तेईसवाँ अध्याय कार्तिक माहात्म्य

तेईसवाँ अध्याय कार्तिक माहात्म्य

यह कथा सुनकर ऋषि कहने लगे-हे सूतजी! भगवान् के चरणों से उत्पन्न हुई गंगाजी की महिमा कहिये।

तब सूतजी ने कहा, हे ऋषियों जो कुछ नारदजी ने राजा पृथु से कहा, वही मैं तुमको सुनाता हूं।

इन्द्रादिक सब देवताओं को उत्पन्न करने वाले कश्यपजी की दो पत्नियां थीं।

एक अदिति, जिसके पुत्र ‘देवता कहलाये तथा दूसरी दिति जिसके पुत्र दैत्य हए।

देवता तथा दैत्यों का नित्य ही कलह रहा करता था। उस समय विरोचन का पुत्र अर्थात् प्रहलाद का पौत्र राजा बलि दैत्यों का राजा था।

उसकी सेना अत्यन्त विशाल थी। उसने समस्त पृथ्वी को जीतकर स्वर्ग का राज्य प्राप्त करने के लिए देवताओं पर चढ़ाई कर दी।

इन्द्र की पुरी को चारों ओर से घेर लिया। देवता भी युद्ध करने के लिए बाहर आए।

तब अत्यन्त घोर संग्राम हुआ। एक दूसरे पर प्रहार करते हुए कई वर्ष बीत गए।

इसके पश्चात् दैत्यों का बल बढ़ते हुए देखकर देवता मैदान छोड़कर भागने लगे, तत्पश्चात् दैत्यों ने सारे स्वर्ग पर अपना अधिकार जमा लिया।

बलि स्वयं इन्द्र के आसन पर बैठने लगा, साथ ही देवताओं के समस्त कार्य अपने राक्षसों के ‘अधीन कर दिये। यज्ञ की बलि भी आप ही लेने लगा।

तब अदिति अपने पुत्रों को दुःखी देखकर बहुत चिन्तित हुई।

फिर वह अपना स्थान छोड़कर देवताओं की जय तथा दैत्यों की पराजय के निमित्त भगवान् की तपस्या करने के लिए हिमवान पर्वत पर चली गई।

वहां कुछ समय फलाहार खाकर, कुछ काल सूखे पत्ते और कुछ काल तक पवन का ही आहार करती रही।

फिर पैर के अग्रभाग से खड़ी होकर भगवान् की तपस्या करने लगी।

इस प्रकार एक हजार वर्ष तक उग्र तपस्या की। मायावी राक्षस अदिति की घोर तपस्या से चिन्तित होकर राक्षसी माया से देवताओं का रूप धारण कर अदिति के पास जाकर कहने लगे कि हे माता!

तुम हमारे लिए इतना घोर तप क्यों कर रही हो? आत्मघात करना सब शास्त्रों ने पाप बताया है।

हम तुम्हारा यह दुःख सहन नहीं कर सकते। माता का दुःख देखकर कोई सुखी नहीं रह सकता तथा माता से कोई विमुख नहीं हो सकता।

शास्त्रों का वचन है कि जिसके घर में कल्याणकारिणी माता नहीं तथा प्रिय बोलने वाली पतिव्रता स्त्री नहीं, उसका जीवन निरर्थक है।

अतएव आप तप छोड़ कर अपने पुत्रों को सुखी कीजिये ।

परन्तु यह सुनकर भी अदिति समाधि से चलायमान न हुई ।

तब उन्होंने अदिति को मार डालने का निश्चय किया। अतएव उन्होंने अदिति को जीवित जला देने के लिए उस वन में आग लगा दी,

परन्तु इस अग्नि में दैत्य स्वयं जल गए, अदिति को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंची और न उन्हें इसका कुछ पता चला; क्योंकि भगवान् ने अपने चक्र सुदर्शन से अदिति की रक्षा की।

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