श्री अन्नपूर्णा चालीसा -नित्य आनन्द करिणी माता

श्री अन्नपूर्णा चालीसा

पुराने समय की बात है भगवान भोलेनाथ कैलाश पर्वत पर विराजमान थे । उसी समय माँ पार्वती उनके पास आकर विनम्र स्वर में भगवान शिव से अनुरोध करने लगी थी स्वामी हमें कैलाश पर एक रसोई की आवश्यकता है।

यह सुनकर भगवान शिव ने माँ पार्वती को मना कर दिया ।

यह शब्द मां पार्वती को अपमानजनक लगे और मां क्रोधित हो गई

तब मां पार्वती ने शिवजी जी से कहा यदि मेरी यहां आवश्यकता नहीं तो मैं यहां क्यों रुकूं। ऐसा कहकर मां पार्वती वहां से अंतर्ध्यान हो गई।

मां पार्वती के जाते ही भगवान को उनकी कमी का एहसास होने लगा और समाधि में लीन हो गए । सारे संसार में अन्य की कमी हो गई तीनों लोगों में हाहाकार मच गया।

सभी देवता मिलकर शिवजी जी के पास आए । देवताओं की पुकार सुनकर शिवजी जी अन्न की खोज के लिए निकल पड़े ।

अन्न खोज करते करते भगवान को एक अघोरी मिला और उसने बताया कि यदि आप उनकी खोज कह कर रहे हैं तो काशी जाइए वहां एक दिव्य स्त्री ने बहुत सुंदर रसोई बनाई है।

भगवान शिवजी जी काशी पहुंचकर देखते हैं कि यह स्वर्ण रसोई तो माँ पार्वती जी की है जो स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान है।

भगवान भोलेनाथ को आया देख देवी मंदिर मुस्कुराने लगी और कहने लगी प्रभु आप विष्णु जी और ब्रह्मा जी वह के बंधन में नहीं बंधे हैं

परंतु जो आपके भक्तजन हैं वह भूख के बंधन में बंधे हुए हैं यह कहते हुए भगवान भगवती अन्नपूर्णा ने तीन मुट्ठी चावल भगवान शिव शंकर को तीनों लोकों के लिए प्रधान किए । फिर भगवान शंकर ने वह तीन मुट्ठी चावल भगवान विष्णु को तीनों लोकों में तीन हिस्से करने के लिए दे दिए और विष्णु जी ने तीनों लोकों में तीन मुट्ठी चावल तीन हिस्से कर के बांट दिए।

चालीसा

अन्नपूर्णा चालीसा एक भक्ति गीत है जो अन्नपूर्णा माता पर आधारित है।

॥ दोहा ॥

विश्वेश्वर-पदपदम की, रज निज शीश लगाय । अन्नपूर्णे! तव सुयश,बरनौं कवि-मतिलाय॥

॥ चौपाई ॥

नित्य आनन्द करिणी माता । वर-अरु अभय भाव प्रख्याता ॥

जय ! सौंदर्य सिन्धु जग-जननी। अखिल पाप हरभव-भय हरनी॥

श्वेत बदन पर श्वेत बसन पुनि। सन्तन तुव पद सेवत ऋषिमुनि॥

काशी पुराधीश्वरी माता। माहेश्वरी सकल जग त्राता ॥

बृष भारुढ़ नाम रुद्राणी । विश्व विहारिणि जय ! कल्याणी ॥

पदिदेवता सुतीत शिरोमनि। पदवी प्राप्त कीह्न गिरि- नंदिनि ॥

पति विछोह दुख सहि नहि पावा।योग अग्नि तबबदन जरावा ॥

देह तजत शिव-चरण सनेहू राखेहु जाते हिमगिरि-गेहू ॥

प्रकटी गिरिजा नाम धरायो। अति आनन्द भवन मँह छायो ॥

नारद ने तब तोहिं भरमायहु । ब्याह करन हित पाठ पढ़ायहु॥

ब्रह्मा-वरुण-कुबेर गनाये । देवराज आदिक कहिगाय ॥

सब देवन को सुजस बखानी । मतिपलटन की मन मँह ठानी॥

अचल रहीं तुम प्रण पर धन्या।कीह्नी सिद्धहिमाचल कन्या॥

निज कौ तव नारद घबराये। तब प्रण- पूरण मंत्र पढ़ाये॥

करन हेतु तप तोहिं उपदेशेउ । सन्त-बचन तुम सत्य परेखेहु॥

गगनगिरा सुनि टरी न टारे । ब्रह्मा, तब तुव पास पधारे ॥

कहेउ पुत्रि वर माँगु अनूपा। देहुँ आज तुव मति अनुरूपा ॥

तुम तप कीह्न अलौकिक भारी । कष्ट उठायेहु अति सुकुमारी ॥

अब संदेह छाँड़ि कछु मोसों । है सौगंध नहीं छल तोसों ॥

करत वेद विद ब्रह्मा जानहु । वचन मोर यह सांचो मानहु॥

तजि संकोच कहहु निज इच्छा। देहौं मैं मन मानी भिक्षा॥

सुनि ब्रह्मा की मधुरी बानी । मुखसों कछु मुसुकायि भवानी ॥

बोली तुम का कहहु विधाता । तुम तो जगके स्रष्टाधाता॥

मम कामना गुप्त नहिं तोंसों। कहवावा चाहहु का मोसों॥

इज्ञ यज्ञ महँ मरती बारा। शंभुनाथ पुनि होहिं हमारा ॥

सो अब मिलहिं मोहिं मनभाय । कहि तथास्तु विधि धाम सिधाये॥

तब गिरिजा शंकर तव भयऊ। फल कामना संशय गयऊ॥

चन्द्रकोटि रवि कोटि प्रकाशा। तब आनन महँकरत निवासा॥

माला पुस्तक अंकुश सोहै । करमँह अपर पाश मनमोहे ॥

अन्नपूर्णे ! सदपूर्णे। अज-अनवद्य अनन्त अपूर्णे॥

कृपा सगरी क्षेमंकरी माँ । भव-विभूति आनन्द भरी माँ॥

कमल बिलोचन विलसित बाले । देवि कालिके ! चण्डि कराले ॥

तुम कैलास मांहि ह्वै गिरिजा । विलसी आनन्दसाथ सिन्धुजा ॥

स्वर्ग-महालछमी कहलायी। मर्त्य-लोक लछमी पदपायी ॥

विलसी सब मँह सर्व सरुपा। सेवत तोहिं अमरपुर- भूपा ॥

जो पढ़िहहिं यह तुव चालीसा । फल पइहहिं शुभ साखी ईसा ॥

प्रात समय जो जन मन लायो । पढ़िहहिं भक्ति सुरुचि अघिकायो॥

स्त्री – कलत्र पनि मित्र-पुत्र युत । परमैश्वर्य लाभ लहि अद्भुत ॥

राज विमुखको राज दिवावै । जस तेरो जन-सुजस बढ़ावै॥

पाठ महा मुद मंगल दाता। भक्त मनो वांछित निधिपाता॥

॥ दोहा ॥

जो यह चालीसा सुभग, पढ़ि नावहिंगे माथ। तिनके कारज सिद्ध सब, साखी काशी नाथ॥

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