श्री राणी सती चालीसा और आइये जाने राणी सती कौन थी?
श्री राणी सती कौन थी?
राणीसतीजी की पूजा आराधना आज भारतवर्ष के अधिकांश हिंदू-धर्मावलंबी नर-नारियों द्वारा की जाती है।
उनकी अपार महिमा एवं गुणगाथा का वर्णन साधारण मानव के बस की बात नहीं है। बड़े-बड़े ऋषि, मुनि तथा ज्ञानी ध्यानी भी सतियों की महिमा का वर्णन करने में असमर्थ रहे हैं।
भारतीय संस्कृति, इतिहास, वेद, पुराण, कथा शास्त्र युग- युग में अवतरित सतियों के संत एवं अलौकिक तेज के सजीव साक्षी हैं। मां श्री नारायणी सतीजी देवसर गाँव के निकट 1352 ईस्वी में सती हुई थी।
मां श्री राणीसती जी का आदि नाम “नारायणी” देवी था तथा वे डोकवा निवासी श्री गुरुसामल जी की सर्वगुण संपन्ना एकमात्र लाडली सुपुत्री थी उनका विवाह हिसार निवासी बांसल गोत्री सेठ श्री जालीराम जी के श्री तनधन ज्येष्ठ पुत्र श्री दासजी के साथ हुआ था।
सेठ श्री जालीरामजी हिसार राज्य के दीवान थे तथा उस राज्य के नवाब झडचन से उनकी घनिष्ठ मित्रता थी। श्री तनधनदास जी के पास एक बहुत ही सुंदर, सुडौल और सुलक्ष्मी घोड़ी थी। जिसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी।
नवाब के शहजादे का मन उस घोड़ी लिए लालायित था। परंतु तनधनदास जी घोड़ी को देने बिल्कुल तैयार ना थे।
तो शहजादे ने कोई उपाय न देख कर उस घोड़ी को चुराने की योजना बनाई और इस कुकृत्य में तनधनदास जी के हाथों अपनी जान गँवा बैठे। सेठ श्री जालीरामजी इस आकस्मिक दुर्घटना के कारण रातों-रात हिसार छोड़कर झुंझुनू आ गए।
अपने बेटे की अकाल मृत्यु से शोकाकुल होकर नवाब झाड़चंद तनधनदास जी से बदला लेने की ताक में रहने लगा और अब उसे श्री तनधनदास जी के मुकलावे की खबर मिली।
उसने मुकलावा कर पत्नी सहित ‘लौटते हए श्री तनधनदास जी पर घनघोर जंगल में अपनी सेना सहित आक्रमण कर दिया। तनधन दास जी ने वीरता एवं शौर्य से दुश्मनों का मुकाबला किया,
पर धोखे से किए गए वार का शिकार होकर वीर गति को प्राप्त हुए। अपने पति की वीरगति देखकर नारायणी देवी ने रणचंडी का प्रचंड रूप धारण किया और दुश्मनों का संहार करना शुरू कर दिया।
उनकी आलौकिक शक्ति और तेज को देखकर बचे हुए सैनिक भाग खड़े हुए। नारायणी देवी के पति शिव के साथ ने पति के शव के साथ सती होने का निश्चय किया इस कार्य में उनकी मदद राणा जाति के एक सेवक ने की।
स्वयं माता ने अपने हाथों चिता तैयार की और नारायणी देवी पति के शरीर को गोद में लेकर चिता पर बैठ गई।सती के तेज से चिता अपने आप प्रज्जवलित हो गई।
तथा देखते-देखते नारायणी देवी का इहलौकिक शरीर भस्मीभूत हो गया। चिता की आग ठंडी भी नहीं हो पाई थी, कि सती ने त्रिशूलधारी शक्ति के रूप में प्रकट सेवक राणा को आशीर्वाद दिया।
तथा चिता की भस्मी झुंझनु ले जाने का आदेश दिया।
राणा की सेवा से प्रसन्न सती ने कहा कि जग में मेरा नाम राणी सती से प्रसिद्ध होगा।
प्रसन्न मन राणा, सती की भस्मी को घोड़े पर रख झुंझुनू रवाना हुए तथा घोड़ी जिस स्थान पर जाकर रुकी वहीं सती के आदेशानुसार झुंझुनू में विशाल एवं भव्य मंदिर का निर्माण हुआ।
श्री राणसतीजी की संवत की 1352 मिति मंगसिर बदी नवमी मंगलवार को सती हुई थी। तभी से श्री राणीसती जी वंदना सेवा, पूजा महामाया जगदंबा के स्वरूप में होती आ रही है।
श्री राणी सती चालीसा
॥ दोहा ॥
श्री गुरु पद पंकज नमन, दूषित भाव सुधार। राणी सती सुविमल यश,बरणौं मति अनुसार॥
कामक्रोध मद लोभ में, भरम रह्यो संसार । शरण गहि करूणामयी, सुख सम्पत्ति संचार ॥
॥ चौपाई ॥
नमो नमो श्री सती भवान। जग विख्यात सभी मन मानी ॥
नमो नमो संकटकूँ हरनी। मन वांछित पूरण सब करनी॥
नमो नमो जय जय जगदम्बा । भक्तन काज न होय विलम्बा ॥
नमो नमो जय-जय जग तारिणी । सेवक जन के काज सुधारिणी ॥
दिव्य रूप सिर चूँदर सोहे । जगमगात कुण्डल मन मोहे॥
माँग सिन्दूर सुकाजर टीकी। गज मुक्ता नथ सुन्दरर नीकी॥
गल बैजन्ती माल बिराजे। सोलहुँ साज बदन पे साजे॥
धन्य भाग्य गुरसामलजी को।महम डोकवा जन्म सती को॥
तनधन दास पतिवर पाये। आनन्द मंगल होत सवाये॥
जालीराम पुत्र वधू होके । वंश पवित्र किया कुलदोके ॥
पति देव रण माँय झुझारे।सती रूप हो शत्रुसंहारे॥
पति संग ले सद् गति पाई।सुर मन हर्ष सुमन बरसाई॥
धन्य धन्य उस राणा जी को । सुफल हुवा कर दरससती का॥
विक्रम तेरा सौ बावनकूँ। मंगसिर बदी नौमी मंगलकूँ॥
नगर झुंझुनू प्रगटी माता।जग विख्यात सुमंग लदाता ॥
दूर देश के यात्री आवे । धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे ॥
उछाङ-उछाङते हैं आनन्द से। पूजा तन मन धन श्री फल से ॥
जात जडूला रात जगावे । बाँसल गोती सभी मनावे॥
पूजन पाठ पठन द्विज करते। वेद ध्वनि मुख से उच्चरते॥
नाना भाँति-भाँति पकवाना । विप्रजनों को न्यूत जिमाना ॥
श्रद्धा भक्ति सहित हरषाते । सेवक मन वाँछित फल पाते॥
जय जय कार करे नर नारी । श्री राणी सती की बलिहारी ॥
द्वार कोट नित नौबत बाजे । होत श्रृंगार साज अति साजे॥
रत्न सिंहासन झलके नीको। पल-पल छिन-छिन ध्यान सती को॥
भाद्र कृष्ण मावस दिन लीला | भरता मेला रंग रंगीला ॥
भक्त सुजन की सकड़ भीड़ है। दर्शन के हित नहीं छीड़ है॥
अटल भुवन में ज्योति तिहारी। तेज पुंज जग माँय उजियारी ॥
आदि शक्ति में मिली ज्योति है। देश देश में भव भौति है।
नाना विधि सो पूजा करते । निश दिन ध्यान तिहारा धरते॥
कष्ट निवारिणी, दु:ख नाशिनी । करूणामयी झुंझुनू वासिनी ॥
प्रथम सती नारायणी नामां । द्वादश और हुई इसि धामा॥
तिहूँ लोक में कीर्ति छाई । श्री राणी सती की फिरी दुहाई॥
सुबह शाम आरती उतारे । नौबत घण्टा ध्वनि टँकारे ॥
राग छत्तिसों बाजा बाजे । तेरहुँ मण्ड सुन्दर अति साजे॥
त्राहि त्राहि मैं शरण आपकी । पूरो मन की आश दास की॥
मुझको एक भरोसो तेरो।आन सुधारो कारज मेरो ॥
पूजा जप तप नेम न जानूँ । निर्मल महिमा नित्य बखानूँ॥
भक्तन की आपत्ति हर लेनी । पुत्र पौत्र वर सम्पत्ति देनी ॥
पढ़े यह चालीसा जो शतबारा । होय सिद्ध मन माँहि बिचारा ॥
गोपीराम’ (मैं) शरण ली थारी । क्षमा करो सब चूक हमारी ॥
॥ दोहा ॥
दुख आपद विपदा हरण, जग जीवन आधार । बिगङी बात सुधारिये,सब अपराध बिसार॥
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