विष्णु चालीसा – नमो विष्णु भगवान खरारी

विष्णु चालीसा

भगवान विष्णु जी का जन्म कैसे हुआ ?

एक समय आनन्दवन में रमण करते हुए शिवा और शिव के मनमें यह इच्छा हुई कि किसी दूसरे पुरुषकी भी सृष्टि करनी चाहिये, जिसपर यह सृष्टि-संचालनका महान् भार रखकर हम दोनों केवल काशीमें रहकर इच्छानुसार विचरें और निर्वाण धारण करें।

वही पुरुष हमारे अनुग्रहसे सदा सबकी सृष्टि करे, पालन करे और वही अन्तमें सबका संहार भी करे। यह चित्त एक समुद्रके समान है।

इसमें चिन्ताकी उत्ताल तरंगें उठ उठकर इसे चंचल बनाये रहती हैं। इसमें सत्त्वगुणरूपी रत्न, तमो- गुणरूपी ग्राह और रजोगुणरूपी मूँगे भरे हुए हैं। इस विशाल चित्त-समुद्रको संकुचित करके हम दोनों उस पुरुषके प्रसादसे आनन्दकानन (काशी) में सुख- पूर्वक निवास करें।

यह आनन्दवन वह स्थान है, जहाँ हमारी मनोवृत्ति सब ओरसे सिमिटकर इसीमें लगी हुई है तथा जिसके बाहरका जगत् चिन्तासे आतुर प्रतीत होता है। ऐसा निश्चय करके शक्तिसहित सर्वव्यापी परमेश्वर शिवने अपने वामभागके दसवें अंगपर अमृत मल दिया। फिर तो वहाँसे एक पुरुष प्रकट हुआ, जो तीनों लोकोंमें सबसे अधिक सुन्दर था।

वह शान्त था । उसमें सत्त्वगुणकी अधिकता थी तथा वह गम्भीरताका अथाह सागर था। मुने! क्षमा नामक गुणसे युक्त उस पुरुषके लिये ढूँढनेपर भी कहीं कोई उपमा नहीं मिलती थी। उसकी कान्ति इन्द्रनील मणिके समान श्याम थी।

उसके अंग-अंगसे दिव्य शोभा छिटक रही थी और नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान शोभा पा रहे थे। श्रीअंगोंपर सुवर्णकी- सी कान्तिवाले दो सुन्दर रेशमी पीताम्बर शोभा दे रहे थे। किसीसे भी पराजित न होनेवाला वह वीर पुरुष अपने प्रचण्ड भुजदण्डोंसे सुशोभित हो रहा था।

तदनन्तर उस पुरुषने परमेश्वर शिवको प्रणाम करके कहा – ‘स्वामिन्! मेरे नाम निश्चित कीजिये और काम बताइये । उस पुरुषकी यह बात सुनकर महेश्वर भगवान् शंकर हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें उससे बोले-

शिवने कहा- वत्स! व्यापक होनेके कारण तुम्हारा विष्णु नाम विख्यात हुआ । इसके सिवा और भी बहुत-से नाम होंगे, जो भक्तोंको सुख देनेवाले होंगे। तुम सुस्थिर उत्तम तप करो; क्योंकि वही समस्त कार्योंका साधन है।

विष्णु चालीसा एक भक्ति गीत है जो भगवान विष्णु पर आधारित है। हिन्दु मान्यतानुसार भगवान विष्णु त्रिदेवों में सेएक हैं।

॥ दोहा ॥

विष्णु सुनिए विनय, सेवक की चितलाय । कीरत कुछ वर्णन करूँ, दीजै ज्ञान बताय ॥

॥ चौपाई ॥

नमो विष्णु भगवान खरारी । कष्ट नशावन अखिल बिहारी ॥

प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी । त्रिभुवन फैल रही उजियारी ॥

सुन्दर रूप मनोहर सूरत । सरल स्वभाव मोहनी मूरत॥

तन पर पीताम्बर अति सोहत बैजन्ती माला मनमोहत॥

शंख चक्र कर गदा बिराजे। देखत दैत्य असुर दल भाजे॥

सत्य धर्म मद लोभ न गाजे । काम क्रोध मद लोभ न छाजे॥

सन्तभक्त सज्जन मनरंजन । दनुज असुर दुष्टन दल गंजन॥

सुख उपजाय कष्ट सब भंजन । दोष मिटाय करत जन सज्जन ॥

पाप काट भव सिन्धु उतारण कष्ट नाशकर भक्त उबारण॥

करत अनेक रूप प्रभु धारण । केवल आप भक्ति के कारण॥

धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा। तब तुम रूप राम का धारा ॥

भार उतार असुर दल मारा। रावण आदिक को संहारा॥

आप वाराह रूप बनाया। हिरण्याक्ष को मार गिराया॥

धर मत्स्य तन सिन्धु बनाया। चौदह रतनन कोनिकलाया ॥

अमिलख असुरन द्वन्द मचाया।रूप मोहनी आपदिखाया ॥

देवन को अमृत पान कराया। असुरन को छबि से बहलाया ॥

कूर्म रूप धर सिन्धु मझाया । मन्द्राचल गिरि तुरतउठाया॥

शंकर का तुम फन्द छुड़ाया। भस्मासुर को रूप दिखाया ॥

वेदन को जब असुर डुबाया।कर प्रबन्ध उन्हें ढूँढवाया ॥

मोहित बनकर खलहि नचाया। उसही कर से भस्म कराया ॥

असुर जलंधर अति बलदाई शंकर से उन कीन्ह लड़ाई ॥

हार पार शिव सकल बनाई। कीन सती से छल खल जाई॥

सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी । बतलाई सब विपत कहानी॥

तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी । वृन्दा की सब सुरति भुलानी ॥

देखत तीन दनुज शैतानी । वृन्दा आय तुम्हें लपटानी ॥

हो स्पर्श धर्म क्षति मानी।हना असुर उर शिव शैतानी॥

तुमने धुरू प्रहलाद उबारे । हिरणाकुश आदिक खल मारे॥

गणिका और अजामिल तारे । बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे॥

हरहु सकल संताप हमारे। कृपा करहु हरि सिरजन हारे॥

देखहुँ मैं निज दरश तुम्हारे । दीन बन्धु भक्तन हितकारे ॥

चहत आपका सेवक दर्शन । करहु दया अपनी मधुसूदन॥

जानूं नहीं योग्य जप पूजन।होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन॥

शीलदया सन्तोष सुलक्षण। विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण ॥

करहुँ आपका किस विधि पूजन।कुमति विलोक होत दुख भीषण॥

करहुँ प्रणाम कौन विधिसुमिरण।कौन भांति मैं करहुँ समर्पण॥

सुर मुनि करत सदा सिवकाई। हर्षित रहत परम गति पाई॥

दीन दुखिन पर सदा सहाई।निज जन जान लेव अपनाई ॥

पाप दोष संताप नशाओ।भव बन्धन से कराओ॥

सुत सम्पति दे सुख उपजाओ। निज चरनन का दास बनाओ। निगम सदा ये विनय सुनावै। पढ़े सुनै सो जन सुख पावै॥

चालीसा

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