ग्रंथराज श्रीमद् भागवत की महिमा और रचना

श्रीमद् भागवत की महिमा

ग्रंथराज श्रीमद् भागवत की महिमा

श्रील व्यासदेव जो कि परम ज्ञानी ऋषि थे, उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से, युग के प्रभाव से प्रत्येक भौतिक वस्तु की अवनति को देखा। उन्होंने देखा कि किस प्रकार जनसामान्य की आयु कलियुग में क्षीण हो जाएगी और वे सद्गुणों के अभाव में अधीर रहेंगे।

धरती भी बीते युगों की भांति उसी परिमाण में अन्न उत्पन्न नहीं कर पाएगी। गायें भी पूर्व युगों की भांति उतना दूध नहीं देंगी। शाकों तथा फलों का भी उत्पादन पहले से कम हो जाएगा।

इस प्रकार सारे जीव, चाहे मनुष्य हों या पशु, प्रचुर मात्रा में पौष्टिक आहार नहीं प्राप्त कर सकेंगे।

मनुष्यों की स्मरण शक्ति कम हो जाएगी, बुद्धि अल्प हो जाएगी और पारस्परिक व्यवहार में दिखावा आ जाएगा और चूंकि महर्षि व्यासदेव इसे अपनी दिव्य दृष्टि से देख सकते थे, अतः वे अत्यंत अधीर हो उठे और समस्त वर्णों और आश्रमों के लोगों के कल्याण के विषय में विचार करने लगे।

कलयुग का का प्रभाव

उन्होंने विचार किया कि वेदों में वर्णित यज्ञ ही एकमात्र साधन हैं, जिनसे लोगों की प्रवृत्तियों का शुद्धिकरण किया जा सकता है। तब उन्होंने एक वेद को चार भागों में विभक्त कर दिया जिससे वेदों का ज्ञान जनसामान्य तक पहुँच सके।

चार वेद इस प्रकार हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद । पुराणों में वर्णित ऐतिहासिक तथ्य और प्रामाणिक कथाएँ पंचम वेद कहलायीं।

वेदों का इस प्रकार विभाजन इसलिए किया गया क्योंकि श्रील व्यासदेव चाहते थे कि रजोगुण तथा तमोगुण वाले अल्पज्ञों को भी वेदों का ज्ञान मिले। उन्होंने समझा कि यह ज्ञान मनुष्यों को उनके जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त करने में सहायक होगा।

साथ ही उन्होंने स्त्रियों, शूद्रों तथा द्विजबंधु जो वेदों के दिव्य ज्ञान को समझने में असमर्थ हैं, उनके लिए महाभारत नामक महान् ऐतिहासिक साहित्य का संकलन किया।

जिससे, यह बात उनको धीरे-धीरे समझ में आ जाये कि भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति ही जीवात्मा के परम कल्याण एवं उनकी तुष्टि-पुष्टि के लिए आवश्यक है और उन भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करने की सर्वोत्तम विधि है-उनके पवित्र नामों का कीर्तन, श्रवण व मनन ।

श्रील व्यासदेव ने वेदों में बताया कि किस तरह कर्मकाण्ड में सत्कर्म करके स्वर्ग की प्राप्ति की जा सकती है और वहाँ सुंदरी और सुरा से लम्बे समय तक काम भोग किया जा सकता है।

वेदों में वर्णित ज्ञानकाण्ड में बताया गया है कि किस प्रकार शुष्क और नीरस ज्ञान के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के निराकार स्वरूप ब्रह्मज्योति में विलीन हो सकते हैं, जो कि अत्यंत कष्टदायक है।

उन्होंने उपासनाकाण्ड द्वारा, जो सब कांडों से बहुत ही छोटा है, कठिन परिश्रम करके तथा कड़े-कड़े नियमों का पालन करके उपासना से देवी-देवताओं की प्राप्ति के बारे में बताया।

इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण वेदों को त्रिगुणातीत न कहते हुए “त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन” (श्रीमद्भगवद्गीता 2.45) श्लोक के द्वारा अपने दिव्य प्रेम व अपनी दिव्य प्रेमाभक्ति करने का उपदेश देते हैं

जो उनके नामा कीर्तन द्वारा ही संभव है अर्थात् वेदों से न तो भगवान् श्रीकृष्ण पाए जायेंगे, न उनकी दिव्य प्रेमाभक्ति प्राप्त होगी और न ही उनका दिव्य प्रेम क्योंकि वेद में “नेति नेति” कहकर न तो भगवान की यथारूप पहचान करवाई, न भगवान् कौन हैं।

यह बताया गया और न ही उन्हें प्राप्त करने की विधि, जो नाम संकीर्तन है, उस विषय का वर्णन किया गया।

श्रील व्यासदेव ने पुराणों में देवी-देवताओं का माहात्म्य बताकर उनको भगवान् श्रीकृष्ण के समकक्ष और कहीं-कहीं उनसे भी ऊपर बताया। जैसे कि शिव पुराण, वायु पुराण, अग्नि पुराण इत्यादि पुराणों में भी श्रील व्यासदेव ने वास्तविक भगवान् कौन हैं, इस तथ्य का निरूपण न करते हुए उन देवी-देवताओं को ही भगवान् बताया।

नारद मुनि और व्यास जी

अंततः इतने साहित्यों का संकलन करने के बाद उनको ग्लानि हुई और उन्होंने विचार किया कि मैंने इतने साहित्यों की रचना की, फिर भी मुझे संतोष नहीं हो रहा है। यद्यपि उन्होंने यह सब मानव मात्र के कल्याण के लिए किया फिर भी वे इससे संतुष्ट न थे। उन्हें किसी अपूर्णता का अनुभव हो रहा था।

जब वे सरस्वती नदी के तट पर उदास होकर बैठे हुए थे तब उनके गुरु श्रील नारद मुनि वहाँ प्रकट हुए और उनको डांटते हुए बोले कि आपने वैदिक साहित्य में सकाम कर्म का उपदेश दिया है और जन-सामान्य, जो कामी प्रवृत्ति के हैं, उनकी काम वासनाओं को बढ़ावा दिया है।

भगवान् कौन हैं, उनकी प्रेमाभक्ति क्या है एवं उनके नामों के कीर्तन का क्या महत्त्व है ?

इनके विषय में आपने प्रभावशाली विधि से उचित विवरण नहीं किया है।

इसलिए आप इन कैतव (छल-कपट युक्त) धर्मों का उपदेश न करते हुए भागवत धर्म का ग्रन्थ “ श्रीमद्भागवत” लिखो। अन्य देवी-देवताओं को भगवान् न बताते हुए जो वास्तविक एक मात्र भगवान् हैं, उन श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं एवं नाम की महिमा का वर्णन करो। जिससे संतप्त जीवात्माएं सम्पूर्णतया संतुष्ट हो सकें।

धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणा संतां वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।

श्रीमद्भागवत महामुनिकृते कि या परैरीश्वर: सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुत्रषुभिस्तत्क्षणात् ॥

यह भागवत पुराण, भौतिक कारणों से प्रेरित होने वाले समस्त धार्मिक कृत्यों को पूर्ण रूप से बहिष्कृत करते हुए, सर्वोच्च सत्य का प्रतिपादन करता है, जो पूर्ण रूप से शुद्ध हृदय वाले भक्तों के लिए बोध गम्य है। यह सर्वोच्च सत्य वास्तविकता है जो माया से पृथक होते हुए प्रत्येक के कल्याण के लिए है। ऐसा सत्य तीनों प्रकार के संतापों को

समूल नष्ट करने वाला है। महामुनि व्यासदेव द्वारा (अपनी परिपक्वावस्था में) संकलित यह सौदर्यपूर्ण भागवत ईश्वर-साक्षात्कार के लिए अपने आप में पर्याप्त है। तो फिर अन्य किसी और शास्त्र की क्या आवश्यकता है?

जैसे-जैसे कोई ध्यानपूर्वक तथा विनीत भाव से भागवत के सन्देश को सुनता है, वैसे-वैसे ज्ञान के इस संस्कार (अनुशीलन) से उसके हृदय में परमेश्वर स्थापित हो जाते हैं।

अपने गुरु से इस प्रकार उपदेश प्राप्त करने के पश्चात श्रील व्यासदेव ध्यान लगा कर बैठ गए। वह भौतिकता में किसी लिप्तता के बिना, भक्तिमय सेवा में स्थिर होकर, एकाग्र चित्त हो गए तथा उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन किया और तब श्रीमद्भागवत की रचना की।

निगमकल्पतरोगलितं फल शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् । मुहरहो रसिका भूवि भावुकाः ॥

हे विज्ञ एवं भावुक जनों, वैदिक साहित्य रूपी कल्पवृक्ष के इस पक्व फल श्रीमद्भागवत को जरा चखो तो यह श्री शुकदेव गोस्वामी के मुख से निस्तृत हुआ है, अतएव यह और भी अधिक रुचिकर हो गया है, यद्यपि इसका अमृत रस मुक्त जीवों सहित समस्त जनों के लिए पहले से आस्वाद्य था।

ताविसमा जनताघविप्लवो परिमन प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि । सामान्यनन्तस्य यशोऽङ्कितानि पत् शुबन्ति गावन्नि गुणन्ति साधवः ॥

जो साहित्य असीम परमेश्वर के नाम, यश, रूपों तथा लीलाओं की दिव्य महिमा के वर्णन से पूर्ण है, वह कुछ भिन्न ही रचना है जो इस जगत की पथ भ्रष्ट सभ्यता के अपवित्र जीवन में क्रान्ति लाने वाले दिव्य शब्दों से ओतप्रोत है। ऐसा दिव्य साहित्य, चाहे वह ठीक से न भी रचा हुआ हो, ऐसे पवित्र मनुष्यों द्वारा सुना, गाया तथा स्वीकार किया जाता है, जो नितान्त निष्कपट होते हैं।

इस प्रकार जो साहित्य परम भगवान् श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन न करते हों उनके अध्ययन से कोई लाभ नहीं। श्रील नारद मुनि यहाँ कहते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण का नाम कीर्तन ही कलिकाल के पीड़ित जीवों के लिए सर्वोत्तम औषधि है।

उपरोक्त वर्णन से यह सिद्ध होता है कि जीवात्मा को अपने सर्वांगीण कल्याण के लिए श्रीमद् भागवत रूपी वैदिक साहित्य के परिपक्व फल का श्रील व्यासदेव के प्रामाणिक प्रतिनिधि से श्रवण करना चाहिए।

अपना आध्यात्मिक कल्याण चाहने वाले मनुष्य को अन्य वेद-शास्त्रों के अध्ययन की कोई आवश्यकता नहीं है। श्रीमद् भागवत का संकलन श्रील व्यासदेव द्वारा कलियुग के जीवात्मा की पतितावस्था को ध्यान में रखकर किया गया है। श्रीमद् भागवत में हमें कलियुग के प्रभावों के कारण जीव की अत्यंत दयनीय स्थिति के विषय में विवरण मिलता है।

श्रीमद् भागवत में वर्णित कलियुग के लक्षणों एवं उसके उपायों का उल्लेख हमने अगले अध्यायों में किया है। उद्देश्य यह बताना है कि श्रीमद् भागवत में ही सभी वेद, पुराण और इतिहास आदि समाहित हैं इसलिए यह सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है और यह सकाम भक्ति से परे केवल भगवन्नाम रूपी सर्वोच्च आनंद का आस्वादन करवाता है।

सारांश

कलियुग में मनुष्य अत्यंत पीड़ित रहेगा। उसकी पीड़ा का निवारण में ग्रंथराज श्रीमद् भागवत में विस्तृत एवं बहुत स्पष्ट रूप से बताया गया है जो केवल हरे कृष्ण महामंत्र का जप तथा कीर्तन है। अतः हमें अपने कल्याण के लिए श्रीमद् भागवत को ही सर्वोच्च एवं प्रामाणिक ग्रंथ जानकर, उनके उपदेशों को ग्रहण करना चाहिए।

प्रश्नोत्तर

प्रश्नः वैदिक साहित्य में ग्रंथराज श्रीमद् भागवत सर्वोच्च शास्त्र क्यों है?

उत्तरः क्योंकि श्रीमद् भागवत समस्त वेदों का स्वाभाविक, सरल एवं सर्वोत्तम भाष्य (विवरण) है। भाष्यानाम् ब्रह्म-सूत्राणाम् अर्थात् श्रीमद् भागवत ही वेदान्त सूत्रों की स्वाभाविक टीका है।

प्रश्न: जब श्रील व्यासदेव को ज्ञात था कि मनुष्य का कल्याण भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति में है तो फिर उन्होंने सकाम कर्मकांडों को बढ़ावा देने वाले वेदों की रचना क्यों की?

उत्तर: संसार में भिन्न-भिन्न गुणों वाले लोग हैं जैसे सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी। उनमें से अधिकांश शुद्ध सतोगुणी नहीं है। जबकि श्रीमद् भागवत पुराण शुद्ध सतोगुणी पुराण है और अन्य वेद आदि त्रिगुणों से युक्त है (“त्रैगुण्यविषया वेदा निस्वैगुण्यों भवार्जुन” ( श्रीमद्भगवद्गीता 245) )।

ऐसे में जो लोग शुद्ध सतोगुणी नहीं हैं वे श्रीमद् भागवत पुराण के प्रति स्वाभाविक रूप से आकर्षित न होकर कर्मकांड, ज्ञानकांड आदि के प्रति आकर्षित होते हैं।

ऐसे लोग वैदिक साहित्यों के नियमानुसार अपना जीवन व्यतीत करें, इसलिए वेद एवं अन्य पुराणों का श्रील व्यासदेव ने संकलन किया।

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