चौथा अध्याय कार्तिक माहात्म्य
नारदजी ब्रह्माजी से कहते हैं कि हे ब्रह्मन् ! कार्तिक मास में जो दीपदान होता है, उसका माहात्म्य कहिये। ब्रह्माजी कहने लगे कि हे पुत्र !
दीप चाहे स्वर्ण का हो अथवा चांदी, ताँबा, आटा अथवा मिट्टी का हो, अपनी श्रद्धानुसार कार्तिक मास में दान करना चाहिए। ऐसा करने से सब पापों का नाश हो जाता है।
दीपक भगवान् की मूर्ति के आगे अथवा तुलसी के वृक्ष के समीप, चौक, ब्राह्मण के घर, वृक्ष के नीचे, वन में, गौशाला में तथा ताक पर चाहे घी का हो या तेल का जलाना चाहिए।
जो ब्राह्मण के घर पर दीपक जलाता है उसको अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है और जो आकाश में ऊंचा दीपक जलाता है,
उसके धन की वृद्धि होती है तथा वैकुण्ठवास मिलता है। भगवान् से प्रार्थना करे कि भगवन्! मैं आपके निमित्त दीपक जलाता है।
कार्तिक में मथुरा, माघ में प्रयाग और वैशाख में हरिद्वार का वास अत्युत्तम होता है। जब सूर्य, तुला, मकर और मेष राशि का हो, उसमें किये गये व्रत,
नियम और पूजा बहुत अधिक फल देने वाले होते हैं। इन मासों में अच्छे कर्म करने से पापों का नाश हो जाता है।
जैसे सूर्योदय से अन्धकार, वज्र से पर्वत, गरुड़ के भय से सर्प, पवन से मेघ, ज्ञान से दुःख, सिंह के भय से मृग वैसे ही मथुरा के दर्शन से सब पाप भाग जाते हैं।
कार्तिक मास में स्नान, जागरण, दीपदान, तुलसी सेवन, भगवान् के मन्दिर में मार्जन, झाड़ू आदि लगाना, भगवान् की कथा सुनना, कीर्तन करना सब ही अच्छे फल देने वाले होते हैं।
अतः पूर्व जन्म के पापों को नाश करने के लिए कृच्छ्र व्रत इत्यादि करने उत्तम हैं।इतनी कथा सुनकर नारदजी पूछने लगे कि हे ब्रह्मन्! पूर्व जन्म के पाप कैसे जाने जा सकते हैं?
ब्रह्माजी कहने लगे कि हे पुत्र ! ब्रह्म हत्यारा क्षय रोगी, गुरु-स्त्रीगामी कुष्ठी और सोने की चोरी करने वाले के नाखून खराब हो जाते हैं और मदिरा पीने वाले के दाँत खराब हो जाते हैं।
इस प्रकार पूर्व जन्म के पापों से मनुष्य पहिचाना जाता है। यह सब दान, तपस्या और कृच्छ्र व्रतादि से निवारण होते हैं। अब कृच्छ्र व्रतादि कहते हैं।
एक समय भोजन करने से पादकृच्छ्र, तीन दिन सायंकाल और तीन दिन प्रातःकाल भोजन करने से अतिकृच्छ तथा सायंकाल में बाईस ग्रास और प्रातःकाल में छब्बीस ग्रास अथवा चौबीस ग्रास खाने से भी अतिकृच्छ्र व्रत कहा गया है।
तीन दिन प्रति रोज खावे और तीन दिन उपवास करे यह भी अतिकृच्छ्र होता है। सायंकाल में एक ग्रास और प्रातः काल में एक ग्रास और दो दिन में बिना माँगा हुआ तथा दो दिन तक उपवास यह कृच्छ्रार्ध व्रत कहलाता है।
इक्कीस दिन तक केवल दुग्ध या पानी पीता रहे यह कृच्छ्रातिकृच्छ्र व्रत कहलाता है। बारह दिन तक उपवास करना पुराक व्रत कहलाता है।
चार दिन तक कुछ नहीं खाना फिर सत्तू खाना या छाछ पीना इसके पश्चात् कपड़ा तथा दक्षिणा ब्राह्मण को देना सौम्य कृच्छ्र कहलाता है।
इसी प्रकार बारह दिन तक करना द्वादश कृच्छ्र कहलाता है। तुला पुरुष का दान करना और गौ का घृत, गोबर, दूध, दही तथा कुशा का जल पीना, दूसरे दिन उपवास करना यह कृच्छ्र संतपन कहा गया है।
तीन दिन तक गोमूत्र, तीन दिन तक गोबर, फिर तीन दिन दही, फिर तीन दिन तक दूध, फिर तीन दिन तक घी खाय यह संतपन है जो सब पापों का नाश करने वाला होता है।
इसी प्रकार गूलर, कमल, बेल इनके पत्ते या कुशा का जल प्रतिदिन पीने से ऊन कृच्छ्र व्रत होता है, और तीन दिन तक उपवास करके पहिले लिखी हुई वस्तुओं को पीवे तो पूर्ण कृच्छ्र व्रत होता है।
यदि तपा हुआ दूध, घी, जल एक-एक प्रतिदिन पीवे और एक दिन उपवास करे तो इसे तप्तकृच्छ्र कहते हैं । जल, दूध, घी यह तपा कर तीन दिन तक पीवे और एक समय स्नान करे तो यह भी तप्तकृच्छ्र होता है।
इसका प्रमाण- पानी आठ तोला, दूध बारह तोला, घी चार तोला होना चाहिये तथा कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी को भगवान् का पूजन करना चाहिये। उपवास करके उस रात्रि को जल में स्थित रहे, यह पेट जलकृच्छ्र व्रत कहलाता है जिसके करने से वैकुंठ की प्राप्ति होती है ।
कार्तिक सुदी सप्तमी को घी खाय फिर एकादशी को उपवास पैतामह कृच्छ्र व्रत कहलाता है। इस प्रकार पैतामह कृच्छ्र व्रत करके दिन में भगवान् कृष्ण का पूजन करे तो यह तीनों लोकों में पवित्र होकर वैकुंठ को प्राप्त हो जाता है।
कार्तिक सुदी छट से तीन दिन केवल दूध पीवे फिर नवमी से तीन दिन उपवास करे यह महेन्द्र कृच्छ्र व्रत करने से दुर्लभ वैकुण्ठ का वास होता है।
तीन दिन तक अन्न खाय फिर तीन दिन तक उपवास करे, यह भी पत्र पंचक व्रत कहलाता है तथा इसको वैष्णव कृच्छ्र व्रत भी कहते हैं।
जो मनुष्य एकम् से पंचमी तक केवल दही खाय, फिर एकादशी तथा द्वादशी को भगवान् का पूजन करे, यह यास्क कृच्छ्र व्रत होता है,
इससे श्वेत द्वीप का वास मिलता है। जो शुक्ल पक्ष की एकम् से प्रतिदिन एक ग्रास बढ़ाता और कृष्ण पक्ष में एक-एक ग्रास कम करता है तथा अमावस को कुछ नहीं खाता है यह चांद्रायण व्रत कहाता है।
एक ग्रास दो तोले या अच्छी तरह से मुंह में आ जाय इतना होता है। कृष्णपक्ष की आदि को और चौदश को पांच ग्रास भोजन करके किसी प्रकार एक पक्ष में २४० ग्रास पूरे करता है, यह भी चान्द्रायण व्रत कहाता है।
जो गौ के चारों स्तनों का दूध पीता है, फिर सात दिनों तक दो स्तनों का और फिर छ दिनों तक एक स्तन का दूध पीता है और फिर तीन दिनों तक केवल वायु भक्षण यह सोमपान नाम वाला व्रत सब पापों का नाश करने वाला होता है।
गेहूँ तथा चावल की कांजी, दही, दूध, घी, पानी और पंचगव्य यह सब चीजें नियमपूर्वक कार्तिक के मास में खाने से साप्ताषक कृच्छ्र व्रत होता है। इसको करने वाला मनुष्य विष्णु लोक को प्राप्त हो जाता है।
बेल, पलाश, गूलर का काढ़ा और गर्म दूध पीकर एकादशी व्रत करने वाला द्वादशी को पारण करे तो वैकुण्ठ वासी होता है।
जो आदमी कार्तिक सुदी सप्तमी, अष्टमी, नवमी और दशमी को जल कमल को खावे फिर एकादशी को उपवास करे तो इस लक्ष्मी व्रत को करने से मनुष्य लक्ष्मी का पात्र होता है।
इसको करने वाला भगवान् के वैकुण्ठ लोक को प्राप्त होता है । प्रात काल में चार और सायंकाल में इसको खाने से शिशु चान्द्रायण व्रत कहलाता है।
कार्तिक सुदी चौदश को विधिपूर्वक ब्राह्म क्रूच व्रत तथा गौरी का पूजन करना चाहिये, इसकी विधि कहते हैं। गौ मूत्र, गोबर, गौघृत और कुशा का जल लेकर यह सब मिला कर पंचगव्य अथवा ब्राह्म क्रूच होता है तथा लाल रंग की गौ का मूत्र,
श्वेत गौ का दूध, नीली गौ का दही, काली गौ का घी यदि यह न मिल सके तो दूसरी तरह का भी पंचगव्य हो सकता है, इसका प्रमाण यह है गौ मूत्र आठ माशे, गोबर १९ माशे, दूध १२ माशे,
दही दस माशे, घी आठ माशे तथा कुशा का जल चार माशे। गौ मूत्र गायत्री मंत्र पढ़कर लेना चाहिये।‘गंधद्वारा॰’ यह मंत्र पढ़कर गोबर, ‘पयः पथिव्यां०’ पढ़कर दूध,’ दधि क्रावणो’
१. इरावती., २. इंद विष्णुर्विचक्रमे., ३. शर्वती, ४. मनस्तोक.) ५. शवती. इन मंत्रों से आहुति देकर बचा हुआ घी पिये। घी पलाश के पत्र, स्वर्ण पात्र या चाँदी के पात्र में पीना चाहिए।
एक दिन तथा रात्रि उपवास करे, साथ ही भगवान् का स्मरण करे। यदि स्त्री व्रत करे तो अपने पति की आयु कामना के अर्थ भगवान् की प्रार्थना करे।
दिन भर भोजन नहीं करना चाहिए। आँवला या तुलसी का पूजन करना चाहिए। व्रत समाप्ति के निमित्त ब्राह्मण को गोदान करना चाहिए।
इस प्रकार इन कृच्छ्रादि व्रत के करने वाले भगवान् को अति प्रिय होते हैं और वे परमपद को प्राप्त हो जाते हैं।