Hariyali Teez Vrindavan
वृन्दावन में हरियाली तीज की छटा निराली होती है। नीचे नीले रंग की बहती – उफनती इठलाती श्री यमुना और उसके ऊपर ओलरते काले और सघन मेघ । कभी नीचे, कभी ऊपर । न जाने कहाँ से बहते ही चले आते हैं आकाश में, नगाड़े बजाते हुए। कभी बरसते हैं, कभी खुल जाते हैं ।
सारा वृन्दावन मयूरों की पुकार से भर जाता है । वन- भूमि हरी-भरी हो जाती है । तरु-राजियाँ पवन के झकोरों के साथ झूमती- लहराती हैं । जैसे प्रकृति हरी-भरी, वैसे ही मन भी हरे-भरे । हरियाली तीज में सब हरा-हरा, भरा-भरा ।
वृन्दावन को आने वाली सभी सड़कें और पगडण्डियाँ भी चाव से भरी उफनी-उफनी चलती हैं। यमुना पार से लोग नावों पर सवार होकर आते हैं-हजारों की संख्या में । मथुरा की ओर से आने वाला राजमार्ग तो यात्रियों और भक्तों की भीड़ से उफनता चलता है, प्रवाह वृन्दावन की ओर।
दिल्ली छटीकरा का राजमार्ग भी वैसा ही व्यस्त प्रवाहमय । बसों की बड़ी लम्बी कतारें । रेलगाड़ी भी अपने डिब्बे बढ़ा लेती है। जितने लोग रेलगाड़ी में अन्दर, उतने से भी अधिक उसकी छतों पर ।
उस दिन थोड़ा ऊपर आकाश में उठकर देख सकें तो यही दिखाई देगा कि वृन्दावन के चारों ओर के राज-मार्ग और पगडण्डियाँ लोगों से भरी हुई, वृन्दावन की ओर प्रवाहित हो रही हैं और वृन्दावन की सड़कों और गलियों में होकर ये श्रीबाँकेबिहारीजी के मन्दिर तक पहुँच रही हैं या पहुँचने की चेष्टा में हैं ।
सभी का लक्ष्य श्रीबाँकेबिहारीजी का दर्शन है। भक्त लोग मानो अपने तन की साध बन गये हैं। श्री बाँकेबिहारी जी महाराज आज के ही दिन, वर्ष में केवल एक दिन ही तो झूला झूलते हैं।
उस झूले के अद्भुत दर्शनों से अपने चिर- तृप्त नेत्रों को कैसे भर लिया जाय, यही आकांक्षा है, जो जन-जन को वृन्दावन खींच लाती हैं। वृन्दावन की सभी गलियाँ श्रीबाँकेबिहारी जी के मन्दिर को जाती हैं।
लोग झूमते हैं गाते हैं, तालियाँ देकर नृत्य करते हैं और तब कीर्तन का | समा बँध जाता है । एक ही आवाज गूँजती है-‘बाँकेबिहारी, जय हो तिहारी ।’
मन्दिर के भीतर तक पहुँचते-पहुँचते भक्तवृन्द अपने भाग्य मनाते हैं । सायंकाल दर्शन खुलते हैं। पूरा मन्दिर ज्योति-सर में नहा उठता है ।
जगमोहन से भी बाहर निकलता हुआ पूरे जगमोहन को शिखर तक ढँक लेने वाला रजत-स्वर्णमय वह हिंडोला, अपने आप में कला का एक अद्भुत नमूना है । जगर-मगर बिजली की तरह चारों ओर फैलती है-फैलती ही जाती है ।
बीच में श्रीबाँकेबिहारी जी महाराज के अलभ्य दर्शन । सजल मेघ कान्ति । चमकते हुए नुकीले और हृदयों को चीर देने वाले -बड़े- बड़े उनके कमल से लोचन । नेत्रों में अपनी पूरी गहराई के साथ इतनी चमक कि सागर भी समा जाये और आकाश भी।
इनके सामने एक बार जो भी आ गया, इनका हो गया। इसमें डूब गया । डूबने के बाद थाह कहाँ ? अथाह है यह डूबन । अनौखी है यह रीझन । रीझ के हाथों बिके तो बचा क्या ?
नेत्रों ने अपना बना लिया । नेत्रों में हृदय और हृदय में नेत्र । कहीं कुछ बाकी न रहा । तन मन का अनुसंधान खो बैठे ।
विलक्षण श्रृंगार । जमी और कसी हुई हरियाली पाग मोतियों की लड़ी से जड़ी । ऊपर टिपारा, सिरपेच, तुर्रा और कलंगी-हीरे और जवाहारात । मानो स्वयं कांति ने अपने को न्यौछावर करने का तय कर लिया है ।
कानों में हिलते हुए कुण्डल चित्त को आन्दोलित ही नहीं करते, मथते हैं । मस्तक पर आपीड़ और बर्हापीड़ की विलक्षण छटा । मुख पर एक सुचिक्कण शोभा । मुस्कुराहट खेलती है ।
श्रीबिहारीजी के नेत्रों से ही कोई नहीं बचता । भाग्यशाली हृदय यदि बच भी जाय तो मुस्कुराहट के उस सात्विक और अनोखे जाल में ऐसा फँस जाता है कि छूटे नहीं छूटता ।
मुरली की मुद्रा में उनके हस्तकमल । सचमुच, मुरली तो बजती ही है। यह मुरली न बजती तो इनके पिपासुजन यहाँ क्यों दौड़े चले आते ? वह मुरली मन को मोड़ लेती है । घर-बार विसरता है । मन में वृन्दावन जागता है, श्रीबिहारीजी के दर्शन का चाव खींचता है-खींचता है तो चित्त रुक नहीं पाता ।
और शरीर बस में नहीं रहता । वृन्दावन की ओर चल पड़ता है, जो भी सवारी मिले, या फिर पैदल ही । तभी तो लग जाते हैं, स्वामी हरिदासजी के इस लाडिले ठाकुर के दर्शन करने को । नेत्र भरकर, भर-भरकर पीने पर भी तृप्ति नहीं होती ।
उस मुस्कुराहट को कौन-सा अनन्त आकाश अपने में समेट सकता है ? कौन-सा समुद्र उसे अपने में समा सकता है ? वही मुस्कुराहट तो गगन में मेघ बनकर छा गये हैं। मेघ नहीं श्रीबिहारी जी की मुस्कुराहट बरस रही है, कृपा बरस रही है। इसलिए मेघों की फुहार हो या जलधार ।
भीगना अच्छा लगता है । भीगते-भीगते मन्दिर तक आ गये तो मुस्कुराहट में भीगने का भाग्य स्वयं मिल जाता है । अनोखी मादकता है। एक बड़ी मीठी चुभन है मुरली की तान की । भाग्यवान् ही सुनते हैं पर अनजाने ही चीरती है सबको ।
जामा और पटका का अनोखा श्रृंगार वक्षस्थल पर झूमते हुए पुष्प-हार । पीछे इकलाई और उसमें सिमटी हुई प्रियाजी । चन्द्रिका की शोभा निराली । साड़ी की सिकुड़न में मन सिमट जाता है । इन दोनों की अद्भुत जोड़ी को अपलक देखते रहते हैं ।
स्वामी हरिदासजी महाराज | हाथ में तानपूरा । तानपूरे की लय ही संगीत हैं। हर मन में, जो रसिक है, गूँजता रहता है । मल्हार के स्वर अनजाने उभरते हैं । राग-रागनियों के यूथ के यूथ रुचि के प्रकाश में खेलते है ।
मन्दिर में भीड़ बढ़ती ही जा रही है। समुद्र में लहरें तो आपने देखी होंगी। वैसी ही लहर उठती है । जन-समुद्र की ये हिलोरें । एक किनारे से दूसरे तक । टिक पाना सम्भव नहीं होता । पीछे से आने वाला ज्वार का क्रम जारी रहता है।
पूरे हिंडोले की छटा में श्रीबिहारीजी का अनोखा दर्शन, उनके नेत्रों की दिव्याभा और मृदु मुस्कान-जगत् का सभी कुछ भुला देती है । गृहस्थ तो गृह-काज भूल जाते हैं और वेदान्तवादियों के चित्त वेदान्त – सिद्धान्त को साक्षात् पा लेते हैं।
निराकार उपासकों की रिक्तता यहाँ आकर साकार हो जाती है । निर्गुण गुणों से आपूरित हो जाते हैं। सगुण हो जाते हैं। निराकार और निर्गुण से परे का यह आकार और गुण ! यहाँ सहज खेलता है । समस्त वृन्दावन श्रीबाँकेबिहारी जी से आपूरित है ।
श्री हरिदास के स्वामी- ‘स्यामा कुञ्जबिहारी’ की शोभा ही निराली है । निकुञ्जों में तो कुञ्जबिहारी रोज ही झूलते हैं परन्तु रसिकों को साक्षात् दर्शन तो केवल आज के ही दिन होते हैं। श्रीबिहारीजी केवल एक दिन ही झूला झूलते हैं और वह दिन कितना पवित्र और उल्लासमय होता है, यह बात उसी दिन मालूम होती है ।