पेंतीसवाँ अध्याय कार्तिक माहात्म्य

पेंतीसवाँ अध्याय कार्तिक माहात्म्य

पुण्य भी लगता है, या बिना दिया हुआ पुण्य मिलता है। तब सूतजी कहने लगे कि बिना दिये हुए भी पाप पुण्य दोनों मिलते हैं।

सत्ययुग में एक के पाप और पुण्य के कारण सारे देश को पाप और पुण्य मिलता था।

त्रेता में ग्राम को तथा द्वापर में कुल को मिलता था, परन्तु कलियुग में केवल करने वाले को ही पाप और पुण्य मिलता है।

एक पात्र में भोजन करने वाले को पाप व पुण्य का आधा भाग मिलता है। दूसरे की निन्दा करने वाले, सुनने वाले अथवा चिन्तन करने वाले को भी पाप पुण्य मिलता है।

दूसरे के द्रव्य को चुराकर दान देने वाले को पाप मिलता है।

पाप या पुण्य का उपदेश देने वाले को छठा अंश प्राप्त होता है।

प्रजा का छठा अंश राजा को मिलता है। शिष्य से गुरु, पिता से पुत्र, स्त्री से परि भी छठा अंश पाते हैं। स्त्री पति का आधा पुण्य पाती है।

इस प्रकार बिना दिये भी पाप तथा पुण्य एक दूसरे को मिलता है।

इसके अनुसार एक अत्यन्त पुण्य देने वाला इतिहास सुनाते हैं।

पूर्वकाल में उज्जयिनी नामक नगरी में ब्रह्मकर्म से भ्रष्ट, पापी, दुष्ट बुद्धि, रस, कमल तथा खाल बेचने वाला,

झूठ बोलने वाला, जुआरी, मदिरा पीने वाला, वैश्यागामी धनेश्वर नाम वाला एक ब्राह्मण रहता था।

वह क्रय-विक्रय के हेतु अनेक नगरों में घूमता फिरता था। एक समय वह महिष्मती नगरी में गया और माल बेचने के लिए वहां पर एक मास तक ठहरा।

एक दिन उसने नर्मदा नदी के तट पर जप करने वाले ब्राह्मणों को देखा।

पूर्णिमा को गौ, ब्राह्मण का पूजन तथा दीप दान भी देखा।

सायंकाल श्री शिवजी का दीपदान महोत्सव देखा। कार्तिक पूर्णिमा को दान, हवन तथा जप करने वाला अक्षय फल को प्राप्त होता है।

महादेवजी तथा विष्णु में अन्तर मानने वाले का समस्त पुण्य निष्फल चला जाता है।

धनेश्वर यह सब उत्सव देखता रहा । उसी रात को एक सर्प ने उसे काट लिया, तब कुछ मनुष्यों ने उसके मुख में तुलसी दल तथा नर्मदा का जल डाला।

इसके पश्चात् वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। यमराज के दूत उसे मारते-पीटते हुए यमपुरी ले गये।

वहाँ चित्रगुप्त ने उसको क्रोध की दृष्टि से देखते हुए यमराज से कहा कि यह घोर पापी है, इसने आजीवन एक भी पुण्य कार्य नहीं किया।

तब यमराज ने आज्ञा दी कि इसको खौलते हुए तेल के कढ़ाव में डाल दो।

फिर मुद्गरों की मार लगा कर कुम्भीपाक नरक में डालो। परन्तु जब उसको तेल में डाला गया तो खौलता हुआ तेल एकदम शीतल हो गया।

दूतों ने तत्काल जाकर यह बात यमराज को सुनाई तो वे भी आश्चर्यचकित हुए। ठीक उसी समय नारदजी यमराज की सभा में आ पहुँचे और यमराज से पूजित होने के बाद वे कहने लगे कि हे यम!

यह धनेश्वर महापापी होते हुए भी कार्तिक मास का व्रत करने वालों के सत्संग के प्रभाव से पुण्यात्मा हो गया है।

भक्तों द्वारा नर्मदा का जल तथा तुलसीदल इसके मुख में छोड़े गये, साथ ही विष्णु का नाम इसके कान में पड़ा। इन सबके कारण इसके पाप नष्ट हो गये हैं।

इतना कहकर नारदजी ब्रह्मलोक को चले ‘गये। उधर धनेश्वर कुबेर का अनुगामी धनयज्ञ हुआ, जिसके नाम से अयोध्या में भगवान् गदाधर नाम का तीर्थ विख्यात हुआ।

कामना युक्त पाप गीला तथा कामना रहित पाप सूखा कहा जाता है।

कार्तिक मास के व्रत के प्रभाव से मनुष्य द्वारा किये गये सूखे तथा गीले दोनों प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं।

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