चौंतीसवाँ अध्याय कार्तिक माहात्म्य
सूतजी कहते हैं कि यदि किसी में उद्यापन की शक्ति न हो तो ब्राह्मणों को भोजन करा देवे।
यदि ब्राह्मण न मिलें तो गौं का पूजन कर ले। यदि गौ भी न मिले तो पीपल अथवा वट का पूजन कर लेवे।
यह सुनकर ऋषि पूछने लगे कि महाराज! वृक्ष तो सभी समान हैं
तब सूतजी ने कहा- पीपल विष्णु का, वट शिव का तथा पलाश ब्रह्मा का रूप है।
तब पार्वतीजी ने क्रोधित होकर देवताओं को श्राप दिया कि तुम वृक्ष रूप हो जाओ।
तब विष्णुजी गया में जाकर पीपल, शिव काशी में अक्षय वट और ब्रह्माजी पलाश रूप हो गए।
और शनिवार को अवश्य होताहै, इसका क्या कारण है, सो भी कृपा करके कहिये।
तब श्रीविष्णु भगवान् ने कौस्तुभ मणि तथा लक्ष्मीजी को स्वयं ग्रहण कर लिया।
जब भगवान् लक्ष्मीजी के साथ विवाह करने लगे तो लक्ष्मीजी ने कहा कि भगवन्!
मेरी एक बड़ी बहिन भी है, जिसका नाम दरिद्रा है अतः पहिले उसका विवाह होना चाहिए।
विष्णुजी ने लक्ष्मीजी के यह वचन सुनकर उनकी बड़ी बहिन ज्येष्ठा उद्दालक ऋषि को सौंप दी। ज्येष्ठा ( दरिद्रा) का काला रंग तथा लाल नेत्र, बिखरे बाल। उद्दालक मुनि भगवान् की आज्ञा मानकर दरिद्रा को अपने आश्रम में ले आए।
वहां आकर दरिद्रा ने देखा कि आश्रम में वेद पाठ तथा हवन हो रहा है। यह देख उसने मुनि से कहा कि मैं यहां पर नहीं रह सकती।
और कह गये कि मैं तेरे लिए कोई स्थान देखकर आता हूं। दरिद्रा ने बहुत देर तक ऋषि की प्रतीक्षा की, किन्तु उनके न आने पर वह रोने और चिल्लाने लगी।
अतः पहले आप उसे जाकर शांत करिये। तब भगवान् लक्ष्मीजी सहित वहाँ पर आए और कहने लगे कि तुम पीपल में निवास करो।
और उसके यहाँ लक्ष्मी का वास होगा। जो शनिवार को तुम्हारा पूजन करेगा और सूत लपेटेगा,
उसके समस्त मनोरथ सिद्ध होंगे। परन्तु दूसरे दिन अर्थात् रविवार को जो तुम्हारा स्पर्श करेगा वह दरिद्री हो जाएगा।