पन्द्रहवाँ अध्याय कार्तिक महात्म्य

पन्द्रहवाँ अध्याय कार्तिक महात्म्य

राजा पृथु कहने लगे कि हे नारदजी ! भक्तवत्सल भगवान् की पूजा का इतिहास सुनाइये। तब नारदजी बोले कि हे राजन्!

एक पुरातन इतिहास कहता हूं, सो सुनो। पहले चौल नाम का एक राजा कांतिपुर में राज्य करता था। उसके राज्य में कोई भी दुःखी, पीड़ित तथा दरिद्री नहीं था। सारी प्रजा अत्यन्त सुखी थी।

उस राजा के नाम पर उस देश का नाम भी चौल देश पड़ा। एक समय वह राजा बड़े-बड़े मणि मुक्ताओं से भगवान् की पूजा करके वहीं मन्दिर पर बैठ गया।

उसी समय उसी नगर के विष्णु शर्मा नाम वाले ब्राह्मण ने बहुत से तुलसी दल और जल से भगवान् की पूजा की।

उसके तुलसी दलों से राजा द्वारा भगवान् पर चढ़ाये गए मणि मुक्ता आदि ढक गए। यह देख राजा ने कुछ क्रोधित होकर ब्राह्मण से कहा कि हे विष्णु शर्मा ! तुमको पूजा का कुछ भी ज्ञान नहीं है।

तुमने मणि मुक्ताओं से की गई मेरी पूजा की शोभा को तुलसी दला से ढक कर समाप्त कर दिया। तब विष्णु शर्मा कहने लगा कि हे राजन्!

तुम अभिमान से युक्त हो, इसी कारण भगवान् की पूजा को नहीं जानते। ब्राह्मण के यह वचन सुनकर राजा बड़े गर्व से कहने लगा,

हे ब्राह्मण! तुम स्वयं दरिद्री हो, इसलिये भगवान् की क्या पूजा करोगे? क्या तुमने भगवान् का कोई स्थान बनवाया, या कोई यज्ञ आदि किया?

मैं सबके सामने कहता है कि देखें भगवान् की भक्ति करके तुम पहले स्व में जाते हो या मैं जाता है। इतना कहकर राजा ने गुंगल ऋषि को आचार्य बनाकर बड़े-बड़े यज्ञ आरम्भ कर दिये, साथ ही ब्राह्मणों को बहुत-सा द्रव्य दान देने लगा ।
विष्णु शर्मा भी सदा की भांति भगवान् का पूजन करता रहा। उसने पांच नियम लिए माघ तथा कार्तिक के व्रत, तुलसी वन रोपन, एकादशी का व्रत तथा “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इस मन्त्र का जाप ।
साथ ही दिन-रात भगवान् का कीर्तन करने लगा। चलते-फिरते, उठते-बैठते सदैव भगवान् का स्मरण करता रहता। एक समय भोजन करता। एक दिन विष्णु शर्मा ने रसोई बनाई तो कोई पाक उठाकर ले गया।
उसने फिर रसोई नहीं बनाई कि सायंकाल का व्रत भंग न हो जाय और भूखा ही सो रहा। दूसरे दिन फिर रसोई बनाई तो जब भगवान् का भोग लगाने लगा तो फिर कोई पाक उठाकर ले गया।
इसी प्रकार सात दिन तक होता रहा। यद्यपि विष्णु शर्मा भूख के मारे व्याकुल हो गया, परन्तु सत्संग के समय के भंग हो जाने के भय से दूसरी बार रसोई नहीं बनाई। वह यही सोचता रहता कि न जाने कौन हमारा पाक उठा ले जाता है।
भक्तों के इस आश्रय को छोड़कर जाना भी उसने ठीक नहीं समझा। फिर सोचा अच्छा आज मैं पूरी तरह ध्यान रखूंगा और देखूंगा कि राजन्! एक पुरातन इतिहास कहता हूं, सो सुनो।
पहले चौल में नाम का एक राजा कांतिपुर में राज्य करता था। उसके राज्य क में कोई भी दुःखी, पीड़ित तथा दरिद्री नहीं था। सारी प्रजा अत्यन्त सुखी थी। उस राजा के नाम पर उस देश का नाम भी चौल देश पड़ा।
एक समय वह राजा बड़े-बड़े मणि मुक्ताओं f से भगवान् की पूजा करके वहीं मन्दिर पर बैठ गया। उसी समय उसी नगर के विष्णु शर्मा नाम वाले ब्राह्मण ने बहुत से तुलसी दल और जल से भगवान् की पूजा की।

उसके तुलसी दलों से राजा द्वारा भगवान् पर चढ़ाये गए मणि मुक्ता आदि ढक गए। यह देख राजा ने कुछ क्रोधित होकर ब्राह्मण से कहा कि हे विष्णु शर्मा !

तुमको पूजा का कुछ भी ज्ञान नहीं है। तुमने मणिमुक्ताओं से की गई मेरी पूजा की शोभा को तुलसी दलों से ढक कर समाप्त कर दिया। तब विष्णु शर्मा कहने लगा कि हे राजन्

! तुम अभिमान से युक्त हो, इसी कारण भगवान् की पूजा को नहीं जानते। ब्राह्मण के यह वचन सुनकर राजा बड़े गर्व से कहने लगा, हे ब्राह्मण! तुम स्वयं दरिद्री हो,
इसलिये भगवान् की क्या पूजा करोगे? क्या तुमने भगवान् का को स्थान बनवाया, या कोई यज्ञ आदि किया? मैं सबके सामने कहता हूं कि देखें भगवान की भक्ति करके तुम पहले स्व में जाते हो या मैं जाता हूं।
इतना कहकर राजा ने गुंगल ऋषि को आचार्य बनाकर बड़े-बड़े यज्ञ आरम्भ कर दिये, साथ ही ब्राह्मणों को बहुत-सा द्रव्य दान देने लगा। विष्णु शर्मा भी सदा की भांति भगवान् का पूजन करता रहा।
उसने पांच नियम लिए माघ तथा कार्तिक के व्रत, तुलसी वन रोपन, एकादशी‌ का व्रत तथा “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इस मन्त्र का जाप। साथ ही दिन-रात भगवान् का कीर्तन करने लगा।
चलते-फिरते, उठते-बैठते सदैव भगवान् का स्मरण करता रहता। एक समय भोजन करता। एक दिन विष्णु शर्मा ने रसोई बनाई तो कोई पाक उठाकर ले गया।
उसने फिर रसोई नहीं बनाई कि सायंकाल का व्रत भंग न हो जाय और भूखा ही सो रहा। दूसरे दिन फिर रसोई बनाई तो जब भगवान् का भोग लगाने लगा तो फिर कोई पाक उठाकर ले गया।
इसी प्रकार सात दिन तक होता रहा। यद्यपि विष्णु शर्मा भूख के मारे व्याकुल हो गया, परन्तु सत्संग के समय के भंग हो जाने के भय से दूसरी बार रसोई नहीं बनाई।
वह यही सोचता रहता कि न जाने कौन हमारा पाक उठा ले जाता है। भक्तों के इस आश्रय को छोड़कर जाना भी उसने ठीक नहीं समझा।
फिर सोचा अच्छा आज मैं पूरी तरह ध्यान रखूंगा और देखूंगा कि कौन पाक उठाकर ले जाता है। ऐसा विचार कर वह एक स्थान में छुप कर बैठ गया।
थोड़ी देर में वह क्या देखता है कि एक अति दुर्बल चांडाल, जिसका शरीर केवल अस्थियों का पिंजर बना हुआ था, छिपकर आया और वहां से पाक उठा कर चलने लगा।
उसको देखकर विष्णु शर्मा के मन में अति दया उत्पन्न हुई और वह कहने लगा कि भैया रूखा भोजन मत ले जाओ। मेरे पास थोड़ा-सा घी है वह भी लेते जाओ।
उसी समय ब्राह्मण ने भगवान् के चरणों में गिर कर नमस्कार किया। तभी इन्द्रादि देवता भी वहां पर आ गए। ऋषि लोग वेद मन्त्रों से उनका पूजन करने लगे।
तब भगवान् ने स्नेह पूर्वक उस ब्राह्मण का आलिंगन किया और उसको सारूप्य मुक्ति प्रदान की। तत्पश्चात् अपने साथ विमान में बैठाकर वैकुण्ठ को ले गये।
यह चरित्र देखकर चौल राजा अत्यन्त दुःखी हुआ और उसने आचार्य गुंगल ऋषि को बुलाकर कहा कि यह सब क्या हो रहा है?
जिसके द्वेष के कारण हमने यह सब यज्ञ किये वह तो वैकुण्ठ को जा रहा है क्या हमारे सब यज्ञादि निष्फल गए? इस से यही सिद्ध होता है कि भगवान् यज्ञादि से नहीं केवल भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं।
राजा आजीवन ब्रह्मचारी रहा था, इस कारण उसके कोई सन्तान नहीं थी । अतएव अपना सब राजपाट, धन आदि अपने भानजे को सौंप कर ” भगवान् मुझको स्थिर भक्ति दें” ऐसा कहकर अग्नि कुण्ड में कूद गया।
यह देख गुंगल ऋषि ने क्रोध में आकर अपनी शिखा (चोटी) उखाड़ ली। तब से अभी तक चौल देश में भानजा मामा का अधिकारी होता है और आज भी गुंगल गोत्र के ब्राह्मण सिर पर शिखा नहीं रखते।
राजा के अग्निकुण्ड में गिरते ही भगवान् अग्निकुण्ड में प्रगट हो गये और उसका आलिंगन कर उसे सारूप्य मुक्ति प्रदान की।
इसके पश्चात् विष्णु भगवान् ने विष्णु शर्मा को पुण्यशील तथा चौल राजा को सुशील नामक अपना द्वारपाल बना दिया।

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