उत्पन्ना एकादशी एकादशी महात्म्य
नैमिषारण्य तीर्थ मे अट्ठासी हजार ऋषि-मुनियों ने एकादशी की उत्पत्ति एवं माहात्म्य के तथ्य को जानने के लिए श्री सूतजी से निवेदन किया।
श्री सूतजी ने कहा- हे ऋषियों! द्वापर युग में मनोकामना पूर्ण करने वाली अनन्त पुण्य प्रदायिनी एकादशी की उत्पत्ति,
माहात्म्य आदि के बारे में पाण्डव श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने भी अश्वमेघ यज्ञ के समय भगवान् श्रीकृष्ण से यही सब प्रश्न किये थे ।
युधिष्ठिर ने पूछा- हे भगवन्! पुण्यमयी एकादशी कैसे उत्पन्न हुई, इस संसार में क्यों पवित्र मानी गई तथा देवताओं को कैसे प्रिय हुई, इसका माहात्म्य और विधि-विधान क्या है?
इसको करने से क्या पुण्य फल मिलता है? उपवास के दिन जो क्रिया की जाती है, आप कृपया बतलाने का कष्ट करें।यह वचन सुनकर श्रीकृष्ण कहने लगे-
एकादशी व्रत विधि-विधान
दशमी को सायंकाल भोजन करके अच्छी तरह से दांतुन आदि करें। रात्रि को भोजन कदापि न करें।
एकादशी के दिन प्रातः चार बजे उठकर सर्वप्रथम व्रत का संकल्प करें। जिसकी विधि इस प्रकार है- अमुक संवत्सरे (सम्वत् का नाम लें),
मार्गशीर्ष मासे कृष्ण पक्षे पुण्य पर्वणि एकादशी तिथौ अमुक वासरे (वार का नाम लें) अमुक गोत्रोत्पन्नोऽहं (अपने गोत्र का नाम लें) अमुक नाम्नोऽहं (अपने नाम का उच्चारण करके ब्राह्मण हो तो शर्माहं,
क्षत्रिय हो तो वर्माहं, वैश्य हो तो गुप्तोऽहं और शूद्र हो तो दासोऽहं कहे) सकल जन्म जन्मान्तरार्जितानि यानि पापानि तेषां शमनार्थ एकादशी व्रतमहं करिष्ये ।
इसके पश्चात् शौच आदि से निवृत्त होकर नदी, तालाब, बावड़ी या कुएं पर जाकर इस मंत्र को पढ़ते हुए अपने शरीर पर मिट्टी अथवा राख लगायें।अश्वक्रांते रथक्रांते विष्णुक्रांते वसुन्धरे ।
उद्धृतापि वरोहेण कृष्णेन शत बाहुना ॥ 1 ॥ मृतिके हर में पापं यन्मया पूर्वसंचितम् । त्वया हतेन पापेन गच्छामि परमां गतिम् ॥ 2 ॥
फिर शुद्ध जल से स्नान करे। व्रत करने वाला चोर, पाखंडी, पर-स्त्रीगामी, निन्दक, मिथ्याभाषी तथा किसी प्रकार के पापी मनुष्य से बात न करें।
स्नान के पश्चात् धूप, दीप, नैवेद्य आदि सोलह चीजों से भगवान् का पूजन करें और रात को दीपदान करें। यह सब कर्म भक्ति और श्रद्धा युक्त होकर करें।
रात्रि को सोना व प्रसंग नहीं करना चाहिए। सारी रात्रि भजन-कीर्तन आदि करना चाहिए और जो कुछ पहले जाने-अनजाने में पाप किए हों उनकी क्षमा माँगनी चाहिए।
धर्मात्मा पुरुषों को कृष्ण पक्ष तथा शुक्ल पक्ष दोनों एकादशियों को समान समझना चाहिए।
एकादशी व्रत माहात्म्य
जो मनुष्य उपरोक्त विधि के अनुसार एकादशी का व्रत करते हैं।
उन्हें शंखोद्धार तीर्थ में स्नान करके भगवान् के दर्शन करने से जो फल प्राप्त होता है। वह एकादशी व्रत के सोलहवें भाग के भी समान नहीं हैं।
व्यतिपात के दिन दान देने का लाख गुना फल होता है। संक्रान्ति से चार लाख गुना तथा सूर्य-चन्द्रग्रहण में स्नान-दान करने से जो फल प्राप्त होता है
उससे हजार गुना पुण्य कन्यादान का होता है और उससे दस गुना पुण्य विद्यादान करने से होता है। विद्या दान से दस गुना पुण्य भूखे को भोजन कराने से होता है।
हजार यज्ञों से भी अधिक इसका फल होता है एकादशी के व्रत का प्रभाव देवताओं को भी दुर्लभ है। रात्रि को भोजन करने वाले को उपवास का आधा फल मिलता है और दिन में एक बार भोजन करने वाले को उसका आधा फल मिलता है।
परन्तु निर्जल व्रत रखने वाले का माहात्म्य तो देवता भी वर्णन नहीं कर सकते।”युधिष्ठिर कहने लगे – “भगवन्!
वह अत्यंत बलवान और भयानक था । उस प्रचण्ड दैत्य ने इंद्र, आदित्य, वसु, वायु, अग्नि आदि सब देवताओं को पराजित करके भगा दिया।
तब इंद्र आदि देवताओं ने शिवजी से अपने दुःख को कहा और बोले- “हे कैलाशपति! मुर दैत्य से भयभीत होकर सब देवता मृत्यु लोक में विचरण कर रहे हैं।
कृपा कर हमारे इस दुःख को दूर करने का उपाय बतायें।” तब शिवजी कहने लगे- “हे देवेन्द्र! तीनों लोकों के स्वामी भक्तों के दुःखों को नाश करने वाले भगवान् विष्णु की शरण में जाओ, वही तुम्हारे दुःखों को दूर कर सकते हैं।
देवताओं की रक्षा करने वाले मधुसूदन! आपको नमस्कार है। आप हमारी रक्षा करें। दैत्यों से भयभीत होकर हम सब देवता आपकी शरण में आए हैं।
हे भगवन् दैत्यों ने हमको जीतकर स्वर्ग से निकाल दिया है, आप उन दैत्यों से हम सबकी रक्षा करें।. देवताओं के ऐसे करुणामयी वचन सुनकर भगवान् विष्णु कहने लगे – “देवताओं! ऐसा मायावी दैत्य कौन है,
जिसने सब देवताओं को जीत लिया है? उसका नाम क्या है, उसमें कितना बल है और किसके आश्रय है तथा उसका स्थान कहाँ है?
यह सब मुझे बताओ।” भगवान् के वचन सुनकर इंद्र बोले- “भगवन्! प्राचीन समय में चंद्रावती नगरी में नाड़ीजंघ नाम का एक राक्षस था ।
उसी के महापराक्रमी और लोक विख्यात मुर नामक पुत्र ने सब देवताओं को स्वर्ग से निकालकर वहाँ अपना अधिकार कर लिया है।
वह सूर्य बनकर स्वयं ही प्रकाश करता है तथा वह स्वयं मेघ बन जल की वर्षा करता है। अतः आप उस दुष्ट को मारकर देवताओं को निर्भय बनाइए ।
” इंद्र के वचन सुनकर भगवान् कहने लगे- “हे देवताओं ! मैं शीघ्र ही तुम्हारे शत्रु का संहार करूँगा, तुम चंद्रावती नगरी जाओ।” इतना कहकर भगवान् ने सब देवताओं सहित चंद्रावती नगरी की ओर प्रस्थान किया।
उस समय दैत्यपति मुर दैत्य सेना सहित युद्ध भूमि में गरज रहा था। युद्ध होने पर असंख्य दानव अनेकों अस्त्र-शस्त्रों को धारण कर देवताओं से युद्ध करने लगे।
परन्तु देवता भय के मारे चारों दिशाओं में भागने लगे। जब स्वयं भगवान रणभूमि में आए तो दैत्य उनको भी देखकर अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र तथा आयुध लेकर दौड़े।
भगवान् उनको आता देख चक्र और अपने दिव्य बाणों से उन पर प्रहार करने लगे। अनेक दैत्य उनके हाथों से मारे गए, केवल एक मुर ही जीवित बचा रहा।
वह अविचल भाव से भगवान् के साथ युद्ध करता रहा। भगवान् जो भी तीक्ष्ण बाण उसके शरीर में मारते वह उसके लिए पुष्पों के समान हो जाते।
शस्त्रों के प्रहार से उसका शरीर छिन्न-भिन्न हो गया परन्तु वह फिर भी युद्ध करता ही रहा।
अब वे आपस में मल्ल-युद्ध करने लगे और दस हजार वर्ष तक उनका मल्ल-युद्ध होता रहा। परन्तु वह दैत्य भगवान् से पराजित न हुआ।
तब भगवान विष्णु युद्ध से थककर बद्रिकाश्रम को चले गए। वहाँ पर एक हेमवती नाम की सुंदर गुफा थी, उसमें विश्राम करने के लिए अंदर प्रवेश कर गए।
यह गुफा बारह योजन लंबी थी और उसका एक ही द्वार था । विष्णु भगवान् वहाँ जाकर सो गए। वह दैत्य उनको सोया हुआ देखकर मारने के लिए उद्यत हुआ।
वह अभी मारने का प्रयत्न कर ही रहा था कि उनके शरीर से एक अत्यन्त प्रभावशाली सुंदर कन्या अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए उत्पन्न हुई और दैत्य के सामने आकर युद्ध करने लगी।
वह दैत्य उस बलवान कन्या को देख आश्चर्यचकित होकर उसके साथ युद्ध करने लगा।
उस महादेवी ने उस बलवान दैत्य के रथ को चूर-चूर कर दिया तथा उसके अस्त्र-शस्त्रों को काट कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया।
तब वह दैत्य महान क्रोध करके मल्ल युद्ध करने लगा। परन्तु देवी ने उसको धक्का मारकर मूच्छित कर दिया। जब वह दैत्य मूर्च्छा से जागा तो उस देवी ने उसका सिर काट डाला।
इस प्रकार वह दैत्य तो पृथ्वी पर गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुआ और बाकी दैत्य डर के मारे पाताल लोक भाग गए।
जब भगवान् विष्णु की निद्रा टूटी तो उन्होंने मुर दैत्य के कटे सिर व दोनों हाथ जोड़कर खड़ी हुई एक कन्या को देखा। तब भगवान् उस कन्या से पूछने लगे – “हे देवी!
जिस दैत्य से इंद्रादिक सब देवता भयभीत होकर स्वर्ग से भाग गए थे उसको किसने मारा है?” वह कन्या कहने लगी- “भगवन्!
जब आप निद्रा में थे तो यह दैत्य आपको मारने के लिए उद्यत हुआ।
उस समय आपकी योगमाया द्वारा आपके शरीर से उत्पन्न होकर मैंने इस दैत्य को मार गिराया ।” यह सुनकर भगवान् कहने लगे – “हे देवी! तुमने देवताओं के भय को दूर करके बहुत बड़ा कार्य किया है।
अत: तुम अपनी इच्छानुसार वर माँगो ।” तब वह देवी बोलीं- “हे भगवन्! यदि आप मुझको वरदान देना ही चाहते हैं
तो यह वरदान दीजिए कि जो कोई मेरा व्रत करे उसके सब पाप नष्ट हो जाएँ और अंत में वह मोक्ष को प्राप्त हो ।
जो इस व्रत का पुण्य है उसका आधा रात्रि को भोजन करने वाले को मिले और जो एक बार भोजन करे उसको भी आधा फल प्राप्त हो ।
जो मनुष्य भक्तिपूर्वक मेरे व्रत में एक बार भी भोजन न करे, उसको धर्म, और मुक्ति प्राप्त हो।” धनकन्या के वचन सुनकर भगवान् बोले- तथास्तु! “हे कल्याणी ऐसा ही होगा।
मेरे और तुममें श्रद्धा रखने वाले संसार में प्रसिद्धि व समृद्धि पायेंगे और वे अंत में मोक्ष की प्राप्त करके मेरे लोक को जाएँगे।
क्योंकि तुम आज मार्गशीर्ष एकादशी को उत्पन्न हुई हो । अतः तुम्हारा नाम उत्पन्ना एकादशी होगा। तुम्हारे व्रत का फल सब तीर्थों से भी अधिक फल देने वाला होगा।
” ऐसा कहकर भगवान् अंतर्ध्यान हो गए।भगवान् श्रीकृष्ण ने आगे कहा- “हे युधिष्ठिर ! सब तीर्थों के फल से एकादशी व्रत का फल सर्वश्रेष्ठ है।
एकादशी व्रत करने वाले के सब शत्रु भाग जाते हैं और अन्त मे वह मोक्ष प्राप्त करता है। यह मैंने तुम्हें एकादशी की उत्पत्ति का सब वृत्तांत बताया है।
एकादशी पापों को नष्ट करने वाली तथा सिद्धि प्राप्त कराने वाली है। उत्तम पुरुषों को दोनों पक्ष की एकादशियों को समान ही मानना चाहिए ।
जो मनुष्य इस एकादशी के माहात्म्य को पढ़ता अथवा सुनता है । उसको अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है और वह करोड़ों वर्ष तक विष्णु लोक में वास करता है,
वहाँ भी उसका पूजन होता है। जो मनुष्य एकादशी माहात्म्य के चौथे भाग को पढ़ता है, उसके ब्रह्म हत्या जैसे अनेक पाप नष्ट हो जाते हैं।
विष्णु धर्म के बराबर दूसरा कोई धर्म नहीं है तथा एकादशी व्रत के समान और कोई दूसरा व्रत नहीं है।फलाहार – इसमें गुड़ और बादाम का सागार होता है ।
कुटू के आटे की सामग्री- दूध, मेवा और फल ले सकते हैं।