चौबीसवाँ अध्याय माघ महात्म्य

चौबीसवाँ अध्याय माघ महात्म्य

लोमशजी बोले- जिस वन में पिशाच को मोक्ष हुआ था, उसका द्रविण राजा चित्र था । वह परम वीर, पराक्रमी, शास्त्रों का ज्ञाता और एश्वर्यवान था।

स्वर्ण, रत्न से उसका कोष भरा रहता था। उसके सहस्त्रों पटरानियां थीं। वह स्त्रियों के वशीभूत रहता, कामुक, लोभी एवं महा क्रोधी था ।

वह कभी धर्म का पालन नहीं करता था और झूठ बोलता था। मन्त्रियों की सलाह मानता था । वह सदैव भगवान विष्णु की निन्दा में तत्पर रहता,

वैष्णवों से द्वेष करता और विष्णु से द्रोह करता था और भगवान के भक्तों को यातनायें देता, खुशामदियों का सम्मान करता, वेद, कर्मव्रत, दान, धर्म सबका तिरस्कार करता था।

उस आचरण भ्रष्ट राजा के कारण समस्त प्रजा त्राहि-त्राहि करती और उसके दण्ड को सहती। जब उस राजा की मृत्यु हुई तो उसका दाह संस्कार आदि क्रियायें वेदोक्तधि से सम्पन्न न हो सकी।

उसके पापाचार के कारण उसे यमदूतों ने आकर घेर लिया। वे उसे पीड़ा पहुँचाने के लिए अग्नि से दहकती लोहे की कीलों से व्याप्त मार्ग द्वारा घसीटने लगे।

उस मार्ग में भयानक अंगारों की भांति दहकते हुए शूल से असह्य पीड़ा होती थी, विशाल जबड़ों वाले श्रृंगाल एवं कुत्ते जहां मुँह पड़ता, झपटा मारते और उसके द्वारा जो पीड़ा होती थी,

वह चीत्कारों से भी कई गुनी थी। जैसे तैसे वह इस महान पीड़ा को सहन करता हुआ यमलोक पहुँचा, वहाँ से उसे नरक में डाला गया।

सर्वप्रथम वह तामिस्त नरक में डाला गया, उसके बाद उसे अन्ध तामिस्त में डाला गया। उसके दुःख सहन करने के बाद रौख नरक में डाला गया।

फिर उसे महारौख नरक में डाला गया। महारौख के बाद उस राजा को कालसूत्र आदि नरकों में यातना दी गयी।

इस तरह पीड़ा के कारण वह राजा मूर्छित हो गया। जब वह पुनः चैतन्य हुआ तो उसे महावीरी में डाला गया । उसके बाद उसे तापन में डाला गया।

तत्पश्चात् सन्प्रतापन में डाला गया। सन्प्रतापन में वह दुःखाग्नि में जलता हुआ अत्यन्त व्याकुल हो गया। क्रम से उसे सन्ताप में डाला गया, फिर कामोल में यातनायें दी गई।

बाद में कुडमल में डाला गया, फिर उसे पूर्ति भूतिक नरक में डाला गया। लौहशकु मृगोयंत्र के दुर्गम मार्ग से घसीटकर उसे शाल्मलि मार्ग से भयानक नदी में फेंका गया,

उसके बाद महा भयानक दुर्दश मार्ग में फिर छोड़ा गया। वहां से पापात्मा को अति पत्रवन लौह तारकादि नरकों में डाला गया।

इस तरह वह पापी राजा भगवान विष्णु से द्वेष करने के कारण इक्कीस युगों तक इसी प्रकार नरकों में पड़ा यातनाएं भोगता रहा।

यम की यातनायें भोगकर जब वह बाहर निकला तो उसे गिरिराज पर पिशाच की योनि प्राप्त हुई । वह महाभयानक पिशाच उस मेरुपर्वत पर वनों में चारों ओर घूमता रहता था

और उसे भोजन और जल भी प्राप्त न होता । महान दुःखों को भोगता हुआ वह पिशाच एक दिन दैवात् भोजन और जल की तलाश करता,

उस वन में आ निकला, जहाँ परम वैष्णव महात्मा देवद्युति का आश्रम था। थकान और भूख प्यास से व्याकुल होकर एक वृक्ष के नीचे गिर पड़ा और हाय मरा कहकर चिल्लाने लगा ।

वह विलाप करते हुए कहता कि मैं इस प्रकार समस्त जीवों का कोप भोज कब तक बना रहूँगा । इस नरक सागर से कौन मेरा बेड़ा पार करेगा। यह कहता हुआ विलाप करने लगा।

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