आठवाँ अध्याय कार्तिक माहात्म्य

आठवाँ अध्याय कार्तिक माहात्म्य

नारदजी कहने लगे कि हे राजा पृथु ! जालन्धर ने हमारा बड़ा आदर और सत्कार किया। भक्ति भाव से पूजन करके कहने लगा कि महाराज!

आपका कैसे आगमन हुआ और मेरे लिए क्या आज्ञा है? हमने कहा कि दैत्यराज ! मैं कैलाश गया था। वहाँ पार्वती सहित अवधूत शिव और उनका वैभव देखा तो चकित हो गया कि क्या ऐसा वैभव और किसी का भी हो सकता है?

ऐसा विचार कर तीनों लोकों में भ्रमण करता हुआ यहां पर आया हूँ। यहाँ आकर तुम्हारी समृद्धि भी देखी है। तुम्हारे और शिव के वैभव में और कोई अन्तर नहीं है किन्तु तुम्हारा वैभव स्त्री रहित है।

भस्म लेपन करने वाले, राग रहित, कामदेव के शत्रु शिव के पास स्त्री रत्न जैसी पार्वती हैं, वैसी यद्यपि तुम्हारे पास अनेक सुन्दरियाँ हैं, परन्तु उनमें से कांतिमान पार्वती की तुलना कोई भी नहीं कर सकती।

अतः तुम्हारा यह वैभव स्त्री रत्न रहित देखकर यही निश्चित हुआ कि शिव के समान वैभवशाली इस समय त्रिलोक में कोई नहीं है।

क्योंकि उनके पास पार्वती जैसी ऐसी स्त्री है, जिसको देखकर ब्रह्माजी ने अनेक अप्सरायें रचीं, परन्तु एक भी पार्वतीजी की समता को नहीं पहुँच सकी। नारदजी कहने लगे कि हे राजा पृथु !

हम तो इतना कहकर वहाँ से चले आये, परन्तु जालन्धर ने पार्वतीजी की इतनी सुन्दरता सुनकर काम- ज्वर से पीड़ित हो राह को बुलाकर शिव के पास भेजा।

राहु उसी समय चन्द्र के समान उज्ज्वल कैलाश को काला करता हुआ द्वारपाल नन्दी द्वारा रोके जाने तथा शिव के सामने उपस्थित किये जाने पर उनसे बोला कि हे शिव!

तीनों लोकों के नाथ और सब रत्नों के स्वामी जालन्धर की आज्ञा सुनो “श्मशानवासी तथा नरमुण्डों की माला धारण करने वाले जटाजूटधारी तुम्हारे जैसे अवधूत के पास पार्वती जैसी पारम सुन्दरी स्त्री शोभा नहीं देती।

मैं तीनों लोकों का नाथ सब रत्नो का स्वामी हैं। क्योंकि पार्वती भी स्त्री रत्न है अतः वह मेरे साथ ही शोभा दे सकती है,

तेरे जैसे भस्म धारण करने वाले योगी के पास नहीं रह सकती।”नारदजी कहने लगे कि हे राजा पृथु ! राहु के इतना कहते ही श्री शिवजी ने अपनी भृकुटि (भौंह ) में से एक अति भयंकर ऐसे पुरुष को उत्पन्न किया जिसका सिंह के समान मुख, जलती हुई अग्नि के समान लाल-लाल नेत्र और शरीर पर खड़े हुए बड़े-बड़े बाल थे।

उत्पन्न होते ही जब वह राहु को खाने के लिये आगे बढ़ा तो राहु भयभीत होकर कहने लगा कि हे शिव! मैं ब्राह्मण हूँ और दूत भी। अतः तुम मुझको मत मारो। ऐसा कहने पर शिव ने राहु को पकड़ कर आकाश में फेंक दिया।

तब वह भयंकर पुरुष राहु को छोड़कर शिव के पास आया और कहने लगा कि मैं भूखा हूँ, मुझे खाने के लिए कुछ दो । तब शिवजी ने कहा कि तुम अपने हाथ पैरों को खाओ।

जब वह हाथ पैरों को खाता हुआ सारे धड़ को खा गया, केवल मुख ही बचा तब शिवजी ने प्रसन्न होकर कहा कि आज से तुम्हारा नाम कीर्तिमुख होगा और तुम हमारे द्वारपाल होगे।

पहले तुम्हारी पूजा होगी। तुम्हारी पूजा बिना हमारी पूजा निष्फल होगी। उधर राहु आकाश में जाकर बर्बर देश में गिरा। राह की ऐसी दशा सुनकर जालंधर को बड़ा क्रोध आया और वह दैत्यों की एक करोड़ सेना लेकर अपनी पुरी से बाहर निकला।

बाहर निकलते ही सामने एक आँख वाले शुक्राचार्य और अंगहीन राह मिले। इनके अतिरिक्त और भी अनेक अपशकुन हुए, परन्तु वह रुका नहीं। तब दैत्य सेना सारे आकाश में छा गई।

जब देवताओं ने जालन्धर की कैलाश पर चढ़ाई देखी तो छिप कर शिवजी महाराज को खबर दी। श्री शिवजी ने उसी समय विष्णु भगवान् का स्मरण किया। स्मरण करते ही भगवान् वहां आकर उपस्थित हो गये।

तब शिवजी ने कहा कि भगवन्! आपने देवताओं को पीड़ा देने वाले इस दैत्य को मारा क्यों नहीं? इतना ही नहीं आप वहां जाकर उसके घर में विराजमान क्यों हो गये हैं?

तब विष्णु कहने लगे कि यह आपके अंश से उत्पन्न हुआ है और लक्ष्मीजी का भाई है, इस कारण हमने इसको नहीं मारा है। यह आपके हाथ से ही मारा जाएगा।

तब शिवजी बोले कि यह तेजस्वी दैत्य हमसे नहीं मारा जायगा। आप सब इसको मारने के लिए अपना-अपना तेज दीजिए। तब विष्णु सहित सब देवताओं ने अपना-अपना तेज दिया।

इसके बाद शिवजी ने उस तेज को इकट्ठा करके ज्वालामाली सुदर्शन चक्र बनाया और एक वज्र बनाकर जालंधर से युद्ध करने को तैयार हुए।

शिवजी के भूतगणों की सेना में समस्त देवगण भी आकर सम्मिलित हो गये। उधर कैलाश के निकट जालन्धर अपनी सेना लेकर आ पहुँचा, इधर कीर्तिमुख नन्दी आदि सब गण और देव सेना भी मैदान में आ डटी ।

तब जालन्धर और देवताओं का ऐसा घोर संग्राम हआ कि जिससे सारा विश्व कम्पायमान हो उठा। युद्ध में जितने भी दैत्य मारे जाते थे,

उन सबको दैत्य गुरु शुक्राचार्य जी अपने संजीवनी विद्या से जीवित कर देते थे। यह देखकर भूतादिगण भागकर शिवजी के पास गये और उनको सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया।

तब शिवजी ने अपने मुख से महा भयंकर तालजंघा जिसका मुख पर्वत की कन्दरा के समान था, एक कन्या उत्पन्न की। वह कन्या दैत्यों को खाती हई शुक्राचार्य को उठाकर एकदम अलोप हो गई। तब दैत्यों को शिवगण बुरी तरह से मारने लगे।

गणों की इस मार से घबराकर दैत्य सेना भागने लगी। दैत्य सेना को इस प्रकार भागते देखकर जालन्धर के सेनापति शुम्भ और निशुम्भ तथा कालनेमि आगे आये।

इनको देखकर दैत्यों ने अनेक प्रकार से देव सेना पर प्रहार किये, जिससे देव सेना मार खाकर भागने लगी। तब गणेश और शुम्भ का महा घोर युद्ध हुआ।

इस बार अपनी सेना को भागती देखकर जालन्धर स्वयं रणक्षेत्र में आया। देव सेना में की ओर से वीरभद्र अनेक प्रकार के प्रहार जालन्धर पर करता रहा।

तब जालन्धर ने क्रोध में आकर अपना परिघ उस पर दे मारा और उसके रथ की पताका काट दी। साथ ही जालन्धर ने बाण वर्षा करके देव सेना में भगदड़ मचा दी।

अपनी सेना की ऐसी दशा देखकर स्वयं शिवजी बैल पर चढ़कर युद्ध के लिये आये और आते ही दैत्य सेना पर बाणों के तीव्र प्रहार किये।

इन प्रहारों से दैत्य सेना इस प्रकार भागने लगी जैसे कार्तिक मास के व्रत से पाप भाग जाते हैं। उसी समय शिवजी ने अपने बाणों के प्रहार से खड्गरोमा का सिर काट कर पृथ्वी पर गिरा दिया।

तब जालन्धर ने महाघोर ललकार की, तो शिवजी ने उसके रथ के घोड़ों और सारथी को भी मार गिराया। तब जालन्धर पैदल ही अपना खड्ग लेकर शिवजी की ओर दौड़ा।

शिवजी ने तत्क्षण एक मुक्का उसकी छाती में मारा, जिससे वह कुछ विह्वल हो गया। इस प्रकार जब दैत्य ने देखा कि शिव अजय हैं तो उसने गन्धर्व माया रची। गन्धर्व और अप्सरायें नाचने और गाने लगीं।

शिवजी भी इस माया में फंसकर नाचने और गाने लगे। जालंधर दैत्य श्री शिवजी को माया में फंसा देखकर महादेवजी का रूप धारण करके पार्वतीजी के पास गया और पार्वतीजी का रूप देखकर कामांध हो गया। पार्वतीजी महादेवजी को आया देखकर खड़ी हो गयीं।

परन्तु तत्काल ही राक्षसी माया समझकर वहां से अन्तर्ध्यान हो गयीं। तब जालन्धर पुनः युद्ध भूमि में आया। उधर जालन्धर के चले जाने के बाद पार्वतीजी ने भगवान् विष्णु का स्मरण किया। तब भगवान् विष्णु ने वहां उपस्थित होकर पार्वतीजी को आश्वासन दिया।

भगवान् विष्णु ने सोचा कि जालन्धर ने स्वयं अपनी मृत्यु का रास्ता बता दिया है। यह दुष्ट वृन्दा के पतिव्रत धर्म के कारण ही मृत्यु को प्राप्त नहीं हो रहा है। अतः देवताओं के कार्य तथा भक्तों की रक्षा करने के लिए हमको ही वृन्दा के धर्म को भंग करने का घोर कर्म करना पड़ेगा।

ऐसा करने पर ही इस दुष्ट की मृत्यु होगी। इतनी ही देर में शिवजी भी राक्षसी माया से मुक्त होकर जालन्धर को आया देख उसके साथ युद्ध करने को उद्यत हुए और उस पर अनेकानेक बाणों का प्रहार किया।

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