया, ब्रह्मा खातिर प्रभु जगाया।
दोहा:- योग निद्रा के हटते ही प्रभु उघाड़े नैन।
मधु कैटभ को देखकर बोले क्रोधित बैन।
ब्रह्मा मेरा अंश है मार सके न कोय।
मुझ से बल अजमाने को लड़ देखो तुम दोय।
प्रभु गदा लेकर उठे करने दैत्य सहार।
प्राक्रमी योद्धा लड़े वर्ष वो पांच जार।
तभी देवी महामाया ने दैत्यों के मन भरमाए। बलवानों के हृदय में दिया अभिमान जगाए।
अभिमानी कहने लगे सुन विष्णु धर ध्यान।युद्ध से हम प्रसन्न हैं मांगो कुछ वरदान ।
प्रभु थे कोतक कर रहे बोले इतना हों। मेरे हाथों से मरो वचन मुझे यह दो।
वचन बध्य वह राक्षस जल को देख अपार ।काल से बचने के लिए कहते शब्द उच्चार।
जल ही जल चहूं और है ब्रह्मा कमल बिराज। मारना चाहते हो हमें तो सुनिए महाराज।
वध कीजो उस जगह पे जल न जहां दिखाये।न प्रभु ने इतना सुनते ही जांघ पे लिया लिटाये।
चक्र सुदर्शन से दिए दोनों के सिर काट। खुले नैन रहे दोनों के देखत प्रभु की बाट।
ब्रह्मा जी की स्तुति सुन प्रगटी महामाया। पाठ पढे जो प्रेम से उसकी करे सहाय।
शक्ति के प्रभाव का पहला यह अध्याय। ‘चमन’ पाठ कारण लिखा सहजे शब्द बनाय।
श्रद्धा भक्ति से करो शक्ति का गुणगान। ऋद्धि सिद्धि नव निधि दे करे दाती कल्याण।
प्रथम अध्याय – हर प्रकार की चिंता हटाने के लिए पढ़े
चमन की श्री दुर्गा स्तुति
- सर्व कामना पूर्ण करने वाला पाठ- चमन की श्री दुर्गा स्तुति
- श्री दुर्गा स्तुति पाठ विधि
- श्री दुर्गा स्तुति प्रारम्भ
- प्रसिद्ध भेंट माता जी की (मैया जगदाता दी)
- सर्व कामना सिद्धि प्रार्थना
- श्री दुर्गा स्तुति प्रार्थना ( श्री गणेशाय नमः)
- श्री दुर्गा कवच
- श्री मंगला जयन्ती स्तोत्र
- श्री अर्गला स्तोत्र नमस्कार
- कीलक स्तोत्र
- विनम्र प्रार्थना
श्री दुर्गा स्तुति अध्याय
- पहला अध्याय
- दूसरा अध्याय
- तीसरा अध्याय
- चौथा अध्याय
- पांचवा अध्याय
- छटा अध्याय
- सातवां अध्याय
- आठवां अध्याय
- नवम अध्याय
- दसवां अध्याय
- ग्यारहवां अध्याय
- बारहवां अध्याय
- तेरहवाँ अध्याय